नवंबर का दूसरा सप्ताह बिहार के लिए बड़े सौगातों से भरा रहा. मौका था पीएम नरेंद्र मोदी द्वारा बुधवार (13 नवंबर) को दरभंगा में सड़क, रेल, स्वास्थ्य और उर्जा क्षेत्र से जुड़ी कई परियोजनाओं का उद्घाटन किया जाना जिसकी अनुमानित लागत 12 हजार करोड़ रूपए है. इसी दौरान पीएम मोदी ने बिहार में बनने वाले दूसरे अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AIIMS) का भी शिलान्यास किया. इसका निर्माण 187 एकड़ भूमि पर 1264 करोड़ रुपए की अनुमानित लागत से किया जा रहा है.
यह राजधानी पटना के बाद बिहार में बनने वाला दूसरा एम्स होगा. इसे बनाने के लिए 36 महीनों का लक्ष्य रखा गया है. मंत्री से लेकर आम जनता तक इस उद्घाटन से फुले नहीं समा रहे हैं. लेकिन क्या इस एक अस्पताल से बिहार की चरमराई हुई स्वास्थ्य व्यवस्था रास्ते पर आ जाएगी? क्या बिहार के 38 जिलों में रहने वाले लोग स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव में दम नहीं तोड़ेंगे?
बिहार के सभी जिलों में जिला सदर अस्पताल, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र और उप स्वास्थ्य केन्द्र की स्थिति में आज भी कुछ खास सुधार नहीं हुआ हैं. जबकि स्वास्थ्य बजट के तौर राज्य सरकार हजारों करोड़ रुपए खर्च कर रही है. बिहार सरकार ने अपने वित्तीय बजट 2024-25 में स्वास्थ्य विभाग के लिए 14,932 करोड़ रुपए का प्रावधान किया है जिसमें से 7800 करोड़ रुपए स्वास्थ्य संबंधी निर्माण कार्यों और 7100 करोड़ रुपए योजनाओं पर खर्च किए जाएंगे.
बिहार की मौजूदा स्वास्थ्य व्यवस्था में यह प्रस्तावित राशि काफी कम है. नेशनल हेल्थ पॉलिसी कहती है कि राज्य सरकारों को अपने बजट का कम से कम 10 फीसदी स्वास्थ्य बजट पर खर्च करना चाहिए.
राज्य के स्वास्थ्य केन्द्र चिकित्सकों की कमी, स्वास्थ्य संबंधी उपकरणों की कमी, दवाओं की आपूर्ति, ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित स्वास्थ्य केन्द्रों का जीर्णोधार जैसे कार्य, त्वरित सुधार की राह देख रहे. इन क्षेत्रों में सुधार किए बिना केवल नए अस्पतालों की नींव रखने से बिहार की आम जनता को स्वास्थ्य सौगात नहीं दिया जा सकता है.
केवल बड़े अस्पतालों के निर्माण और क्षेत्रीय अस्पतालों के विकास पर ध्यान नहीं देने के सरकार के रवैए पर जन स्वास्थ्य अभियान के राष्ट्रीय कन्वेनर डॉ शकील कहते हैं “सरकार एम्स का निर्माण करा रही है, यह अच्छी बात है क्योंकि यह सुपर स्पेशियलिटी टर्शियरी अस्पताल है. लेकिन बिहार के जिला और अनुमंडल अस्पतालों, पीएचसी में सुविधाओं का अभाव है. वहां आबादी के हिसाब से डॉक्टर और बेड नहीं है. नर्सिंग स्टाफ और इक्विपमेंट्स नहीं हैं. एम्स का निर्माण केंद्र सरकार के पैसे होगा. बिहार सरकार का उसमें केवल जमीन उपलब्ध कराने भर का योगदान है.”
डॉ शकील सवाल करते हैं कि अगर एम्स का निर्माण हो भी गया तो उसमें कितनी सुविधाएं दी जाएंगी. बिहार में अभी एक एम्स पटना में है, उसमें इमरजेंसी के केवल 50 बेड हैं. ऐसे में सैकड़ों की संख्या में आने वाले मरीज रेफर कर दिए जाते है.
