बिहार में अस्पतालों की संख्या कम, इलाज के अभाव में होती है मौत

जनसंख्या के हिसाब से देखें तो बिहार देश का तीसरा सबसे ज्यादा आबादी वाला राज्य है. इससे जाहिर है, जब आबादी ज्यादा है तो लोगों की स्वास्थ्य संबंधी आवश्यकताएं भी ज्यादा होंगी. ऐसे में क्या बिहार की स्वास्थ्य व्यवस्था आबादी के हिसाब से विकसित या व्यवस्थित है, जिसका जवाब है, नहीं.

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जनसंख्या के हिसाब से देखें तो बिहार देश का तीसरा सबसे ज्यादा आबादी वाला राज्य है. इससे जाहिर है, जब आबादी ज्यादा है तो लोगों की स्वास्थ्य संबंधी आवश्यकताएं भी ज्यादा होंगी. ऐसे में क्या बिहार की स्वास्थ्य व्यवस्था आबादी के हिसाब से विकसित या व्यवस्थित है, जिसका जवाब है, नहीं.

बिहार में स्वास्थ्य व्यवस्था के हालात ऐसे हैं कि, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) इसके लिए अपने रिपोर्ट में टिप्पणी करते है कि यहां के जिला अस्पतालों में कुत्ते और सूअर घूमते हैं.

सरकार स्वास्थ्य सुविधाओं में सुधार के लिए योजनायें बनाती है, करोड़ों का बजट भी पास करती है लेकिन धरातल पर इसका परिणाम नजर नहीं आता है. आज भी सुदूर ग्रामीण इलाकों के ग्रामीण, पटना या अन्य जिलों के सदर अस्पतालों या निजी अस्पतालों में जाने को विवश हैं.

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रामो देवी सीतामढ़ी से पटना अपने पति के टूटे पैर का इलाज कराने आई हैं. रमा देवी के पति का इलाज पटना एनएमसीएच (NMCH) में हो रहा है. उन्हें अस्पताल में भर्ती तो किया गया है,  लेकिन अस्पताल में बेड नहीं होने के कारण उन्हें जमीं पर लगे गद्दे पर भर्ती किया गया.

रामो देवी कहती हैं

“मेरे पति खेत के पगडंडी पर गिर गए थे. पैर घूम गया है. वहां दिखाए तो बस मोच बताया और पट्टी बांध के घर भेज दिया. लेकिन धीरे-धीरे पैर सूजने लगा और दर्द भी बढ़ गया. एक्स-रे कराने पर हड्डी टूटने का पता चला. अच्छा इलाज के लिए पटना लेके चले आए. इलाज तो बढ़िया हो रहा है लेकिन ठंडा में नीचे सोना पड़ रहा है. हम तो किसी तरह सो ले रहे हैं लेकिन इनको बेड मिल जाता तो अच्छा रहता.”

रामो देवी जैसे हजारों मरीज के पास बेहतर इलाज के लिए जिला सदर अस्पतालों या मेडिकल कॉलेज जाने के अलावे कोई विकल्प नहीं बचता है.

2011 की जनसंख्या के अनुसार सीतामढ़ी की कुल आबादी 34 लाख (34,23574) है. लेकिन 2022 तक इसकी अनुमानित जनसंख्या लगभग 42 लाख हो गई है. जिसपर सीतामढ़ी जिले में मात्र 204 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र मौजूद हैं, लेकिन इन स्वास्थ्य केन्द्रों में भी पर्याप्त तौर पर  सुविधाएं मौजूद नहीं है.

यहां के एकमात्र सदर अस्पताल में आंख, कान एवं हड्डी के एक भी डॉक्टर मौजूद नहीं हैं. डेमोक्रेटिक चरखा ने सीतामढ़ी के सिविल सर्जन से इसपर जानकारी, जिसपर उनका कहना है

“सदर अस्पताल में हड्डी और ईएनटी(ENT) के डॉक्टर मौजूद नहीं हैं. कब से मौजूद नहीं है इसकी जानकारी मेरे पास अभी नहीं है.”  

जब जिला के सदर अस्पताल में डॉक्टरों की कमी हैं तब प्रखंड स्तर के अस्पतालों की स्थिति क्या होगी?

यही कारण है कि दुर्घटनावश पैर टूट जाने के कारण रामो देवी को पटना आना परा. रामो देवी  जैसे हजारों मरीज जो ऐसी ही किसी समस्या के कारण सदर अस्पताल से सीधे एसजेएमसीएच मुजफ्फरपुर या पटना पीएमसीएच या एनएमसीएच रेफर कर दिए जाते हैं. वहीं, स्थानीय स्तर पर भी गरीब मरीजों को निजी डॉक्टरों के यहां आर्थिक दबाव झेलना पड़ता है.

