उस राज्य की स्वास्थ्य व्यवस्था कैसी होगी जिसका जिला स्वास्थ्य प्रशासन राज्य में होने वाली बच्चों के मौत के आंकड़े छिपाने लग जाए. आंकड़े छिपाने का अर्थ है कि प्रशासन चाहता है कि मौत के कारणों का पता लोगों के सामने ना आए.
दैनिक भास्कर में छपी एक रिपोर्ट में दावा किया गया है कि अप्रैल से अक्टूबर, 2024 के बीच विभिन्न बीमारियों से राज्य के सभी जिलों में 55,809 बच्चों की मौत होने की आशंका है. इन सभी बच्चों की उम्र पांच वर्ष तक है. हालांकि जिलों ने मात्र 10,431 बच्चों की मौत होने की रिपोर्ट मुख्यालय को सौंपी है. यही नहीं जिलों की ओर से हेल्थ मैनेजमेंट इनफार्मेशन सिस्टम (HMIS) और मैटरनल पेरिनेटल एंड चाइल्ड सर्विलांस रिस्पांस (MPCDSR) पोर्टल पर अलग-अलग आंकड़े डाले गए हैं.
हेल्थ मैनेजमेंट इनफार्मेशन सिस्टम (HMIS) पर बच्चों की मौत का आंकड़ा 10,431 है जबकि मैटरनल पेरिनेटल एंड चाइल्ड सर्विलांस रिस्पांस (MPCDSR) पोर्टल पर मात्र 5508 है. इस पर शिशु स्वास्थ्य के राज्य कार्यक्रम पदाधिकारी डॉ विजय प्रकाश राय ने सभी सीएस को पत्र लिखकर बच्चों की मौत का सही आंकड़ा पोर्टल पर दर्ज करने को कहा है.
मुसहर टोली में बच्चों की मौत
बिहार के अररिया जिले के रानीगंज प्रखंड के मुसहर बहुल चिरवाहा रैहिका गांव में सितम्बर महीने में अचानक एक-एक कर पांच बच्चों की मौत हो गई. मरने वाले बच्चों में ढाई माह से लेकर आठ वर्ष तक के बच्चे शामिल थे. अचानक हुई इस घटना से पूरा स्वास्थ्य महकमा सकते में आ गया था. जांच के लिए पहुंची राज्य स्वास्थ्य विभाग की टीम ने शुरूआती जांच में पाया कि टोले के दो दर्जन से अधिक बच्चे एनीमिया से ग्रस्त थे जो कुपोषण के संकेत हैं.
दुनियाभर में पांच साल से कम उम्र के बच्चों के मौत का कारण कुपोषण को माना गया है. डॉक्टरों के अनुसार समुचित पोषण ना मिलने के कारण छोटे बच्चों की रोग प्रतिरोधक क्षमता कमज़ोर हो जाती है, जिससे बच्चों को विभिन्न प्रकार के रोग पकड़ने का ख़तरा बना रहता है.
साल 2019-20 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-5) के आंकड़े बताते हैं कि देश में कुपोषण के मामले बढ़े हैं. साल 2022 में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा एक आरटीआई के जवाब में बताया था कि देश में 33 लाख से ज्यादा बच्चे कुपोषित थे.
एनएफएचएस-5 के आंकड़े बिहार में महिला और बाल स्वास्थ्य के लिए भी गंभीर संकेतक सामने लाया था. इसमें सबसे गंभीर आंकड़े एनीमिया और कुपोषण को लेकर थे. इन आंकड़ों की गंभीरता को देखते हुए सरकार को जरुरी कदम उठाने चाहिए थे.
देशभर में कुपोषण को कम करने के लिए पोषण अभियान के तहत पोषण माह, पोषण जन आंदोलन, पोषण पखवाड़ा जैसे कई कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं. इन्हीं केन्द्रों पर हर महीने ग्रामीण स्वास्थ्य एवं पोषण दिवस के रूप में मनाया जाता है. इस दिन गांव की आशा और आंगनबाड़ी कार्यकर्ता बच्चों और महिलाओं को पोषण से संबंधित जानकारी देती हैं. इन कार्यक्रमों में आंगनबाड़ी केंद्रों की अहम् भूमिका होती हैं.
