यूक्रेन-रूस युद्ध का असर मखाना किसान पर, नहीं मिल रही सही कीमत

मखाना और मखाना किसान शब्द का नाम आते ही हमारे दिमाग में सबसे पहले जिस राज्य का नाम आता है वह है- बिहार, मखाने की सर्वाधिक उत्पादन वाला राज्य. बिहार में भी खासकर मिथिलांचल के तक़रीबन सभी जिले जिनमें दरभंगा, मधुबनी, सहरसा, समस्तीपुर, सुपौल, कटिहार, सीतामढ़ी और पूर्णिया प्रमुख हैं.

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मखाना और मखाना किसान शब्द का नाम आते ही हमारे दिमाग में सबसे पहले जिस राज्य का नाम आता है वह है- बिहार, मखाने की सर्वाधिक उत्पादन वाला राज्य. बिहार में भी खासकर मिथिलांचल के तक़रीबन सभी जिले जिनमें दरभंगा, मधुबनी, सहरसा, समस्तीपुर, सुपौल, कटिहार, सीतामढ़ी और पूर्णिया प्रमुख हैं.

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मखाने को लेकर सबसे ख़ास बात यह है कि पूरे विश्व में इसकी खेती सिर्फ़ भारत में और भारत में भी सबसे ज़्यादा बिहार में ही हो होती है.  बिहार के अलावा पूर्वी भारत के कुछ हिस्सों में इसकी खेती की जाती है. इसके अलावा इसका उत्पादन मध्यप्रदेश, राजस्थान, जम्मू-कश्मीर, त्रिपुरा और मणिपुर में भी किया जाता है.

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बिहार के मखाने को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी एक पहचान मिल चुकी है. इसे बहुत प्रयासों के बाद जीआई टैग यानी भौगोलिक संकेतक टैग दिया गया है. सरकार लगातार मखाने को एक अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाने की तरफ़ पूरी तरह प्रयासरत है.

बिहार सरकार ने इसके लिए एक योजना भी शुरू की जिसका नाम बिहार सरकार मखाना विकास योजना है. इस योजना के तहत जो किसान मखाने के उच्च प्रजाति के बीजों का प्रयोग करके मखानों की खेती करेंगे उन्हें सरकार की ओर से 75 फ़ीसदी तक सब्सिडी का लाभ मिल सकेगा. जानकारी के मुताबिक इन प्रजाति के बीजों की खेती करने पर तक़रीबन 97 हजार प्रति हेक्टेयर की लागत आती है जिस पर सरकार की ओर से 72,750 प्रति हेक्टेयर की सब्सिडी तक प्राप्त की जा सकती है.

यह तो बात हुई मखाने की खेती करने पर सरकार के द्वारा दिया जाने वाला लाभ की. इसके अतिरिक्त सरकार मखाना प्रसंस्करण उद्योग लगाने पर भी सब्सिडी दे रही है. पिछले वर्ष सरकार द्वारा जारी एडवाइजरी के मुताबिक व्यक्तिगत निवेशकों के लिए 15% की सब्सिडी तो वहीं किसी किसान उत्पादक संगठन के लिए 25% तक सब्सिडी दी जाएगी.

बिहार सरकार अलावा केंद्र सरकार ने भी बीज अधिनियम के अंतर्गत सबौर मखाना के बीज को कृषि में इस्तेमाल करने के प्रयोजन के लिए राजपत्र में अधिसूचना जारी की है.

इसके अलावा बिहार सरकार राज्य बागवानी मिशन के तहत ही मखाना विकास योजना को अररिया, कटिहार, किशनगंज, दरभंगा, पूर्णिया, मधेपुरा, मधुबनी, सहरसा और सुपौल जैसे जिलों में संचालित करने की योजना बना रही है|

वहीं मखाने के खेत में मज़दूरी करने वाले मज़दूरों का कहना है कि

"किसान को ही फ़सल का दाम नहीं मिलता है तो वो हमे कहां से देंगें.एक दिन में हमे मात्र 300 रूपए मिलता है. इतने में 10 परिवार का गुज़ारा करना बहुत मुश्किल है. लेकिन हमारी भी मजबूरी है पेट पालने के लिए इतने कम पैसे में भी हम काम करने को तैयार हैं"