स्वास्थ्य केन्द्र और चिकित्सकों की कमी
बिहार के ग्रामीण और शहरी में क्षेत्रों में आज भी स्वास्थ्य सुविधाओं की भारी कमी है. वहीं मौजूद स्वास्थ्य केंद्रों में स्वास्थ्य कर्मियों और मरीजों के लिए उपलब्ध सेवाएं भी अपर्याप्त हैं. जनसंख्या के हिसाब से भारत के तीसरे बड़े राज्य की स्वास्थ्य व्यवस्था वर्षों से मानकों से काफी नीचे रही हैं. सरकार के हजारों करोड़ के बजट और बड़े-बड़े दावे, स्वास्थ्य जैसे अति-आवश्यक क्षेत्र में कोई खास सुधार नहीं कर सकी है.
केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा 9 सितम्बर को जारी किए गए वार्षिक रिपोर्ट ‘हेल्थ डायनेमिक्स ऑफ इंडिया (इन्फ्रास्ट्रक्चर एंड ह्यूमन रिसोर्सेज) 2022-23’ इस बात का खुलासा करती हैं कि बिहार में प्राथमिक, सामुदायिक और उप स्वास्थ्य केन्द्र आवश्यकता से करीब 60 फीसदी कम है.
बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में 22,543 उप-स्वास्थ्य केन्द्रों की आवश्यकता है लेकिन जुलाई 2023 तक केवल 9,654 केंद्र ही कार्यरत थे. इसके अलावा 3748 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों के स्थान पर मात्र 1519 केंद्र कार्य कर रहे थे. सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में यह संख्या और कम हो जाती है. जहां 937 केंद्र की आवश्यकता है वहां मात्र 274 केंद्र ही कार्यरत हैं यानी 71 फीसदी कम.
राज्य में स्वास्थ्य केन्द्रों की कमी पर डॉ शकील कहते हैं "आज राज्य की आबादी 14 करोड़ हो चुकी है. इतनी बड़ी आबादी के लिए जो स्वास्थ्य सुविधाएं होनी चाहिए वह हमारे पास नहीं है. स्वास्थ्य विभाग की नाकामी ही है कि आज तक पटना में सदर अस्पताल नहीं बनाया जा सका है. आजादी के 75 सालों बाद भी सभी जिलों में सदर अस्पताल, अनुमंडल अस्पताल, रेफरल अस्पताल नहीं खोला जा सका है."
जितने हेल्थ वर्कर्स होने चाहिए उसमें केवल डॉक्टर नहीं बल्कि, नर्स, एएनएम, स्पेशियलिस्ट, फार्मासिस्ट, लैब टेक्नीशियन, रेडियोग्राफर सब की भयानक कमी हैं.
स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के अनुसार प्रत्येक 30 हजार की आबादी पर एक पीएचसी होना चाहिए. हालांकि बिहार में इस गाइडलाइन का पालन होता नजर नहीं आ रहा है. बिहार में 73,531 लोगों की आबादी पर एक पीएचसी चल रहे हैं.
इतनी बड़ी संख्या में स्वास्थ्य केन्द्रों की कमी सरकार की विफलता को उजागर करती है. बीते कुछ वर्षों में स्वास्थ्य केन्द्रों की संख्या बढ़ाने पर ध्यान दिया गया है लेकिन उन केन्द्रों पर मानव संसाधन की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ. आज भी बिहार में चिकित्सकों और पारा मेडिकल स्टाफ की भारी कमी है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के अनुसार एक हजार की आबादी पर एक चिकित्सक होना चाहिए. लेकिन बिहार में लगभग 30 हजार की आबादी पर एक सरकारी डॉक्टर मौजूद हैं. अगर निजी अस्पतालों के डॉक्टरों को शामिल किया जाए तब भी संख्या में कुछ खास अंतर नहीं आता है.
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार राज्य में जिला,अनुमंडल,मेडिकल कॉलेज अस्पताल के साथ विभिन्न स्तर के सरकारी अस्पतालों में स्थाई डॉक्टरों के 12,895 पद स्वीकृत हैं. जिनमें से 5,751 पद खाली हैं. वहीं संविदा डॉक्टरों के 4,751 पद स्वीकृत हैं जिनमें दो हजार से ज्यादा पद रिक्त हैं.
