तिब्बत पर चीनी कब्ज़े के बाद तिब्बत छोड़कर भारत आए लोग तिब्बती शरणार्थी कहे जाते हैं. तिब्बती शरणार्थी भारत में पिछले 60 साल से भी ज्यादा समय से रह रहें हैं. इनकी कईं पीढ़ियां जो देश छोड़ते वक्त मात्र चार से छह साल के उम्र के थे, आज वृद्ध हो चुके हैं. उनके माता-पिता जो उस त्रासदी के दर्द को झेल चुके हैं आज इस दुनिया में नहीं हैं.
सर्दियों के शुरुआत होने के साथ बाजार में गर्म कपड़ों की मांग होने लगती है. वैसे तो गर्म कपड़े हमारे-आपके स्थानीय दुकानों में भी मिलने लगते हैं. लेकिन पिछले पांच दशक से भारत के कई हिस्सों में अपने गर्म कपड़ों की दुकान के लिए मशहूर तिब्बती शरणार्थी की दुकानों की बात अलग है.
तिब्बतियों द्वारा भारत में शरण लेने के बाद उनके सामने रोजी-रोटी की समस्या आई. शुरूआती दिनों में समुदाय ने छोटे-मोटे कोई भी काम जो उनके निवास स्थान के पास मौजूद था उसे किया. लेकिन उसके बाद तिब्बतियों ने पारंपरिक गर्म कपड़ों का व्यापार करना शुरू किया, जिसे काफी पसंद किया जाने लगा और इसकी मांग भी बढ़ गई. और यहीं से ‘ल्हासा मार्केट’ लगाए जाने की शुरुआत होती है.
कैसे हुई ल्हासा मार्केट की शुरुआत?
रीज़ीन एक तिब्बती शरणार्थी हैं और लगभग पचास सालों से बिहार आ रहें हैं. इंग्लिश लिटरेचर (अंग्रेजी साहित्य) में पोस्ट ग्रेजुएशन किये हुए रीज़ीन अपने बचपन के दिनों को याद करते हुए बताते हैं
“जब मेरे माता-पिता भारत आए थे उस वक्त मेरी उम्र केवल छह साल थी. तो उन दिनों की याद ज्यादा तो नहीं है. लेकिन जिस वक्त हमारा परिवार भारत आया था उस वक्त हमारे परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी.घर चलाने के लिए हमारा परिवार कंस्ट्रक्शन के काम में लग गया था. ज्यादातर तिब्बती समुदाय उस वक्त सड़क निर्माण के काम में लगे हुए थे. लेकिन इस काम के आलावे हम लोग कपड़े बुनने का काम भी जानते थे. आय बढ़ाने के उद्देश्य से हमलोग बुने हुए गर्म कपड़े बेचने लगे, जिसकी मांग बाजार में काफी होने लगी.”
तिब्बती समुदाय समूह बनाकर देश के विभिन्न हिस्सों में जाकर गर्म कपड़ों का व्यापार करने लगे. रीज़ीन बताते हैं
“हमारे द्वारा बेचे जाने वाले कपड़ों की मांग बाजार में काफ़ी थी लेकिन हाथ से कपड़े बुनकर उसकी पूर्ति करना संभव नहीं था. जिसके बाद हमलोग गर्म रेडीमेड कपड़े खरीदकर बेचने लगे. और अब साल के चार महीने (अक्टूबर से जनवरी) हम केवल गर्म कपड़े बेचते हैं. बाकि महीनों में हममें से कई अपना दुकान चलाते हैं, कोई खेती करते हैं, कोई किसी निजी संस्थान में नौकरी करते हैं.”
बिहार में ल्हासा मार्केट की शुरुआत
बिहार में ल्हासा मार्केट की शुरुआत तिब्बती शरणार्थियों द्वारा 1970 में किया गया था. मार्केट की शुरुआत वीणा सिनेमा के पास फुटपाथ से होते हुए राजधानी के अलग अलग-जगहों पर लगते हुए आज पटना हाईकोर्ट के बगल में पहुंच गया है.
52 साल पहले शुरू किए गए इस बाज़ार की कहानी भी दिलचस्प है. रीज़ीन इसकी कहानी बताते हुए कहते हैं
“शुरूआती दिनों में हमारा कोई मार्केट नहीं था. बल्कि हम फेरीवालों की तरह फूटपाथ पर कपड़े बेचते थे. उस वक्त पटना जंक्शन पर स्थित महावीर मंदिर भी नहीं बना हुआ था. बल्कि एक पेड़ के नीचे छोटा सा मन्दिर हुआ करता था. हम मंदिर के पास फूटपाथ पर दुकान लगाते थे. उस समय किशोर कुणाल (बिहार के पूर्व आईपीएस अधिकारी) वहां आते थें. एक दिन उन्होंने कहा था आपलोग बहुत परेशानी से दुकान लगाते हैं. हमसे जितना बनेगा हम आपकी मदद करेंगें.”