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सरकारी योजना के बावजूद किसानों को नहीं मिल रहा सही भाव

मखाने के उत्पादन के लिए बिहार सरकार और केंद्र सरकार की योजनाएं तो हैं फिर भी किसान सही भाव नहीं मिलने के कारण निराश हैं. दरअसल निराशा की कई वजहें हैं जिसमें पहला है रूस-यूक्रेन युद्ध. इसके वजह से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मखाने की बिक्री पर काफ़ी बुरा असर पड़ा है. आपको बता दें कि अभी के बाज़ार में मखाने का भाव 300 से 350 रुपए किलो है.

लेकिन युद्ध की वजह से इसमें 5000 प्रति क्विंटल की दर से अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में घाटा हो रहा है जिससे किसानों को काफ़ी घाटा झेलना पड़ रहा है, ख़ासकर वैसे किसान जो केवल इसी खेती पर निर्भर हैं.

वर्तमान में भी बाज़ार ऊपर उठने की बजाए नीचे गिरता ही दिखाई दे रहा है. किसानों की सबसे बड़ी समस्या है कि उनके पिछले वर्ष का मखाना भी अब तक यूं ही पड़ा है. इसके निर्यात में भी काफ़ी समस्या आ रही है. यदि आने वाले निकट भविष्य में बाज़ार ऊपर नहीं होता तो ऐसे में मखाना किसानों की रोज़ी-रोटी का संकट पैदा हो जाएगा. किसानों की सबसे बड़ी समस्या है कि उन्हें अपनी फ़सल पर किए गए निवेश का रिटर्न नहीं मिल पा रहा है जिस वजह से मखानों की कीमत लगातार गिरती जा रही है.

इसके अलावा एक समस्या यह भी है कि मखाने की खेती में तो बढ़ोतरी हुई है लेकिन कीमतों में नहीं. मखानों की कीमत लगातार गिरती जा रही है. इस गिरावट की स्थिति को लेकर किसान बेहद चिंतित है. दरअसल मखाना एक ऊंची कीमत पर बिकने वाली फ़सल है और यदि इसका सही मूल्य किसानों को समय के साथ ना मिले तो ऐसे में उन्हें भारी नुकसान झेलना पड़ सकता है.

एग्रीकल्चर एंड ट्रस्टेड फूड प्रोडक्ट्स एक्सपोर्ट डेवलपमेंट अथॉरिटी की मानें तो भारत में कुल 15000 हेक्टेयर में मखानों की खेती की जाती है. लगभग 1,20,000 मेट्रिक टन मखाना का बीज पैदा होता है जो प्रसंस्करण के बाद लगभग 40,000 मीट्रिक टन मखानों का उत्पादन करता है.

हालांकि कुछ विशेषज्ञ कीमतों की गिरावट के लिए ट्रेडर्स लॉबी को ज़िम्मेदार ठहराते हैं. उनका कहना है कि मखानों की कीमतों में गिरावट ट्रेडिंग लॉबी के कारण हो सकता है.

किसानों की एक और बड़ी समस्या है मखानों के प्रोसेसिंग की. दरअसल मखानों की खेती के बाद उसके प्रोसेसिंग पर भी खर्चा होता है. किसानों की शिकायत है कि उन्हें लगभग 100 किलोमीटर दूर प्रोसेसिंग यूनिट के पास जाना पड़ता है जिससे किसानों का ट्रांसपोर्टेशन खर्च काफ़ी बढ़ जाता है. इसीलिए प्रोसेसिंग यूनिट की संख्या बढ़ाने की आवश्यकता है.

