बच्चों को किताब पहुंचाना हो रहा कठिन, हमेशा बदल रही योजनायें

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बच्चों को किताब पहुंचाना हो रहा कठिन, हमेशा बदल रही योजनायें

पुस्तक हमारे जीवन के आधार होते हैं. बच्चे अपनी प्रारंभिक शिक्षा पुस्तकों के माध्यम से ही लेते हैं. प्रारंभिक स्तर पर अगर बच्चों को शिक्षक और पुस्तक का सही मार्गदर्शन मिले तो उनका भविष्य उज्जवल बन सकता है. लेकिन हमारे देश में यह एक समस्या रही है की प्रत्येक बच्चों तक किताबें पहुंच सके.  

यूनेस्को, जो कि सारे विश्व की शिक्षा पर नज़र रखता है, का कहना है कि पुस्तकों का समय पर प्रकाशन और उसकी उपलब्धता सुनिश्चित कराना अपने आप में बहुत बड़ी चुनौती होती है. इसलिए कई बार सत्र प्रारंभ हो जाने के बाद भी छात्रों को पाठ्य पुस्तकें नहीं मिल पाती हैं. बच्चों को पुरानी किताब या फिर साथी छात्र के किताबों के सहारे कक्षा में पढ़ाई करने को मजबूर होना पड़ता है.

किताबों की कमी की समस्या बिहार जैसे राज्य में और विकट हो जाती है. हर बच्चे के हाथ में किताब हो, इसी को सुनिश्चित करने के लिए बिहार सरकार ने साल 2018 से पहले प्रारंभिक स्कूलों में कक्षा 1 से लेकर 8 तक के बच्चों को स्कूल में ही किताबें उपलब्ध करने का निर्णय लिया था. लेकिन इस व्यवस्था में बच्चों को सत्र प्रारंभ होने के महीनों बाद तक किताबे नहीं मिल पाती थीं.

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इस समस्या को दूर करने के उद्देश्य से साल 2018 में बिहार सरकार ने प्रारंभिक स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों को किताब देने के बजाय राशि देने का निर्णय लिया था. तब शिक्षा विभाग के पूर्व मुख्य अपर सचिव आरके महाजन ने कहा था

बिहार पहला ऐसा राज्य है, जहां बच्चों को किताब के बदले राशि दी जा रही है. ताकि, वो समय पर किताब खरीद सकें.


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किताब खरीदने के लिए राशि बच्चों या उनके अभिभावक के खाते में डीबीटी (DBT) के माध्यम से भेजा जाता है. लेकिन इस व्यवस्था के बाद भी बच्चों तक किताब की राशि समय पर नहीं पहुंच पाती है.

इस वर्ष भी नए शैक्षिक सत्र 2022-23 में एक अप्रैल से आरंभ हो चुका था. बच्चे नए सत्र में अपनी-अपनी कक्षाओं में जाना प्रारंभ भी कर दिए, लेकिन ना तो तब तक उन्हें किताब खरीदने के पैसे सरकार की ओर से दिए गए और ना ही जिलों में किताबें ही पहुंची.

सत्र 2022-23 में प्रारंभिक कक्षा में डेढ़ करोड़ से अधिक बच्चे नामांकित हैं, जिन्हें पुस्तकों के लिए महीनों इंतज़ार करना पड़ा है. बच्चों को किताब ख़रीदने के लिए इस वर्ष करीब 520 करोड़ रुपए बिहार शिक्षा परियोजना के तहत स्वीकृति दी गयीहै.

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विभाग के डीबीटी प्रभारी सह माध्यमिक निदेशक मनोज कुमार ने बताया था कि बिहार शिक्षा परियोजना परिषद् से राशि प्राप्त हो गयी है इसे आरटीजीएस (RTGS) के माध्यम से बच्चों के खाते में जल्द भेज दिया जाएगा. राशि बच्चों के खाते में मई के पहले हफ्ते में भेजने की तैयारी थी.

लेकिन यहां प्रश्न यह उठता है की आखिर शिक्षा विभाग इसके लिए पहले से सजग क्यों नही रहता? जब बच्चों को किताब के लिए राशि दिए जाने की व्यवस्था है तो, इसके लिए तैयारी सत्र प्रारंभ होने के बाद क्यों की जाती है.

बच्चों के अधिकारों के लिए काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता प्रभाकर बताते हैं “किताब के बदले राशि देने योजना लाते हुए सरकार ने यह तर्क दिया था की  इससे समय पर सभी बच्चों को किताब मिल जाएगी. लेकिन योजना के प्रारंभ से ही इसमें कमियां पाई गयी हैं. जैसे समय पर राशि का आवंटन न होंना, उनका समय पर बच्चों के खातों में न पहुंचना, बाजार में किताब का उपलब्ध न होना आदि. सरकार राशि आवं

योजना के प्रारंभ वर्ष 2018-19 में 264.29  करोड़, साल 2019-20 में 500.36 करोड़ और साल 2020-21 में 378.64 करोड़ रूपए बच्चों के खाते में भेजे गए. वहीं 2021-22 में 402 करोड़ 71 लाख 15200 रुपए बच्चों को डीबीटी किए गए हैं.

