टेक्निकल शिक्षा में पिछड़ रहे दलित छात्रों की पीड़ा असहनीय है. दलित छात्रों को नौकरी के दौरान अक्सर लोग बोलते हैं कि वह तो 'आरक्षण वाला डॉक्टर है क्या इलाज करेगा'. या जब कहीं पुल गिरता है तो लोग यही बोलते हैं कि पक्का कोई आरक्षण वाला ही बनाया होगा. लेकिन अगर हम अपनी शिक्षा व्यवस्था और दिमाग दोनों का विश्लेषण करें तो पता चलेगा कि दोनों में जंग लग चुका है. एक समृद्ध घर से आने वाले स्टूडेंट डोनेशन देकर इंजीनियर का डॉक्टर बन जाता हैं, और हमें उसकी काबिलियत पर भरोसा भी होता है. जबकि उसने अपने दाखिले के लिए किसी भी एग्जाम को क्वालीफाई नहीं किया है. बल्कि सिर्फ पैसे के दम पर इंजीनियर या डॉक्टर बन गया है.
टेक्निकल शिक्षा की पढ़ाई अंग्रेज़ी में होने के कारण करनी पड़ती है अधिक मेहनत
भारत को आजाद हुए 75 साल बीत गए. लेकिन उच्च शिक्षा के दो महत्वपूर्ण क्षेत्रों में अब भी अंग्रेजी भाषा के अलावा कोई और भाषा अपना स्थान नहीं बना सका है. भारत में इंजीनियरिंग और मेडिकल क्षेत्र में जाना कई छात्रों की प्राथमिक इच्छाओं में से एक मानी जाती है. परंतु इन क्षेत्रों में अंग्रेजी के अलावा किसी और भाषा का विकल्प छात्रों के पास नहीं रह जाता.
मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेजों में पढ़ने वाले बहुत से छात्र अपनी प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक हिंदी माध्यम से पढ़े होते हैं. ऐसे छात्रों को भाषा के आधार पर काफ़ी समस्या होती है. शिक्षक भी अंग्रेज़ी भाषा में ही पढ़ाते हैं. इसके अलावा परीक्षा भी केवल और केवल अंग्रेज़ी भाषा में ही ली जाती है. इस विषय पर हमने इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेजों से पढ़ चुके छात्रों से बात की.
IGIMS से पढ़ चुके डॉक्टर अल्ताफ़ अंसारी ने हमें बताया कि,
किसी भी कंपटीशन में जब छात्र बैठते हैं. तो वह अलग-अलग भाषा से पढ़े होते हैं. ख़ासकर बिहार-यूपी के ऐसे छात्र जो ग्रामीण क्षेत्रों से आते हैं. उन्हें काफी दिक्कत उठानी पड़ती है. शुरुआत में मैं खुद हिंदी माध्यम का छात्र रहा हूं. कॉलेज जाने के बाद पढ़ाई करने में जो समय लगना चाहिए था, वह भाषा सीखने में चला जाता है. इसके अलावा परीक्षा में आने वाले सवाल को भी अंग्रेज़ी में ही सॉल्व करना पड़ता है. यह भी हिंदी माध्यम के छात्रों के लिए एक बड़ा चैलेंज होता है, क्योंकि सवाल बाइलिंगुअल नहीं आते केवल अंग्रेज़ी में ही आते हैं.
सिर्फ़ मध्यप्रदेश में MBBS की पढ़ाई हिंदी में मौजूद
एमबीबीएस की शिक्षा हिंदी माध्यम से देने वाला भारत का पहला राज्य मध्यप्रदेश है. इसकी शुरुआत पिछले ही वर्ष मध्यप्रदेश के शासकीय गांधी मेडिकल कॉलेज, भोपाल से की गई है.
राज्य में समय-समय पर छात्रों के द्वारा इसकी मांग उठ रही थी जिसके बाद सरकार ने यह निर्णय लिया. इसके तहत चिकित्सा शिक्षा के पाठ्यक्रम में हिंदी भाषा के उपयोग और महत्व को बढ़ावा देने के लिए और सप्लीमेंट्री किताबें तैयार की जाएंगी.