कटिहार जिला के बड़ारी प्रखंड के मखाना किसान मखाने की खेती में मुनाफ़ा नहीं होने से परेशान है. लीज़ (किराए पर) पर मखाने की खेती कर रहे किसान बताते हैं

"हम बड़े किसानों से खेत लीज़ पर लेते हैं. 25 से 30 हजार रूपए बीघा खेत मिलता है. इस साल मैं पांच बीघा ज़मीन पर मखाना की खेती कर रहा हूं. पुरे खेती में 50 से 60 हजार का खर्च आया है.एक बीघा में साढ़े तीन से चार क्विंटल मखाना निकलता है. लेकिन इस साल  केवल 40 हजार के आसपास मखाना बिकने का अनुमान है. इस साल बहुत घाटा होने वाला है"

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मखाना क्यों है इतना महत्वपूर्ण और आख़िर कैसे की जाती है इसकी खेती:

भारत में मखाना के महत्वपूर्ण होने की सबसे बड़ी वजह तो यही है कि विश्व का 90% मखाना उत्पादन भारत में ही होता है और भारत में भी सबसे ज़्यादा बिहार में. अगर सेहत की दृष्टि से भी देखा जाए तो मखाना एक पोस्टिक कच्चा फल है जिसमें मैग्नीशियम, पोटेशियम, फाइबर, विटामिन, आयरन और जिंक आदि भरपूर मात्रा में होता है. इसका सेवन करने से किडनी और दिल से संबंधित बीमारियां नहीं होती हैं.

मखाने की खेती बेहद मुश्किल और जटिल है. मखाने के उत्पादन के लिए एक ख़ास तरह के जलवायु और मिट्टी की आवश्यकता होती है जो इसकी खेती को आसान बनाती है. बिहार जलवायु की दृष्टि से मखाने के उत्पादन के लिए बेहद उपयुक्त है. इसकी खेती 2 तरीके से की जा सकती है. एक तो किसी जलाशय या तालाब में और दूसरा निचली भूमि जिसमें धान जैसी फसलों की खेती होती है. इसके उत्पादन में दोमट मिट्टी बाकी मिट्टियों से ज़्यादा उपयुक्त मानी जाती है.

जिस तालाब या पोखर में मखाने का उत्पादन किया जाना है उसे सबसे पहले अच्छी तरह से साफ़ करने के बाद उसमें बीज का छिड़काव किया जाता है.

इसकी खेती का सबसे उचित समय दिसंबर महीना माना जाता है. जिस समय आप इसके बीजों का खेतों में छिड़काव कर सकते हैं. फिर उसी पोखर और तालाब या निचली भूमि पर 35 से 40 दिनों के बाद बीज उगता नजर आता है और मार्च आते-आते मखाना का पौधा तैयार हो जाता है. इसी उत्पादन के लिए मखाने की सबसे उन्नत और बेस्ट वैरायटी का चुनाव करना बेहद आवश्यक है. आमतौर पर सबौर-1 किस्म की के मखाने को बेहतर वैरायटी के तौर पर देखा जाता है. इसकी खेती ज़्यादा फायदेमंद साबित होती है.

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मखाना किसान सरकार से मखाने का दाम बढाने की मांग कर रहे हैं. किसानों का कहना है

"जब मखाना का दाम बढ़ेगा तभी तो हमे व्यापारी से लावा का दाम मिलेगा. अभी व्यापारी आठ हजार रूपए क्विंटल मखाना खरीदने के लिए आ रहे हैं. इतने में ही हमें खेत के मालिक, बीज और मज़दूरी सबका भुगतान करना है"

वहीं कटिहार जिले के कृषि पदाधिकारी अवधेश कुमार का कहना है की

"समान्य दिनों में मखाना किसानों को हुए नुकसान की भरपाई के लिए सरकार की कोई योजना नहीं है. लेकिन अगर इलाका बाढ़ ग्रस्त घोषित हो जाता है तब उन्हें सरकार के द्वारा मुआवज़ा दिया जाता है. अभी सरकार के द्वारा मखाना का रेट नहीं तय किया जाता है"

वर्तमान समय को देखते हुए एक बात तो स्पष्ट है की मखाना ना केवल व्यापार की दृष्टि से बल्कि पहचान की दृष्टि से भी बिहार के लिए बेहद महत्वपूर्ण है. सरकार के द्वारा हर संभव प्रयास किसानों के लिए किया जाना चाहिए जिससे उनके मखाना उत्पादन और उसके निवेश का रिटर्न दोनों में वृद्धि होती रहे. सरकार की योजनाएं ऐसी हो जिनसे किसानों को मखाना उत्पादन को लेकर प्रोत्साहन मिले. इससे ना केवल व्यापार में वृद्धि होगी बल्कि बिहार के कई मखाना किसानों की आय भी पहले से दुगनी हो जाएगी.