झोलाछाप डॉक्टरों के भरोसे गांवों की सेहत — स्वास्थ्य तंत्र पर एक ग्राउंड रिपोर्ट

राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन की रिपोर्ट (2023) के अनुसार, भारत में लगभग 40% ग्रामीण प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (PHC) में कोई MBBS डॉक्टर नहीं है.

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आमिर अब्बास
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गार्डिनर रोड अस्पताल

"तबियत खराब थी, बच्चा पूरा दिन उल्टी करता रहा. सरकारी अस्पताल चार किलोमीटर दूर है और वहां कोई नहीं मिलता. गांव के रमेश भैया को बुलाया, उन्होंने दो इंजेक्शन लगा दिए, शाम तक बच्चा ठीक लगने लगा."

यह कहानी बिहार के खगड़िया जिले के एक गांव की है — एक कहानी, जो झारखंड, उत्तर प्रदेश, ओडिशा से लेकर बंगाल तक, हजारों गांवों में दोहराई जाती है. यहां चिकित्सा के नाम पर भरोसा किसी MBBS डॉक्टर पर नहीं, बल्कि 'झोलाछाप' कहे जाने वाले नीम-हकीमों पर होता है.

झोलाछाप डॉक्टर: गांव की पहली और आख़िरी उम्मीद

बिहार के मुंगेर जिले के एक गांव में दिनेश यादव को लोग “डॉक्टर साहब” कहते हैं. वे किसी मेडिकल कॉलेज से नहीं पढ़े, न ही उनके पास कोई प्रमाणित डिग्री है, लेकिन 15 वर्षों से बुखार, उल्टी, डायरिया से लेकर मलेरिया तक का इलाज कर रहे हैं. पूछने पर वे कहते हैं,

"हमरे पास अनुभव है, सरकारी अस्पताल में कौन बैठा है? मरीज मरे तब तक डॉक्टर शहर से आएंगे?"

गांवों में ऐसे झोलाछाप ‘डॉक्टरों’ की संख्या हजारों में है. वे अक्सर किराए की दुकानों या अपने घर के बरामदे में ‘क्लिनिक’ चलाते हैं. उनके पास कुछ सिरिंज, टेबलेट्स, कुछ टॉनिक की शीशियां और सबसे अहम — “तुरंत इलाज” का भरोसा होता है.

सरकारी स्वास्थ्य तंत्र की अनुपस्थिति

राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन की रिपोर्ट (2023) के अनुसार, भारत में लगभग 40% ग्रामीण प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (PHC) में कोई MBBS डॉक्टर नहीं है. बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड जैसे राज्यों में यह आंकड़ा 60% तक पहुंच जाता है.

  • बिहार में करीब 11,000 गांव हैं लेकिन कुल सरकारी डॉक्टरों की संख्या 12,000 से कम है.

  • झारखंड के गढ़वा जिले में 34 PHC हैं, लेकिन सिर्फ 9 डॉक्टर कार्यरत हैं.

  • छत्तीसगढ़ के बस्तर में कुछ ब्लॉक ऐसे हैं, जहां पिछले 2 सालों से कोई नियमित डॉक्टर तैनात नहीं.

झोलाछाप क्यों हैं ज़रूरी — एक विडंबना

एक तरफ सरकार इन्हें गैर-कानूनी घोषित करती है, दूसरी तरफ ये डॉक्टर ग्रामीणों की एकमात्र सहारा हैं. महादेव नाम के बुजुर्ग बताते हैं — "हमको अस्पताल जाना है तो रोज़ी-रोटी छोड़नी पड़ेगी, बस का किराया, दवा, और लाइन में लगकर मरते रहो. लेकिन झोलाछाप डॉक्टर आएंगे घर पर, तुरंत दवा देंगे, 50-100 में काम हो जाएगा."

वहीं मधुबनी के एक PHC में कार्यरत डॉक्टर खुद मानते हैं कि — "हमारी पोस्टिंग तो है, पर व्यवस्था नहीं. न दवा, न लैब, न बिजली. ऐसे में गांववाले झोलाछाप के पास जाएंगे ही."

बड़ी बीमारियों का गलत इलाज — खतरनाक खेल

यह भरोसा कई बार जानलेवा भी बनता है. दरभंगा जिले के सिंहवाड़ा गांव में एक 5 साल की बच्ची को उल्टी-दस्त के इलाज में झोलाछाप ने गलत इंजेक्शन दे दिया, जिससे बच्ची की मौत हो गई. परिजनों ने केस भी नहीं किया — क्योंकि 'डॉक्टर' तो गांव का अपना ही था.

WHO की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में 57.3% चिकित्सा सेवाएं अनियमित या अप्रमाणित स्त्रोतों से ली जाती हैं. ग्रामीण इलाकों में यह संख्या 70% तक पहुंचती है.

बाजार का खेल — दवा कंपनियों का नया टारगेट

झोलाछाप डॉक्टर फार्मा कंपनियों का एक नया टारगेट हैं.

  • बड़ी कंपनियां गांव के दुकानदारों को “सेल्समैन” बनाकर मुनाफा कमा रही हैं.

  • दवाएं बिना प्रिस्क्रिप्शन के बिकती हैं, और कुछ ब्रांड्स तो खासतौर पर झोलाछापों के लिए बनाए जाते हैं.

पश्चिम चंपारण के एक गांव में रमाकांत यादव कहते हैं —“डिस्ट्रीब्यूटर आता है, सिखाता है कौन दवा किसे देना है. हम भी सीख गए हैं.” यह 'गोलियां मारकर ठीक करने' का कल्चर धीरे-धीरे जड़ें जमा चुका है.

झोलाछापों की दुनिया — अवैध लेकिन ज़रूरी

इन झोलाछापों में से कई RMP (Registered Medical Practitioner) या आयुर्वेद, यूनानी की डिग्रीधारी होते हैं. कुछ ने किसी नर्सिंग होम में साल-दो साल काम कर लिया, वहीं से सीखा. सरकारी दृष्टिकोण से वे अवैध हैं — लेकिन सामाजिक यथार्थ यह है कि उनकी सेवाएं ही गांव के लिए जीवनरेखा हैं.

क्या है विकल्प?

सरकार के पास दो रास्ते हैं:

  1. स्वास्थ्य व्यवस्था मजबूत की जाए —PHC/CHC को दवा, डॉक्टर और सुविधाओं से लैस किया जाए. गांवों में 24x7 प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध हों.

  2. झोलाछापों को प्रशिक्षित किया जाए —स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा मान्यता प्राप्त कोर्स कराकर इन्हें कम-जोखिम बीमारियों के इलाज की वैधता दी जा सकती है. WHO की ‘task-shifting’ नीति के तहत ऐसा कई देशों में हुआ है.

झोलाछाप डॉक्टर — एक ज़रूरत, एक चुनौती

झोलाछाप डॉक्टर कोई समाधान नहीं हैं, लेकिन वे उस विफलता की परछाईं हैं, जो ग्रामीण स्वास्थ्य तंत्र की हकीकत को उजागर करती है.

जब कोई डॉक्टर नहीं होता, तब एक नीम-हकीम ही देवता बन जाता है.

अगर गांवों को बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं चाहिए, तो सिर्फ झोलाछापों पर कार्रवाई करने से कुछ नहीं होगा. ज़रूरत है एक मजबूत, ज़मीनी और संवेदनशील स्वास्थ्य नीति की — जो शहरों से नहीं, गांवों से शुरू हो.