जिला अस्पतालों में कुत्ते और सुअरों का बसेरा: कैग

मार्च 2022 में बिहार विधानसभा में जारी रिपोर्ट में कैग बिहार कि स्वास्थ्य व्यवस्था को लेकर कहा कि 2005 और 2021 में कोई अंतर नहीं है. बिहार के जिला अस्पतालों में कुत्ते और सुअरों का बसेरा है. रिपोर्ट में बिहार सरकार के क्रिया कलाप पर भी कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की गई थी.

कैग (CAG) की रिपोर्ट में ये कमेंट किया गया है कि बिहार के सरकारी अस्पतालों में आवारा कुत्ते घूमते हैं. जहानाबाद जिला अस्पताल परिसर में आवारा कुत्ते देखे गए. मधेपुरा जिला अस्पताल में अगस्त 2021 में आवारा सुअरों का झुंड दिखा. मधेपुरा जिला अस्पताल में कूड़ा और खुला नाला पाया गया. जहानाबाद जिला अस्पताल में नाले का पानी, कचरा, मल और  अस्पताल में कचरा बिखरा मिला.

कैग ने अनुशंसा की है कि आवश्यक संख्या में डॉक्टरों, नर्सों, पैरामेडिकल और अन्य सहायक कर्मचारियों की भर्ती सुनिश्चित हो. जिला अस्पतालों में पर्याप्त मानव बल, दवाओं और उपकरणों की उपलब्धता की निगरानी की जाए.

कैग (CAG) की रिपोर्ट में बताया गया है कि 2013 और 2018 के आंकड़ों से पता चला है कि स्वास्थ्य संकेतक के मामले में बिहार की स्थिति राष्ट्रीय औसत के बराबर नहीं है. जांच में यह पाया गया है कि जिला अस्पतालों में बेड की भारी कमी है. इंडियन पब्लिक हेल्थ स्टैंडर्ड की तुलना में बेड की कमी 52 से 92% के बीच थी.

रिपोर्ट में कहा गया कि बिहार शरीफ और पटना जिला अस्पतालों को छोड़ दिया जाए तो 2009 में स्वीकृत बेड में से केवल 24 से 32% ही भरा जा सका है. सरकार ने वर्ष 2009 में इन अस्पतालों में बेड की संख्या को स्वीकृत किया गया था. लेकिन हकीकत यह है कि 10 साल बाद भी प्रदेश में अस्पतालों में वास्तविक बेडों की संख्या को बढ़ाया नहीं जा सका है. साथ ही जिला अस्पतालों में ऑपरेशन थिएटर (OT) की स्थिति भी अच्छी नहीं है.

दिशा निर्देशों के मुताबिक, 10 लाख की आबादी पर एक अस्पताल होना चाहिए और इसका 'बेड ऑकुपेंसी रेट' 80% होना चाहिए. बिहार की आबादी (लगभग 12 करोड़) के अनुसार प्रत्येक जिला अस्पताल में कम से कम 220 बिस्तर होने चाहिए. लेकिन नीति आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार, बिहार में जिला स्तरीय सरकारी अस्पतालों में प्रति एक लाख पर केवल छह बिस्तर है.

प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों की संख्या कम

विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़ 1000 लोगों पर एक डॉक्टर होना चाहिए. केंद्र सरकार की रिपोर्ट ‘नेशनल हेल्थ प्रोफाइल’ 2019 के मुताबिक़ बिहार के सरकारी अस्पतालों में 2,792 एलोपेथिक डॉक्टर हैं. यानी बिहार में 43,788 लोगों पर एक एलोपेथिक डॉक्टर है.

सिर्फ डॉक्टर ही नहीं, नीति आयोग की 2019 की रिपोर्ट के मुताबिक 51 फ़ीसदी हेल्थकेयर वर्कर्स के पद ख़ाली पड़े हैं.

नीति आयोग के 2019  हेल्थ इंडेक्स में बिहार को 21 राज्यों में 20वां स्थान दिया गया.

2019 के नेशनल हेल्थ प्रोफाइल के अनुसार राज्य में प्राइमरी हेल्थ सेंटर की संख्या 1,899 है और बिहार की अनुमानित 12 करोड़ की आबादी के लिए केंद्र के दिशानिर्देशों के अनुसार प्राइमरी हेल्थ सेंटर की संख्या 3500 से ज़्यादा होने चाहिए.

वहीं, सेकेंडरी लेवल की सुविधा है सीएचसी. सीएचसी ब्लॉक लेवल पर होती है जहां विशेषज्ञ डॉक्टर, ओटी, एक्स-रे, लेबर रूम, लैब की सुविधाएं होती हैं. लेकिन कई जिलों में अगर सीएचसी  बन भी गई है तो डॉक्टर, स्टाफ और टेकनिशियन की कमी है.

