रीता देवी पश्चिम चंपारण के गौनाहा की रहने वाली हैं. पति रामेश्वर चल नहीं सकते इसलिए रीता देवी ही खेतों में मज़दूरी का काम करती हैं. साथ ही रीता देवी का एक छोटा सा खेत है उसपर भी वो समय निकाल कर सब्ज़ी उपजाने का काम करती हैं. भोर 3 बजे ट्रेन से हाट आकर सब्ज़ी बेचती हैं. खेत पर भले रीता देवी ही काम क्यों ना करें लेकिन फिर भी खेत का मालिकाना अधिकार रामेश्वर के पास ही है. महिला किसान होने के बाद भी उनका अधिकार उनके पास नहीं है.
देश में महिला किसानों की संख्या 73% है लेकिन भूमि का स्वामित्व 12.8% ही है. हाल के कुछ सालों में पूरे देश में महिला किसानों की तादाद में भारी गिरावट देखने को मिली है. इसकी वजह है महिलाओं के पास भूमि का अधिकार नहीं होना. पूरे देश में महिला खेतिहर मज़दूर की संख्या बढ़ते जा रही है. ऑक्सफेम इंडिया के एक सर्वे (2018, सन ऑफ द सॉइल) के मुताबिक कृषि के आर्थिक पक्ष पर केवल 8% महिलाओं का ही अधिकार है. दरअसल सरकारी दस्तावेज़ों में महिलाओं को किसान माना ही नहीं जाता है क्योंकि उनके नाम पर ज़मीन नहीं रहती. जिस वजह से सरकार द्वारा किसानों को मिलने वाली कोई भी सब्सिडी या लाभ महिला किसान नहीं मिल पाती है.
ऐसा नहीं है कि ग्रामीण महिला, जो कृषि के कार्य से जुड़ी हों, उन्हें किसानों का दर्जा देने की बात नहीं उठी है. साल 2011 में राज्यसभा सांसद एमएस स्वामीनाथन ने वुमन फार्मर एनटाइटलमेंट बिल-2011 पेश किया था. 11 मई, 2012 को यह बिल राज्यसभा में पेश हुआ, लेकिन यह अप्रैल, 2013 में रद्द हो गया.
कटिहार के कोढ़ा प्रखंड में की रहनी वाली सुमिया देवी बताती हैं-
कोई भी महिला अपने पति के खेत पर जब काम करती है तो ये माना जाता है कि ये तो उसका कर्त्तव्य है लेकिन जब भी ज़मीन की बात आएगी तो वो पति के घर वालों के पास ही रहेगी. क्योंकि उनके नज़र में तो हम बाहरी व्यक्ति हैं. इसलिए कभी भी हम ये सोचते ही नहीं हैं कि कोई ज़मीन हमको मिलेगी भी.
UN वीमेन की 2013 की रिपोर्ट Realizing women’s right to land and other productive resources के अनुसार जिन महिलाओं के पास भूमि का स्वामित्व है उस महिला के पास बेहतर सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा मौजूद है. हर धार्मिक समुदाय में भी महिलाओं के ज़मीन के हिस्से को लेकर कानून मौजूद है. हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के अनुसार, एक हिंदू पुरुष की मृत्यु के बाद, भूमि को उसकी पत्नी, मां और बच्चों के बीच विभाजित किया जाना है। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम सिख धर्म, बौद्ध धर्म या जैन धर्म के लोगों पर भी लागू होता है. मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत मुस्लिम महिलाओं को संपत्ति में एक तिहाई हिस्सा मिलता है, जबकि पुरुषों को दो तिहाई हिस्सा मिलता है. यह कुछ राज्यों को छोड़कर, कृषि भूमि पर लागू नहीं है. भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 के अनुसार, ईसाई विधवाओं को संपत्ति का एक तिहाई हिस्सा मिलेगा, जबकि शेष दो-तिहाई को मृतक के बच्चों के बीच समान रूप से विभाजित किया जाएगा. कानून होने के बाद भी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की वजह से महिलाओं को भूमि में अधिकार नहीं दिया जाता है.
महिला किसानों की स्थिति को सुदृढ़ करने के लिए बिहार में एकता परिषद् नाम की संस्था कार्य करती है. इस संस्था की संयोजक मंजू जी डेमोक्रेटिक चरखा से बात करते हुए बताती हैं-
महिलाओं को भूमि नहीं देने या आर्थिक बल नहीं देने के पीछे सदियों से चल रही पितृसत्ता तो है ही लेकिन साथ ही सरकार खुद भी नहीं चाहती है कि महिलाओं को आर्थिक बल मिले. अगर महिलाओं के पास भूमि का अधिकार होगा तो फिर उनकी राजनैतिक शक्ति भी बढ़ेगी. इसी लिए जब एमएस स्वामीनाथन का बिल आता है तो उसे रिजेक्ट कर दिया जाता है. उस रिपोर्ट में ऐसी महिलायें जो कृषि कार्यों से जुड़ी हुई हैं उनके अधिकारों और सरकारी जवाबदेही पर बात की गयी है. इसलिए उसे रद्द कर दिया गया.
एमएस स्वामीनाथन के द्वारा प्रस्तुत बिल के सेक्शन 2एफ के अनुसार वे महिलाएं जो गांवों में रहती हैं और मुख्य रूप से खेती के काम करती हैं, हालांकि कभी-कभी ये गैर-कृषि काम भी करती हैं, वे सभी महिलाएं किसान हैं. बिल में महिला किसानों को सर्टिफिकेट देने और इन सर्टिफिकेट्स को सबूत के तौर पर मान्यता देने की बात थी.
मंजू जी आगे बताती हैं
इस पूरे चलन को बदलने के लिए हमलोगों ने बिहार में महिला किसानों को संगठित करके पट्टे पर खेती करने के लिए प्रेरित किया. उनके नाम से अब सरकार सब्सिडी भी देती है और इससे कृषि से हुई आय पर उनका पूरा नियंत्रण रहता है.
महिला किसानों की स्थिति को सरकार की नज़र से समझने के लिए डेमोक्रेटिक चरखा की टीम ने जिला कृषि पदाधिकारी से संपर्क करने की कोशिश की है लेकिन अभी तक उनकी ओर से जवाब नहीं दिया गया है.