स्वास्थ्य कर्मियों के पदों की स्वीकृति को लेकर डॉ शकील कहते हैं “राज्य में करीब 20 सालों पहले डॉक्टरों के पद स्वीकृत किये गए थे. उसमें से भी करीब 40 से 50 फीसदी पद खली रह जाते हैं. जबकि आज के हिसाब से पद में बढ़ोतरी की आवश्यकता है.”
किसी भी स्वास्थ्य केंद्र पर बेहतर चिकित्सा तभी दी जा सकती है जब वहां विशेषग्य डॉक्टर और उनको सहयोग करने वाले कर्मी मौजूद हों. लेकिन राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित अस्पताल डॉक्टर के बिना ही संचालित हो रहे हैं.
अस्पतालों में चिकित्सा कर्मियों की कमी को लेकर डॉ शकील कहते हैं “सरकार भर्तियां कॉन्ट्रैक्ट पर करना चाहती है लेकिन डॉक्टर कॉन्ट्रैक्ट पर नौकरी करना नहीं चाहते. पुरे देश में मार्केट इकॉनमी लागू है लेकिन डॉक्टर से अपेक्षा की जाती है कि वे सेवा भाव से काम करें. आज निजी संस्थानों में डॉक्टर बनने में दो करोड़ रुपए खर्च हो रहे हैं. सरकार ने निजी संस्थानों को पनपने का मौका दिया. ऐसे में डॉक्टर बनने के बाद कोई 60-70 हजार रुपए में 11 महीनों के कॉन्ट्रैक्ट पर काम क्यों करेगा. वह भी गांव देहात के ऐसे इलाके, जहां साल के आठ महीने पानी लगा रहता हो, जहां स्वास्थ्य केंद्र में कोई सुविधा नहीं हो. वह पटना के मेदांता और पारस जैसे अस्पतालों में नौकरी कर लेगा जहां उसे डेढ़ लाख रुपए की सैलरी मिलती है."
राज्य में 10,686 उप-केंद्र, 1,796 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी), 306 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (सीएचसी), 45 उप-मंडल/जिला अस्पताल (एसडीएच), 36 जिला अस्पताल (डीएच) और 11 मेडिकल कॉलेज हैं, जो ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवा देते हैं. लेकिन इन स्वास्थ्य केन्द्रों में विशेषज्ञ डॉक्टरों की कमी है. ग्रामीण क्षेत्रों के स्वास्थ्य व्यवस्था के लिए आवश्यक माने जाने वाले सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र विशेषग्य डॉक्टरों के बिना चल रहे हैं.
केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा पीएचसी के लिए बनाई गई गाइडलाइन के अनुसार एक पीएचसी पर कम-से-कम 12 स्वास्थ्य कर्मचारी होने चाहिए. इसमें डॉक्टर, नर्स, एएनएम, फार्मासिस्ट, लैब टेक्निशियन जैसे पद हैं. वहीं इंडियन पब्लिक हेल्थ स्टेंडर्ड के मानकों के अनुसार प्रत्येक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में चार विशेषग्य (सर्जन, फिजिशियन, पीडियाट्रिशियन और प्रसूति व स्त्री रोग) विशेषग्य होने चाहिए.
हेल्थ डायनेमिक्स ऑफ इंडिया रिपोर्ट्स के अनुसार सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में जहां 274 सर्जन की आवश्यकता है वहां मात्र 70 सर्जन ही कार्य कर रहे हैं. शेष 204 अस्पताल के मरीज ऑपरेशन के लिए दूसरे अस्पताल में रेफर कर दिए जा रहे हैं. किसी भी बड़ी सर्जरी में एक एनेस्थेटिस्ट का होना बहुत आवश्यक होता है. लेकिन बिहार के अस्पतालों में इनकी भारी कमी है. 274 में से केवल 9 सीएचसी में ही एनेस्थेटिस्ट मौजूद हैं. जबकि विभाग ने इसके लिए 486 पद स्वीकृत कर रखे हैं.
स्त्री एवं प्रसूति रोग विशेषग्य भी केवल 72 केंद्रों पर मौजूद हैं. फिजिशियन डॉक्टर की संख्या 26 पदों तो वहीं बाल रोग विशेषग्य भी मात्र 41 केंद्रों पर मौजूद हैं. इसके अलावा आयुष डॉक्टरों की भी कमी है. राज्य में 39 सीएचसी ही ऐसे हैं जहां चारों विशेषग्य डॉक्टर मौजूद हैं.