लेकिन रानीगंज प्रखंड के बच्चों और महिलाओं को यह सब सुविधाएं नहीं मिल पाती हैं. मीडिया रिपोर्ट के अनुसार प्रभावित गांव के वार्ड नंबर 11 में आंगनबाड़ी केंद्र है जो इस टोले से चार किलोमीटर दूर हैं. इन केन्द्रों तक पहुंचने केलिए बच्चों कोसी की धारा पार करनी पड़ती हैं. यही कारण है कि मुसहर टोले के बच्चे कुपोषण और एनीमिया से आज भी ग्रस्त हैं और असमय मौत की मुंह में जा रहे हैं.
कुपोषण के शिकार बच्चे
बिहार में बच्चों में कुपोषण आज भी एक बड़ी समस्या है. NFHS-5 के रिपोर्ट के अनुसार राज्य में छह माह से पांच साल के 69.4 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार थे. स्टंटिंग, वेस्टिंग और कम वजन (अंडरवेट) बच्चों में कुपोषण के सबसे अहम कारको में आते हैं और यह अभी भी राज्य में उच्च स्तर पर बना हुआ है.
NFHS-4 रिपोर्ट में बिहार में 48 फीसदी बच्चे उम्र के अनुसार कम लम्बाई (स्टंटिंग) के शिकार थे, लेकिन NFHS-5 रिपोर्ट में इसमें पांच प्रतिशत की कमी दर्ज की गई, जिसके साथ अब यह 43 फीसदी हो गई है. वहीं उम्र के अनुसार कम वजन के शिकार बच्चों का प्रतिशत भी 44 फीसदी से घटकर 41 फीसदी हो गया है. हालांकि, इसी अवधि में लम्बाई के अनुसार कम वजन में वृद्धि दर्ज की गई है. NFHS- 4 में यह 21 फीसदी था जो NFHS- 5 के समय बढ़कर 23 फीसदी हो गया. वहीं 23 फीसद बच्चों का वजन उनकी आयु तथा लंबाई के अनुसार नहीं बढ़ पाता है.
दुनियाभर में पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मौत का मुख्य कारण कुपोषण को माना गया है. शोध अध्ययनों से पता चलता है कि समुचित पोषण का अभाव, बच्चों की रोग प्रतिरोधक क्षमता को कमजोर कर देता है, जिससे ऐसे बच्चे विभिन्न संक्रामक रोगों की चपेट में जल्द आ जाते हैं.
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5) वर्ष 2019-20 के आंकड़ों के अनुसार बीते पांच वर्षों में देश के अधिकांश राज्यों में पांच साल से कम उम्र के बच्चों में कुपोषण के मामले बढ़े हैं. विशेषज्ञों के अनुसार जन्म के बाद छह माह तक केवल मां का दूध और छह माह के बाद मां के दूध के अलावा ऊपरी आहार बच्चों के लिए जरूरी है. लेकिन बहुत कम ही बच्चों को सही व पर्याप्त मात्रा में ऊपरी आहार मिल पाता है और वे अंतत: कुपोषण के शिकार हो जाते हैं.
नवजात मृत्यु दर में गिरावट
नवजात मृत्यु दर प्रति एक हजार जीवित जन्मों पर पहले 28 दिन की अवधि के दौरान बच्चों की मौतों की संख्या की ओर इशारा करती है. वर्ष 2030 तक नवजात शिशुओं और 5 वर्ष से कम आयु के बच्चों में असामान्य मौतें कम करना सभी देशों का उद्देश्य है. नवजात शिशु मृत्यु दर को घटाकर प्रति 1,000 जीवित जन्मों पर कम-से-कम 12 करना और 5 वर्ष से कम आयु के बच्चों में मृत्यु दर को घटाकर प्रति एक हजार जीवित जन्मों पर कम-से-कम 25 करना है.
राज्य में, शिशु मृत्यु दर प्रति एक हजार जीवित जन्मों के लिए 47 मृत्यु (एक वर्ष की आयु से पहले) थी, जो NFHS-4 (प्रति 1,000 जीवित जन्मों पर 48 मृत्यु) के लगभग समान थी. हालांकि NFHS-3 से NFHS-5 तक इसमें 15 अंक की गिरावट दर्ज की गई है. वहीं ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में इसमें केवल 4 अंको का अंतर दर्ज किया गया है. शहरों में जहां यह 43 प्रति 1,000 जीवित जन्म है वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में यह 47 प्रति 1,000 जीवित जन्म है.