इस दौरान मुद्रकों की क्रमश: 70.13 करोड़, 94.20 करोड़ और 52.69 करोड़ रुपए की ही किताबें इन तीन वर्षों में बिकीं. लेकिन राशि आवंटन के बाद भी किताबों की बिक्री उस अनुपात में नही हो रही है. शिक्षा विभाग के पिछले तीन-चार साल के आंकड़े तो यही बता रहे हैं. किताब के बदले पैसे की व्यवस्था लागू होने के बाद पहले साल 13 फीसदी, दूसरे साल 19 फीसदी, तो तीसरे साल मात्र 11 फीसदी किताबों की ही बिक्री हुई है.

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बिहटा स्थित मिडिल स्कूल मूसेपुर की शिक्षिका हिना बेगम शाहीन ने बताया कि

हमारे स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों की किताब का पैसा अगस्त में आ गया है. अगले सेशन से किताब मिलेगी या किताब का पैसा आएगा इसकी जानकारी हमें नहीं है.

वहीं सिवान के आर.के.एम.एस. कन्या बिंदुसार बुज़ुर्ग स्कूल की शिक्षिका प्रियंका का कहना है कि

हमारे स्कूल के बच्चों को अभी तक किताब का पैसा नहीं मिला है.

किताब का पैसा नहीं मिलने के बाद बच्चे पढ़ाई कैसे कर रहे हैं, इस बारे में प्रियंका का कहना है कि

हम बच्चों को किताबें ख़रीदने को कहते हैं तो बच्चे कहते हैं कि पैसा ही नहीं आया है तो हम कैसे ख़रीदें? लेकिन यह दिक्कत 40 में से केवल 10 बच्चों की ही होती है. बाकि बच्चे खुद के पैसों से किताबें खरीद लिए हैं. वहीं कुछ बच्चों को हमने स्कूल में रखी पुरानी किताबें भी दीं हैं.

अगले सेशन से पैसों के बदले किताबे दिए जाने के संबंध में हिना और प्रियंका दोनों को ही अभी कुछ जानकारी नहीं है. वहीं प्रियंका का कहना है कि

इस  सेशन का पैसा नवंबर के अंत तक मिलने की संभावना है. वहीं अगले सेशन से किताब दिया जाएगा ऐसा सुने हैं लेकिन अभी कुछ पक्का पता नहीं है.

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आवंटन के अनुपात में किताबों की कम बिक्री का कारण सरकार अभिभावक द्वारा अपने बच्चों के खाते में आई राशि का उपयोग किताब नहीं ख़रीदकर उसे अन्य कार्यों में लगाना मानती है. शिक्षा विभाग के आंकड़ों के अनुसार साल 2018 में 13%, साल 2019 में 19%, साल 2020 में 11% किताबों की बिक्री हुई है. साल 2018-19 में 264.29  करोड़, साल 2019-20 में 500.36 करोड़ और साल 2020-21 में 378.64 करोड़ रूपए बच्चों के खाते में किताब के लिए भेजे गए. लेकिन किताबों की बिक्री नहीं हुई. लेकिन प्रभाकर इसे पूरी तरह से सही नहीं मानते हैं. उनका कहना है कि

सरकार बच्चों की संख्या के अनुपात में किताबों का मुद्रण नहीं करा पाती है. जिसके कारण बाज़ार में किताबें उपलब्ध ही नहीं रहती है. इसके कारण भी बच्चे किताबें नहीं ख़रीद पाते हैं. बाज़ार में किताबें नहीं मिलने के कारण बस्तियों में रहने वाले कई बच्चों को हमने पुरानी किताबें लाकर दी हैं, जिससे उनकी पढ़ाई जारी रह सके.

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किताब की दर में किया गया था संशोधन

वहीं साल 2019 में किताब की दर में संशोधन किया गया था. साथ ही किताबों के साथ साथ कॉपी और पेंसिल के लिए भी राशि देने का निर्णय लिया गया था. जहां कक्षा तीन की पुस्तक की कीमत सबसे कम 130 और कक्षा 8 की सभी पुस्तक की कीमत 365 रुपए है. पिछले साल कक्षा एक के बच्चे को 120 रुपए दिए गए थे, जबकि 2019 से 250 रुपए दिए गए. पहली कक्षा में तीन पुस्तक की कीमत 160 रुपए है. यानी 90 रुपए की राशि कॉपी व पेंसिल खरीदने के लिए दिए गए. इसी प्रकार अन्य कक्षा में भी किताब की कीमत से अधिक राशि दी गयी थी.

प्रारंभिक स्तर के बच्चों तक किताबों की उलब्धता सुनिश्चित करने के लिए एक बार फिर सरकार राशि के बजाए किताबें देने का विचार कर रही है. आख़िर क्या कारण है कि सरकार अपनी ही लायी योजना को वापस बदलने को मजबूर हो जाती है.

इसका कारण जानने के लिए डेमोक्रेटिक चरखा की टीम ने जिला शिक्षा पदाधिकारी से बात करने की कोशिश की लेकिन उनके द्वारा तीन दिन फ़ोन कॉल करने के बाद भी जवाब नहीं दिया गया.