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ऐतिहासिक केपी जायसवाल शोध संस्थान अपनी पहचान बचाने की जद्दोजहद कर रहा है

भविष्य में आगे बढ़ने के लिए हमें अपने इतिहास को जानना बहुत ज़रूरी है। इसके लिए शोध की ज़रूरत होती है, जिसे लेकर सरकार पहल भी करती है। राजधानी में भी एक ऐसा ही ऐतिहासिक महत्त्व का संस्थान है लेकिन दुखद यह कि इतिहास को सहेज कर रखने वाले इस केपी जायसवाल शोध संस्थान का वर्तमान ही स्याह हो चुका है और यह संस्थान खुद अपने पहचान को बचाने की लड़ाई लड़ रहा है।

बिहार की राजधानी पटना में केपी जायसवाल शोध संस्थान की स्थापना 1950 में बिहार सरकार द्वारा की गई थी। तब इसका उद्देश्य बिहार सरकार द्वारा एतिहासिक अनुसंधान, पुरातात्विक उत्खनन व जांच और विद्वानों के लिए स्थायी मूल्य के कार्यों के प्रकाशन को बढ़ावा देना था। पटना म्यूजियम के महज चंद कमरों में बंद यह संस्थान अपने अतीत के सुनहरे दौर को खो रहा है। कर्मियों की कमी के कारण ये पुराने कमरे भी पूरी तरह से नहीं खुलते हैं। जितनी बहुमूल्य किताबें हैं उनकी बेहतर तरीके से देखभाल नहीं होने की वजह से वह खराब हो रही हैं। यह भी कि अगर किसी किताब के बारे में जानकारी लेनी है तो बताने वाला भी कोई नहीं है।

एक ऐसा भी वक्त था जब इस संस्थान का हर कोना रिसर्च करने वालों से गुलजार रहा करता था। तब यहां राज्य के अलावा देश के कोने-कोने से लोग रिसर्च व अध्ययन करने के लिए आया करते थे लेकिन आज के हालात ऐसे हैं कि इनको देखकर ऐसा लग रहा है कि गुजरे अतीत को सहेज कर रखने वाला यह संस्थान आज खुद इतिहास बनने की राह पर है।

इतिहास में रूचि रखने वाले विनीत बताते हैं,

इस संस्थान की स्थापना इतिहास पर शोध करने के लिए हुई थी जबकि संस्कृत के लिए मिथिला शोध संस्थान दरभंगा, पाली भाषा के विकास के लिए नालंदा महाविहार शोध संस्थान की स्थापना की गई थी। इस संस्थान को अब केंद्र सरकार ने अधिग्रहित कर लिया है। इसके अलावा प्राकृतिक व जैन अहिंसा शोध संस्थान वैशाली तथा अरबी फारसी शोध संस्थान की स्थापना अरबी फारसी भाषा के विकासके लिए की गई थी।

राजधानी के दानापुर इलाके के निवासी उत्कर्ष आनंद को भारत सरकार द्वारा अकादमिक ऐतिहासिक साहित्य (Academic Historical Literature) की किताब लिखने के लिए अनुदान मिला है। ये अनुदान भारत में कुछ चुनिन्दा स्कॉलर को ही दिया गया है। उत्कर्ष अपने रिसर्च प्रोजेक्ट के लिए केपी जायसवाल शोध संस्थान में कई बार जा चुके हैं। उन्होंने कुछ बहुत अहम किताबों को इस संस्थान से खरीदने की कोशिश भी की लेकिन जब वह खरीदने जाते हैं, तो उनको स्टॉल पर कोई नहीं मिलता है। डेमोक्रेटिक चरखा से बात करते हुए उत्कर्ष बताते हैं-

मेरे रिसर्च के लिए जो किताबें चाहिए वो इसी शोध संस्थान में मिलेगी। लेकिन यहां पर कोई किताबों की जानकारी देने वाला ही नहीं है। इसके वजह से बिहार में शोध का स्तर ही पूरे तरह से गिर चुका है। उसके बाद बिहार सरकार शिकायत करेगी कि बिहार के लोग शोधपरक काम नहीं कर रहे हैं। कहां से करें? जब पढ़ने  की जगह को सरकार बर्बाद करने पर ही तुली हुई है तो। इस वजह से बिहार का नाम राष्ट्रीय शोध स्तर पर ख़राब हो रहा है।

(उत्कर्ष आनंद रिसर्च स्कॉलर के साथ ही कवि भी हैं)

इस संस्थान में एक तरफ़ महापंडित राहुल सांकृत्यायन द्वारा तिब्बत से लाए गए दुर्लभ पांडुलिपियां हैं, वहीं दूसरी तरफ़ बौद्ध धर्म का इतिहास, संत कबीर का धर्म दर्शन, बिहार में हिंदी पत्रकारिता का विकास, आधुनिक हिंदी भारतीय इतिहास के स्त्रोत के रूप में हिंदी साहित्य, मृच्छकटिकम में वर्णित समाज व संस्कृति से लेकर पाटलिपुत्र से पटना बनने तक जैसे हजारों दुर्लभ ग्रंथ का प्रकाशन हुआ।

राजधानी के पटेल नगर के निवासी विनीत कुमार अध्ययन के लिहाज से इस संस्थान में कई बार चक्कर लगा चुके हैं। लेकिन अभी भी उनकी समस्या दूर नहीं हो सकी है। इतिहास के प्रति गंभीर रूचि रखने वाले विनीत बताते हैं, जब भी यहां आता हूं, खाली हाथ ही लौट कर जाना पड़ता है।

(हमेशा केपी जायसवाल शोध संस्थान के कमरे बंद ही रहते हैं)

यहां आए स्टूडेंट राजेश कहते हैं

इसके लेवल का कोई संस्थान नहीं है लेकिन हमारा दुर्भाग्य है कि हम लोगों को इसका लाभ नहीं मिल पाता है। मुझे एक किताब लेनी है। यहां छपने वाली किताबों को खरीदने के लिए एक स्टॉल भी है लेकिन वहां कोई नहीं मिलेगा। ऐसे में हम चाह के भी कोई किताब नहीं खरीद पाते हैं।

संस्थान की निदेशक कुमारी ललिता कहती हैं,

संस्थागत दिक्कते हैं लेकिन उनको दूर करने के लिए हमने अपने स्तर पर कई बार प्रयास भी किया है। कई बार हमारे प्रयास पूरे भी होते हैं। हां स्टाफ की कमी ज़रूर है जिसके कारण यहां आने वाले लोगों, स्टूडेंट्स व रिसर्चर को दिक्कतें होती हैं। किताब बिकने वाले स्टॉल पर एक फोर्थ ग्रेड कर्मी की नियुक्ति है। उसके द्वारा छुट्टी लिए जाने की वजह से किताबों को मिलने में असुविधा हो रही है लेकिन जल्द ही इसे दूर किया जाएगा। वह यह भी कहती हैं कि संस्थान और यूनिवर्सिटी में जो दिक्कतें हैं, वह किसी से छुपी हुई नहीं है लेकिन फिर भी हम काम कर रहे हैं। ज़रूरत पड़ने पर विभाग से ज़रूर बात की जाती है।

सरकारं की उदासीन रवैया की वजह से बिहार में एक समय कई शोध होते थे, वो अब ना के बराबर हो रहे हैं। शोधपरक पढ़ाई नहीं होने की वजह से पूरे बिहार में शिक्षा का स्तर गिर चुका है। नैक ने भी ये माना है कि बिहार में शोध की कमी है। लेकिन सरकार इस कमी को पूरा करने के लिए किसी तरह का कदम नहीं उठा रही है।

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