जनवरी की ठंडी सुबह. चारों तरफ कोहरे की चादर और धुंध फैली हुई है. इस ठंड और धुंध में भी राजधानी पटना से लगभग 20 किलोमीटर दूर नेउरा गांव में युवाओं में चहलकदमी है. ये चहलकदमी है क्रिकेट खेलने की. लेकिन नेउरा गांव के ये युवा क्रिकेट मनोरंजन के लिए नहीं खेल रहे हैं. बल्कि इन्होने क्रिकेट को एक माध्यम चुना है, देश से सांप्रदायिकता, धार्मिक उन्माद और जातिगत भेदभाव को खत्म करने का. और इस क्रिकेट टूर्नामेंट का नाम दिया गया- सद्भावना कप. हर साल समर चैरिटेबल ट्रस्ट इस टूर्नामेंट का आयोजन करता है.
एक अनोखा क्रिकेट टूर्नामेंट
आज से तकरीबन 5 साल पहले नुरुल हक ने नेउरा गांव में सद्भावना कप की शुरुआत की. लेकिन कोरोना के दौरान उनकी अकास्मिक मृत्यु हो गयी. उसके बाद नेउरा का लोगों ने इस कप को नुरुल हक की स्मृति में हर साल खेलना शुरू किया.
अभी हाल के दिनों में कई लोगों ने अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट टूर्नामेंट में जातिगत भेदभाव की बात कही थी. ये विवाद सूर्याकुमार यादव के प्रेस कांफ्रेंस में सिर्फ 2 पत्रकारों के पहुंचने के बाद शुरू हुआ था.
हमारे समाज में हर कदम पर जातिगत भेदभाव और धार्मिक नफरत फैल चुकी है. इसी को खत्म करने के लिए सद्भावना कप में पहला नियम खिलाड़ियों के चयन पर लिया गया था. सद्भावना कप में किसी भी टीम को खेलने के लिए हर समुदाय से खिलाड़ी होना अनिवार्य है. हर टीम में दलित, अल्पसंख्यक, सवर्ण, पिछड़ा-अतिपिछड़ा और आदिवासी समुदाय के खिलाड़ियों का होना जरूरी है. बिना हर समुदाय के प्रतिनिधित्व के टीम को टूर्नामेंट में नहीं चुना जाएगा.
हर साल इस टूर्नामेंट का आयोजन करने में प्रमुख भूमिका निभाने वाले उदय प्रताप डेमोक्रेटिक चरखा से बात करते हुए बताते हैं, "देश में हर दिन नफरत बढ़ रही है. हमने सोचा कि अगर इस नफरत को खत्म करना है तो सभी लोगों को एक दूसरे की संस्कृति को जानना और समझना बहुत जरूरी है. जब हम एक दूसरे को जानेंगे तब हम आपस में भाईचारे से रह सकते हैं. इस वजह से हमने ये टूर्नामेंट खेलने शुरू किया. ताकि सब एक दूसरे समुदाय के साथ खेलें और नफरत खत्म हो सके. अगर सभी लोग इस देश में मिलकर क्रिकेट खेल सकते हैं तो साथ मिलकर रह भी सकते हैं."
एक दूसरे के लिए हमारे दिल में सिर्फ प्यार है- लवकुश कुमार
लवकुश कुमार साल 2024 के विजेता टीम (पैनाठी 11) के कप्तान हैं. जब डेमोक्रेटिक चरखा की टीम उनसे एक टूर्नामेंट में खेलने का मकसद पूछती है तो वो बताते हैं, "ईमानदारी से बताएं तो शुरुआत में हमारा मकसद सिर्फ क्रिकेट खेलना था. लेकिन जब हम इस टूर्नामेंट को खेलने के लिए मैदान पहुंचें तो देखें कि जगह-जगह कई पोस्टर लगे हुए हैं. उसमें से एक लाइन थी कि अगर इतिहास पढ़कर नफरत करना सीखेंगे तो भविष्य बर्बाद कर देंगे. अभी तो सब जगह इतिहास में नफरत को ही फैला रहे हैं. लेकिन यहां आकर हमने नफरत नहीं सबसे प्यार करना सीखा है."
इस टूर्नामेंट में 8 टीम ने हिस्सा लिया था. इसका खर्चा जनता के द्वारा चंदा करके इकठ्ठा किया गया था. इस वजह से इसमें ग्रामीणों की सहभागिता थी. ग्रामीण इस टूर्नामेंट में अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार जुड़कर काम भी कर रहे थें.
क्रिकेट के जरिए समाज में बदलाव की नींव पड़ी
इस टूर्नामेंट के बाद युवाओं में और नेउरा सहित आस-पास के इलाकों में एक सकारात्मक प्रभाव देखने को मिला है. इस बदलाव के बारे में बात करते हुए समर चैरिटेबल ट्रस्ट के एग्जीक्यूटिव हेड जहीब अजमल बताते हैं, "बदलाव बहुत बड़ा देखने को मिला. पहले हम लोगों ने देखा कि कई टीम ने इस बात से इंकार किया कि हमारे पास मुस्लिम खिलाड़ी नहीं है या दलित समुदाय से कोई नहीं है. तो फिर या तो उन्हें डिसक्वालीफाई किया गया या फिर उनके लिए खिलाड़ी का इन्तेजाम किया गया. उसके बाद ये देखा गया कि जो लोग दूसरे समुदाय के लोगों को ठीक से जानते तक नहीं थे अब उनमें क्रिकेट के जरिए दोस्ती हो गयी है. इस वजह से अब उनके मन में दूसरे समुदाय के लोगों के लिए नफरत भी नहीं है."
टीम के चयन निर्णय के बारे में बात करते हुए उदय प्रताप बताते हैं, "हर साल हमारे पास 13-14 टीम के आवेदन आते हैं. लेकिन उनमें से 2-3 टीम में हमेशा प्रतिनिधित्व की कमी देखने को मिलती है. तो हम लोग उनको कहते हैं कि या तो आप बाकी समुदाय से खिलाड़ी लेकर आयें या फिर आप टूर्नामेंट में भाग ना लें. क्योंकि हमारा उद्देश्य लीग मैच करवाना नहीं बल्कि सभी जाति-धर्म के लोगों को साथ खेलाना है."
खेल के हर स्तर पर अल्पसंख्यक-दलित-आदिवासी प्रतिनिधिव की कमी
समाज में हर क्षेत्र में हाशिया पर मौजूद समुदाय के प्रतिनिधित्व में कमी देखने को मिली है. देश के पहले दलित क्रिकेट खिलाड़ी बालू पलवंकर को कभी भी कप्तान नहीं बनाया गया था. क्योंकि वो चमार (दलित) समुदाय से थें. आउटलुक की एक रिपोर्ट के अनुसार अब तक भारतीय क्रिकेट टीम में सिर्फ 6-7 दलित खिलाड़ी ही अपनी जगह बना पायें हैं.
आज की मीडिया जातिगत भेदभाव और धार्मिक उन्माद पर रिपोर्ट नहीं करती है, बल्कि उसे बढ़ावा देने का काम करती है. लेकिन ऐसे में सद्भावना कप देश में सांप्रदायिक सौहाद्र की एक उम्मीद की बनती नजर आती है.