राजीव कुमार कृषि वभाग में इंजिनियर के तौर पर कार्यरत हैं. राजीव कुमार भी हिंदीभाषी परिवेश से आते हैं. उनकी मातृभाषा भोजपुरी है. ऐसे में अंग्रेज़ी में इंजीनियरिंग करने के अनुभव पर जब डेमोक्रेटिक चरखा ने राजीव कुमार से बात की तो लगा कि वो कबसे इस समस्या पर बात करना चाह रहे थे. राजीव कुमार कहते हैं-
इस परेशानी को मुझसे अच्छा कौन समझ सकता है. मेरी भाषा भोजपुरी रही है. मैं भोजपुरी में ही बात करने में सहज महसूस करता हूं. पहले जब मैं कॉलेज में था, तो पढ़ाई करते हुए मुझे पहले भोजपुरी को हिंदी में कन्वर्ट करना पड़ता था. उसके बाद फिर अंग्रेज़ी में उसका अनुवाद करता था. अंग्रेज़ी भाषा सीखने के अलावा कोई दूसरा उपाय रह नहीं जाता. इसलिए समय के साथ छात्र थोड़ी परेशानी उठाते हुए भी अंग्रेज़ी सीख ही लेते हैं. बहुत अच्छी ना भी सीख पाए तो कम-से-कम काम चलाऊ सीखना ही पड़ता है.
टेक्निकल शिक्षा में फ़ाइलम व्यवस्था होने के कारण बढ़ता है, जातिगत भेदभाव
मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेजों में केवल भाषा के आधार पर ही नहीं, बल्कि जाति के आधार पर भी छात्रों को भेदभाव का सामना करना पड़ता है.
कॉलेजों में पढ़ने वाले दलित छात्रों के साथ उनके सहपाठी और कई प्रोफ़ेसर भी उन्हें निम्न दृष्टि से देखते हैं. इनायत मालिक बिहार के सबसे बड़े अस्पताल PMCH में पढ़ाई कर रहे हैं. फ़ाइलम सिस्टम को इनायत मेडिकल कॉलेज का सबसे बड़ा जातिगत पहलू मानते हैं. इनायत कहते हैं-
अगर कोई मुझसे पूछे कि मेडिकल कॉलेज में पढ़ने का सबसे डार्क साइड क्या है, तो मैं यही कहता हूं कि फ़ाइलम व्यवस्था है. फ़ाइलम दरअसल एक ग्रुपिंग है, जो अलग-अलग जाति के छात्रों की पहचान कराने में मदद करती है. मुझे नहीं पता इससे कॉलेज को कितना फ़ायदा होगा, लेकिन यह अब तक चल रहा है. अगर कोई छात्र राजपूत है, तो उसके फ़ाइलम को आर-फ़ाइलम कहा जाएगा. अगर कोई भूमिहार है. तो उसका बी-फ़ाइलम होता है. ठीक इसी प्रकार अन्य धर्मों के छात्रों का भी जाति के आधार पर फ़ाइलम बना हुआ है. एक और चीज वहां दलितों के फ़ाइलम को साइंटिस्ट-फ़ाइलम कहा जाता है. मेरे हिसाब से यह चीज़ें ठीक नहीं है और मैं आज तक नहीं समझ पाया हूं, कि इससे मेडिकल कॉलेजों को कितना फ़ायदा है.
दलित-आदिवासी को 'गुलाम' बनाने वाली मानसिकता आज भी मौजूद
हमारे मन में दलित-आदिवासी समुदाय को लेकर एक ज़बरदस्त सामंतवादी सोच और पूर्वाग्रह बैठा दिया गया है. हम यह मानने को तैयार ही नहीं होते हैं कि कोई दलित आदिवासी एक बेहतर इंजीनियर-डॉक्टर हो सकता है.