इसके बाद ज़िला अस्पताल आते हैं जहां कई अस्पतालों में तो अब तक आईसीयू सेवा शुरू नहीं हो पाई है. आईसीयू सेवा शुरू करने के लिए स्टाफ की भर्ती करनी होगी.

राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (NHM) की वर्ष 2019-20 के ग्रामीण स्वास्थ्य स्थिति रिपोर्ट (रूरल हेल्थ स्टेटस) के मुताबिक राज्य में सरकारी अस्पतालों की संख्या वर्ष 2005 में 12,086 थी जबकि वर्ष 2020 में यह संख्या बढ़ने के बदले घटकर 10,871 रह गयी. मानकों के अनुसार आबादी के अनुरूप बिहार में 25,772 सरकारी अस्पताल होने चाहिए.

इसके बाद मरीज़ के पास मेडिकल कॉलेज जाने का विकल्प है जो बिहार में बहुत कम हैं. बिहार में सरकारी मेडिकल कॉलेज 11 हैं और इनमें से चार तो पटना में ही हैं. जबकि 50 लाख की आबादी पर एक मेडिकल कॉलेज होना चाहिए.

क्या स्वास्थ्य केन्द्रों की संख्या बढ़ाने से बदलेगी तस्वीर

साल 2021 के अंत में स्वास्थ्य विभाग ने राज्य में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों की संख्या बढ़ाने का लक्ष्य निर्धारित किया था. जिसके अनुसार राज्य में नए स्वास्थ्य केंद्रों का निर्माण पहले उन जिलों में किया जाएगा, जहां ऐसे केंद्रों की संख्या कम है. ऐसे जिलों में सीतामढ़ी, दरभंगा और पटना हैं. वहीं दूसरी ओर आबादी के अनुपात में बेहतर स्वास्थ्य केंद्र वाले जिले जमुई, शिवहर और शेखपुरा हैं.

विभाग के अनुसार प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की संख्या को 533 से बढ़ाकर 550, स्वास्थ्य उप केंद्रों की संख्या 10,258 से बढ़ाकर 10,270 और अतिरिक्त प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की संख्या 1,399 से बढ़ाकर 1,405 करने की योजना है. 

आवश्यक दवाएं भी उपलब्ध नहीं कराए गए

आगे कैग ने अपने रिपोर्ट ने बताया कि एनएचएम (NHM) गाइड बुक में निर्धारित 22 प्रकार की दवाओं के सैंपल में औसतन 2 से 8 प्रकार की दवाएं मिली. कैग की रिपोर्ट में बताया गया है कि ओटी (Operation Theater) में आवश्यक 25 प्रकार के उपकरणों के विरुद्ध केवल 7 से 13 प्रकार के उपकरण ही उपलब्ध थे. आईपीएचएस (IPHS) के अनुसार, सभी जिला अस्पतालों में 24 घंटे ब्लड बैंक की सेवा होनी चाहिए. लेकिन 36 जिला अस्पताल में से 9 बिना ब्लड बैंक के कार्यरत हैं. वित्तीय वर्ष 2014 से 2020 के दौरान लखीसराय और शेखपुरा को छोड़कर सभी जिलों में बिना लाइसेंस के ब्लड बैंक चल रहे थे. ऐसा इसलिए क्योंकि निरीक्षण के दौरान केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन की टिप्पणी का सरकार ने अनुपालन नहीं किया.

कैग ने बिहार मेडिकल सर्विसेज एंड इंफ्रास्ट्रक्चर कॉर्पोरेशन लिमिटेड (BMSAICL) पर भी आलोचनात्मक टिपण्णी की थी. रिपोर्ट में बताया गया की बीएमएसआईसीएल द्वारा 2017-18 में अस्पतालों में 70 आवश्यक दवाओं वाली सूचि (EDL) की दवाएं और 2018-19 में 66 ईडीएल (EDL) दवाओं की आपूर्ति नहीं की गई थी.

बीएमएसआईसीएल को स्वास्थ्य विभाग की विभिन्न परियोजनाओं के लिए 10,443 करोड़ रुपये का फंड उपलब्ध कराया गया था जिसमें से विभाग मात्र 3,103 करोड़ ही खर्च कर सकी.

बीएमएसआईसीएल द्वारा 2014 से 2020 के बीच 1,097 स्वास्थ्य परियोजनाए शुरू की गई थी जिसमे से मात्र 187 को ही पूरा किया जा सका. जबकि 523 प्रोजेक्ट में अभी काम चल ही रहा है और 387 तो अभी तक शुरू भी नहीं हुए हैं.

2019-20 में बिहार सरकार को 3300 करोड़ रूपए नेशनल हेल्थ मिशन (NHM) के तहत केंद्र से मिले. लेकिन बिहार सरकार इसकी आधी रकम ही ख़र्च कर पाई.

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