स्वास्थ्य सेवाओं के लिए जरूरी सुविधाओं का अभाव
स्वास्थ्य कर्मियों के साथ-साथ ग्रामीण क्षेत्रों के इन अस्पतालों में मूलभूत सुविधाएं भी नहीं है. ग्रामीण क्षेत्रों में संचालित 1,519 पीएचसी में से मात्र 484 में प्रसव कक्ष (Labour room) और 231 में ऑपरेशन थिएटर (OT) मौजूद हैं. जबकि मात्र 613 अस्पतालों में कम से कम 4 बेड मौजूद हैं.
ग्रामीण क्षेत्रों के अस्पतालों के साथ-साथ राज्य के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल पीएमसीएच भी स्वास्थ्य अव्यवस्था से जूझता रहता है. यहां राज्य के सभी जिलों से मरीजों को रेफर किया जाता है. मरीज भी अच्छे और किफायती इलाज की उम्मीद में यहां आना चाहते हैं. लेकिन राज्य का यह बड़ा अस्पताल बीते 11 महीनों से ईको जांच मशीन की कमी से जूझ रहा है. ऐसे में ह्रदय रोग से ग्रसित मरीज ईलाज के लिए निजी अस्पताल जाने को मजबूर हैं.
ईको जांच मशीन के अलावा यहां एंजियोप्लास्टी करने के लिए मैनपावर की भी कमी है. जिसके कारण 24 घंटे उपलब्ध कराई जाने वाली यह सेवा केवल दिन में में ही उपलब्ध कराई जाती है.
पीएमसीएच के अधीक्षक डॉ आईएस ठाकुर कहते हैं कि अगर अस्पताल में उपकरण और मैनपावर की व्यवस्था कर दी जाती है तो 24 घंटे इसकी सुविधा बहाल की जा सकती है.
हृदय रोग से जुड़े इलाज में ईको जांच की तरह ही कैथ लैब का होना बहुत आवश्यक होता है. विशेषज्ञों का कहना है कि हार्ट अटैक के मरीजों को थ्रोंबोलाइसिस (खून के थक्के गलाने की दवा) देकर अगर कैथ लैब वाले अस्पताल में भेज दिया जाए तो मरीज की जान बच सकती है. हालांकि दुर्भाग्य या फिर स्वास्थ्य विभाग की विफलता,राज्य के केवल चार सरकारी अस्पतालों में ही कैथ लैब मौजूद हैं. वह भी पटना स्थित पीएमसीएच,आईजीआईएमएस,आईजीआईसी और एम्स में. राज्य के अन्य 10 मेडिकल कॉलेज और जिला अस्पतालों में इसकी सुविधा नहीं है.
यूरोपियन गाइडलाइन के अनुसार 50-60 लाख की आबादी पर एक कैथ लैब होना चाहिए. लेकिन बिहार में 13 करोड़ की आबादी पर मात्र 4 सरकारी कैथ लैब हैं. जबकि नियमों के अनुसार कम से कम 26 कैथ लैब होने चाहिए.
राज्य के स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडेय द्वारा मीडिया में दिए बयान के अनुसार “कैथ लैब सुपरस्पेशियलिटी सेवा है. इसे सभी संस्थानों में शुरू नहीं किया जा सकता है. वे आगे कहते हैं कि राज्य के बड़े सरकारी अस्पताल और निजी अस्पताल में इसकी सुविधा है. और आने वाले तीन सालों में दरभंगा एम्स में इसे शुरू किया जाएगा.
ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या जिला सदर अस्पतालों को सुपरस्पेशियलिटी सेवा से युक्त बनाए जाने की जरुरत नहीं है? क्या स्वास्थ्य मंत्री द्वारा यह जताना कि जिला अस्पताल सुपरस्पेशलिस्ट नहीं है स्वास्थ्य विभाग की नाकामी है. आखिर कब तक अन्य जिलों के मरीज इलाज के लिए पटना के अस्पतालों पर निर्भर रहेंगे. कब तक निजी अस्पताल में इलाज कराते हुए गरीब परिवार कर्ज के बोझ में दबते रहेंगे?