पूर्णिया में बढ़ा उत्पादन बाकी इलाके में किसान क्यों छोड़ रहे मक्का की खेती?

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Rahul Gaurav
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पूर्णिया में बढ़ा उत्पादन बाकी इलाके में किसान क्यों छोड़ रहे मक्का की खेती?

अन्य फसलों की तुलना मे मक्का कम समय में पकने और अधिक पैदावार देने वाली फसल है। इसलिए बिहार के सीमांचल और कोसी इलाके के किसान धान और गेहूं की खेती छोड़कर मक्के की खेती शुरू कर दिए। बिहार के पूर्णिया कटिहार और अररिया जिला में मक्का किसानों के लिए वरदान भी साबित हुई। जिसमें मिनी दार्जिलिंग कहें जाने वाली बिहार का पूर्णिया जिला मक्का में विश्व का सबसे अधिक उत्पादकता वाला क्षेत्र अमेरिका के मिडवेस्ट हार्टलैंड को पीछे छोड़ दिया है।

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वहीं दूसरी तरफ पूरे बिहार के आंकड़े को देखें तो दिनों-दिन मक्का का उत्पादन घट रहा हैं। पूर्णिया का गुलाबबाग मंडी से कई देशों में मक्के की सप्लाई होती है। इसके बावजूद भी मक्के के उत्पाद से बने व्यापारी की स्थिति के तुलना में बिहार के सीमांचल इलाके के किसानों की स्थिति इतनी अच्छी क्यों नहीं है? वहीं कोसी और सीमांचल के कई इलाकों में लोग मक्के की खेती क्यों छोड़ रहे हैं?

मेन स्ट्रीम मीडिया की मक्का पर खबर झूठी है

वरिष्ठ पत्रकार रह चुके पूर्णिया के गिरीन्द्र नाथ झा अब पूर्णिया में अपने गाँव 'चनका' में नए ढंग-ढर्रे से खेती-किसानी करने के साथ अपने खेतों में बैठकर साहित्य लिखते हैं। गिरीन्द्र नाथ झा लगभग 4-5 बीघा में मकई की खेती करते हैं। वो बताते हैं कि,

अखबार में जो सीमांचल और कोसी इलाके के मक्का की खबर पर स्टोरी बनी हुई है। वह लोगों को मिसगाइड कर रही है। जैसे अक्सर खबर बनती हैं कि मक्का से पॉककार्न, स्वीटकॉर्न, कॉर्नफ्लेक्स, चिप्स क्या कुछ नहीं बनता है। इसके बावजूद सीमांचल के किसानों की स्थिति इतनी खराब क्यों है। लेकिन सच यह हैं कि आंध्र प्रदेश में जो मक्क उपज रहा हैं उससे पॉककार्न, स्वीटकॉर्न, कॉर्नफ्लेक्स और चिप्स बनता हैं। सीमांचल और कोसी इलाके में उपज रहे मक्का से सिर्फ पशुओं और पक्षियों का चारा बनता है।

मक्का की गुणवत्ता पर अनाज व्यवसायी संघ के अध्यक्ष पप्पू यादव बताते हैं कि,"सिर्फ पशु चारा की वजह से पूर्णिया मक्का की उत्पादन के लिए कमर्शियल क्रॉप बन गया है। वहीं जलवायु परिवर्तन और रसायन खाद का घनघोर उपयोगिता की वजह से मक्का की गुणवत्ता घटी है। जबकि एक्सपोर्टर को अपना प्रोडक्ट बनाने के लिए अच्छी क्वालिटी वाला मक्का चाहिए। इसलिए उत्पादन से ज्यादा बड़ा सवाल गुणवत्ता का है। अगर गुणवत्ता नहीं सुधरी तो मक्के का बाज़ार ख़त्म हो जाएगा।"

मक्का आधारित उद्योग संभव नहीं है

बिहार सरकार के द्वारा लगभग 20-25 साल पहले से ही पूर्णिया में मक्का आधारित उद्योग लगाने का वायदा किया गया था जबकि इथेनॉल कंपनी को छोड़कर कागज पर चल रही इस वायदा को अभी तक धरातल पर नहीं लाया गया है।

मधुबनी मिथिला रेडियो के संस्थापक और कृषि विशेषज्ञ राज झा बताते हैं कि,

कंपनी वहां लगाना चाहिए जहां प्रोडक्ट का उपभोग होता है ना कि उत्पादन। बिहार में उत्पादित मक्का 50 से 60% मक्का तमिलनाडु, कोलकाता, उत्तराखंड, दिल्ली, राजस्थान में जाता हैं। वहीं 20 से 30% विदेशों में यूक्रेन, वियतनाम, म्यांमार, भूटान, नेपाल, बांग्लादेश तक जाता हैं। इसलिए वहां चारा बनाकर सालों भर बेचा जाता है। सोचिए यहां से सालों भर चारा बनाकर बेचना क्या संभव हैं? परिवहन की वजह से चारा का दाम कितना बढ़ जाएगा या चारा के दाम को संतुलित करने के लिए किसान से बहुत ही कम दाम पर उद्योग मक्का लेगा।