एक समृद्ध घर से आने वाले स्टूडेंट डोनेशन देकर इंजीनियर का डॉक्टर बन जाता हैं और हमें उसकी काबिलियत पर भरोसा भी होता है. जबकि उसने अपने दाखिले के लिए किसी भी एग्जाम को क्वालीफाई नहीं किया है. बल्कि सिर्फ पैसे के दम पर इंजीनियर या डॉक्टर बन गया है.
वहीं जिसने एक एग्जाम पास किया लेकिन उसे आरक्षण मिला, हमें उसकी काबिलियत पर हमेशा संदेह रहता है. डिग्री को पूरा करने के लिए जो सेमेस्टर एग्जाम होते हैं उसमें भी स्टूडेंट को मार्क्स के उनके आंसर के आधार पर मिलते हैं ना किसी के आरक्षण के आधार पर.
क्या आपको रोहित वेमुला और डॉक्टर पायल तड़वी याद हैं?
आपने रोहित वेमुला का नाम तो ज़रूर सुना होगा. यह वह छात्र था जिसकी काबिलियत पर शक किया गया, क्योंकि वह दलित था. उसे राजनीतिक रूप से प्रताड़ित किया गया. उसकी स्कॉलरशिप भी बंद कर दी गई. इन सब से परेशान होकर उसने आत्महत्या की, या फिर यूं कहें कि संस्थागत हत्या की गई. रोहित वेमुला के संदर्भ में भी यह बात कही गई कि वह दलित भी नहीं था और उसने सिर्फ़ फ्रस्टेशन में आत्महत्या की.
डॉ. पायल जो एक आदिवासी समुदाय भील से आती थी वह अपने समुदाय की पहली लड़की थी जो पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई कर रही थी. वह अपने परिवार की पहली डॉक्टर होती. डॉक्टर पायल के साथी डॉक्टर ने उनके आदिवासी होने का लगातार मज़ाक उड़ाया. उन्हें मानसिक रूप से प्रताड़ित किया.
डॉ पायल ने इसकी शिकायत अपने हेड ऑफ डिपार्टमेंट से भी की लेकिन कोई कार्यवाही नहीं की डॉक्टर ने आत्महत्या कर ली.
हमारे समाज ने हमेशा हमें यही सिखाया है कि दलित-आदिवासी हमारे गुलाम हैं. अगर दलित पढ़ाई करने लगेंगे तो नाली की सफाई कौन करेगा? हमारी इस मानसिकता ने ही डॉ पायल को और रोहित वेमुला को मारा है.
हम एक ऐसे देश में रहते हैं, जहां हमारे प्रधानमंत्री अपनी पुस्तक कर्मयोग में मैनुअल स्कैवेंजिंग को एक आध्यात्मिक कार्य बताते हैं. वहां पर हम अपने समाज से और क्या ही उम्मीद कर सकते हैं?
भाषा और जाति के आधार पर टेक्निकल शिक्षा में होने वाली समस्या को जल्द दूर करें बिहार सरकार
मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेजों में जाने की छात्रों की रूचि काफ़ी अधिक होती है. ऐसे में भाषा के आधार पर अथवा जाति के आधार पर होने वाला भेदभाव उनके इस मनोबल को प्रभावित कर सकता है. इससे केवल छात्रों का ही नहीं बल्कि देश का भविष्य भी ख़राब होगा.
दूसरी बात, यदि उत्तराखंड, मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश सरकार हिंदी माध्यम में चिकित्सकीय शिक्षा को उपलब्ध कराने की पहल कर रही है. तो बिहार सरकार यह पहल क्यों नहीं कर सकती? इससे बिहार के छात्रों को ही नहीं बल्कि अन्य हिंदी भाषी राज्य के छात्रों को बिहार में पढ़ने में मदद मिलेगी.
इसके अलावा बिहार सरकार जातिवाद को रोकने के लिए कॉलेज स्तर पर एससी-एसटी एक्ट जैसी कमेटी का निर्माण करें. यह कमेटी जाति के आधार पर होने वाले भेदभाव के लिए जवाबदेह होगी. पीड़ित छात्र की शिकायत के बाद इस विषय पर सीधे कमेटी से जवाब-तलब करने का नियम बनाया जाना चाहिए.