तब किशोर कुणाल ने तिब्बती शरणार्थियों की मदद की थी. उन्होंने मंदिर के उस ओर सड़क पर दुकान लगाने के लिए जगह दिया था. लेकिन कुछ समय बाद में उन्हें वहां से हटाकर बांकीपुर जेल के अंदर वाले जगह पर शिफ्ट कर दिया गया. वहां पर तीन साल तक दुकान लगाया था.
इसके बाद कृष्णा चौक और गांधी मैदान में भी कुछ साल दुकान लगाया था. लेकिन फिर जब गांधी मैदान में जमीन नहीं मिला तब श्री सत्यनारायण जी ट्रस्ट ने मदद की. लगभग 10 साल तक हमने उनके द्वारा उपलब्ध कराए गए जमीन पर बाजार लगाया था.
लहासा मार्केट के संचालक तेनजिंग बताते हैं
“लहासा मार्केट की शुरुआत हमारे पूर्वजों के द्वारा किया गया था. अब कोई एक नाम तो नहीं बता सकता क्योंकि इसकी शुरुआत कई साथियों द्वारा किया गया है. शुरुआत में मात्र 20 से 25 लोगों का परिवार यहां दुकान लगाने आया था. इस साल मार्केट में 109 दुकानें लगी हैं, जिसमे 300-350 के आसपास लोग काम कर रहे हैं. इस मार्केट में तिब्बतियों के आलावे बिहारी और अन्य राज्यों के लोग भी काम करते हैं.”
तेनजिंग आगे बताते हैं
“साल 2000 से कपड़ों पर टैग लगना आरंभ हुआ. जिस पर कपड़ों के दाम लिखे रहते हैं. वर्ष 2006 से तिब्बती शरणार्थी संघ राज्य सरकार को वैट एवं वर्ष 2016 से जीएसटी भी देता आ रहा है.”
मार्केट का नाम ल्हासा कैसे पड़ा?
इस मार्केट का नाम लहासा क्यों है. इसपर दुकानदार रीज़ीन कहते हैं “लहासा तिब्बत की राजधानी थी. जब हमारे पूर्वज मार्केट लगाने लगे तो उन्होंने इसका नाम लहासा रख दिया ताकि हमारी पहचना बनी रहे. इसका एक और अर्थ होता है “पवित्र देवता” इस कारण से भी यह नाम बहुत खास हो जाता है हमारे लिए.
दुकानदार डोल्मा बताती हैं कि
“मैं और मेरे पति दुकान लगाने आते हैं. लेकिन दुकान में मदद के लिए स्थानीय लोगों को साथ रखते हैं. ज्यादातर बोधगया के लोगों को हम रखतें हैं. वो भी हमारे साथ चार महीनों तक रहते हैं.”
डोल्मा के पति धुनधुप बताते हैं
“हमलोग यहां गोरिया टोली, जमाल रोड आदि जगहों पर किराए के मकान में रहते हैं. कई सालों से आते रहने के कारण स्थानीय लोगों से भी जान-पहचान बन गया है. यहां के लोगों के साथ एक कमरे में रहने और खाने से उनकी भाषा को और अछे से समझने में भी मदद मिलता है.”
वहीं मार्केट की एक अन्य दुकानदार तेनजिंग डोलकर अपनी बहन नायमा भूटी के साथ मार्केट में पिछले 10 साल से दुकान लगाने आ रही हैं. पहले यह दुकान उनके माता-पिता लगाते थे. लेकिन उनके बुजुर्ग हो जाने के कारण अब यह दुकान दोनों बहनें ही लगा रही हैं.
तेनजिंग शुरुआत में तो अपने बारे में बताने से हिचकतीं हैं. लेकिन तिब्बती भाषा में अपनी बहन से कुछ बात करने के बाद तेनजिंग अपने परिवार के बारे में बताना शुरू करती हैं. तेनजिंग कहती हैं
“जब मैं यहां दुकान लगाने आती हूँ तो घर पर हमदोनों बहनों के बच्चों का ध्यान मेरे बूढ़े माता-पिता और हमारे पति रखते हैं.
तेनजिंग पश्चिम बंगाल की रहने वाली हैं. मार्केट समाप्त होने के बाद उनके रोजगार का साधन क्या है? इसपर तेनजिंग बताती हैं
“मेरा पश्चिम बंगाल में कपड़े का दुकान हैं. जब यहां का मार्केट बंद होता है तब हम वहां जाकर दुकान चलाते हैं. बाकि के महीनों में दुकान ही हमारे रोजगार का साधन है.”