वहीं पूसा कृषि विश्वविद्यालय की छात्रा तनु प्रिया बताती हैं कि, "किसान संघ के मांग पर सरकार ने जरूर मक्का आधारित उद्योग बनाने का वायदा किया है। लेकिन वह भी जानते हैं कि उत्पात का खपत इस इलाके में नहीं हैं और इस मक्के से बेस्ट पॉककार्न और स्वीटकॉर्न प्रोडक्ट नहीं बन सकता है। लेकिन बिहार पशुओं के मामले में समृद्ध है। इसलिए सिर्फ बिहार और बगल वाले राज्यों में पशु चारा को देखते हुए कुछ उद्योग खोला जा सकता है।

कोसी इलाके के किसान क्यों छोड़ रहे मक्का उत्पादन

2002-2004 इसवी तक हमारे पंचायत में लगभग 40 से 45 बीघा (एक बीघा में 20 कट्ठा जमीन) जमीन में मक्का का उत्पादन होता था। लेकिन वर्तमान दौर में चार से पांच बीघा भी मुश्किल से होता हैं। मुख्य वजह हैं सुरक्षा। कोसी इलाके में मक्का और आम की खेती को खतरे का खेती कहा जाता है। इसलिए इसकी सुरक्षा के लिए खेत और कलम में बाकायदा मचान बना कर रात में जाग कर इसकी सुरक्षा करनी पड़ती हैं। क्योंकि चोरी का बहुत खतरा रहता है। दूसरा वजह है मंहगा फसल।

"इस फसल का वसूल है जितना खाद और यूरिया डाला जाएगा उतना उपज होगा। कोसी इलाके में कभी बाढ तो कभी सुखार बनकर मौसम अक्सर धोखा दे देता है। जिस वजह से मक्का जैसी मंहगी फसल बर्बाद होने के बाद किसान भी पूरी तरह बर्बाद हो जाता था। तीसरा और मुख्य वजह है नीलगाय। नीलगाय धान और गेहूं के फसल को सिर्फ पैरों से बर्बाद करती है। लेकिन मक्का को पूरा खा जाती है। कोसी इलाके में नीलगाय के आतंक की वजह से सब्जी की खेती और बचा खुचा मक्का का खेती भी खत्म होने के कगार पर हैं।" बिहार के सुपौल जिला के बभनगामा पंचायत के बिन्दु नाथ झा (47 वर्षीय) बताते है।

केंद्रीय कृषि मंत्रालय के मुताबिक इस साल अभी मक्का की खेती पिछले वर्ष के मुकाबले पिछड़ी हुई है। पिछले साल के मुताबिक इस साल बुवाई में 23.53 फीसदी की कमी है। यानी 2022 में 8 जुलाई तक 31.84 लाख हेक्टेयर में मक्का की बुवाई हुई है। जबकि इसी 2021 में इसी दौरान 41.63 लाख हेक्टेयर में मक्का बोया जा चुका था।

जलवायु परिवर्तन कैसे मक्के की खेती को तबाह कर रहा है

मौसम विभाग के अनुसार 17 अगस्त 2022  तक राज्य में केवल 389.8 मिलीमीटर बारिश दर्ज की जो कि सामान्य से बहुत कम है। कम से कम 657.6 मिलीमीटर बारिश होनी चाहिए। वहीं पिछले साल मानसून के दौरान चार बार बाढ़ आई। बिहार के 31 ज़िलों के कुल 294 प्रखंड इससे प्रभावित हुए थें। भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा जारी 'क्लाइमेट वल्नेरिबिलिटी एसेसमेंट फ़ॉर एडॉप्टेशन प्लानिंग इन इंडिया' रिपोर्ट में बिहार को 'हाई वल्नेरिबिलिटी' श्रेणी में रखा गया है। इस श्रेणी के मुताबिक 7 जिलों में सीमांचल का पूर्णिया, कटिहार और किशनगंज जिला भी शामिल हैं।

झारखंड के गोड्डा जिला में 35 साल कृषि विभाग में सेवा दे चुके रिटायर्ड अधिकारी अरुण कुमार झा बताते हैं कि, " जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा असर उत्तरी बिहार पर पड़ रहा है। मक्के की खेती में पानी और धूप दोनों की प्रचुर मात्रा होनी चाहिए। जबकि पिछले कुछ सालों में मौसम अनियमित की वजह से मक्के के बुवाई और कटाई में देरी हो रही है। मतलब जलवायु परिवर्तन का पूरा असर खेती पर पड़ रहा है‌।"

"पूर्णिया जिला में अभी भी मक्का 100 से 120 क्विंटल पैदा होता हैं। लेकिन दिनों-दिन मक्का का उत्पादन घट रहा है। साल 2019-20 में बिहार में उत्पादन 35 लाख मैट्रिक टन था जो 2020-21 में घटकर 30 लाख मैट्रिक टन हो गया।"  आगे अरुण कुमार झा बताते है।