प्रधानमंत्री ग़रीब अन्न योजना के तहत बिहार राज्य को मई के महीने में 3,48,466 मेट्रिक टन गेंहू दिया गया और FCI के ओर से 6,274 मेट्रिक टन गेंहू दिया गया यानी कुल 3,54,740 मेट्रिक टन गेंहू बिहार को मिला लेकिन बंटा सिर्फ़ 1,55,752.03 यानी 1/3 हिस्सा.
चावल की स्थिति भी कमोबेश वही है. प्रधानमंत्री अन्न योजना के तहत 5,22,698 मेट्रिक टन चावल बिहार को मिला लेकिन बंटा सिर्फ़ 2,33,469.20 मेट्रिक टन. अगर पूरे राशन का हिसाब करें तो केंद्र सरकार की ओर से राज्य को दिया गया 8,78,038 और बांटा गया सिर्फ़ 3,89,221.23
तो आखिर बाकी के बचे राशन गए कहां?
बिहार में एकबार फिर से एकबार लॉकडाउन की घोषणा कर दी गयी है. कोरोना की दूसरी लहर में बिहार में 5 मई को लॉकडाउन लगाया गया था उसके बाद से ही लॉकडाउन की तिथि बढ़ते जा रही है. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने ट्वीट करते हुए कहा है कि बिहार में लॉकडाउन का अच्छा प्रभाव पड़ा है और कोरोना के मामलों में कमी आई है. लेकिन मुख्यमंत्री ने लॉकडाउन के दौरान दिहाड़ी पर काम करने वाले मज़दूरों के लिए ना ही कुछ बयान दिया है और ना ही किसी तरह की कोई योजना बनायी है जो ज़मीन पर सच होती नज़र आ रही है.
"कोरोना संक्रमण को देखते हुए 5 मई 2021 से तीन सप्ताह के लिए लाॅकडाउन लगाया गया था। आज फिर से सहयोगी मंत्रीगण एवं पदाधिकारियों के साथ स्थिति की समीक्षा की गई।"
— Nitish Kumar (@NitishKumar) May 24, 2021
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इससे पहले ये कहा था कि हर प्रखंड में सामुदायिक किचन का इंतज़ाम किया गया है और बिहार में कोई भी भूखा नहीं सोयेगा. सुप्रीम कोर्ट साल 2019 से बिना आधार या किसी प्रमाण पत्र के राशन ना देने पर टिप्पणी कर रहा है और राज्य सरकार से रिपोर्ट्स की भी मांग कर रहा है. 24 मई 2021 को सुप्रीम कोर्ट ने फिर से ये साफ़ कर दिया है कि जिन लोगों के पास किसी भी तरह का प्रमाण पत्र नहीं है उन्हें भी राशन मुहैया करवाया जाएगा. लेकिन इन सब दावों का सच क्या है?
दीपक कुमार बिहार की राजधानी पटना में ठेला चलाने का काम करते हैं. लॉकडाउन से पहले ये दिल्ली में मज़दूरी किया करते थे लेकिन पिछले बारे के लॉकडाउन में बिहार वापस लौटने के बाद वो वापस दिल्ली नहीं गए. दीपक बताते हैं,
"जो भी कमाई बची थी पहले की वो सब इस बार के लॉकडाउन में ख़त्म हो गया है. अब पैसा बचा ही नहीं है. सरकार ने पिछले साल लॉकडाउन में कहा था कि वो रोज़गार देंगे. हम इसी उम्मीद में वापस बाहर कमाने नहीं गए. अब हालत बहुत ख़राब है. कुछ भी खाने को नहीं है. घर में बच्चा लोग को खिलाना है. क्या करेंगे चाहे चोरी करनी पड़े लेकिन बच्चा लोग के लिए कुछ तो इंतज़ाम करना होगा ना"
मज़दूर राज्य लौटे लेकिन खायेंगे क्या?
14 सितंबर 2020 को लोकसभा में एक प्रश्न का उत्तर देते हुए श्रम मंत्री संतोष कुमार गंगवार ने ये बताया था कि अलग-अलग राज्यों से बिहार वापस लौटने वाले मज़दूरों की संख्या 15,00,612 (पंद्रह लाख छह सौ बारह) थी. पिछले साल जब मज़दूरों का हुजूम बिहार की ओर आ रहा था तब बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा था कि बिहार के सभी मज़दूर वापस आ जायें, उन्हें बिहार में ही काम दिया जाएगा और साथ ही अब उन्हें बाहर जाने की ज़रूरत भी नहीं पड़ेगी.
रोज़गार को बढ़ावा देने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जून 2020 में 50 हज़ार करोड़ रूपए ‘प्रधानमंत्री ग़रीब रोज़गार अभियान’ के तहत 3 महीने के लिए रोज़गार देने के लिए शुरू किया गया था. इस योजना में 6 राज्यों का चयन किया गया था जिसमें बिहार भी एक राज्य था. बिहार के 32 जिले इस योजना के तहत आये थे. प्रधानमंत्री मोदी ने 20 जून को इस योजना की घोषणा करते हुए वीडियो कांफ्रेंसिंग के ज़रिये कहा था कि जो मज़दूर अपने गांव वापस लौटे हैं उन्हें उन्हीं के गांव में काम दिया जाएगा. इस योजना में से अभी तक 39,292 करोड़ रूपए ही ख़र्च किये गए हैं.
मनरेगा एक्टिविस्ट संजय साहनी ने डेमोक्रेटिक चरखा से बातचीत के दौरान कहा कि
"जो मज़दूर लॉकडाउन में बिहार लौटे थे उनके लिए मनरेगा आशा की किरण था. लेकिन दुःख की बात है कि सरकार ये नहीं समझ पायी कि मनरेगा में किस तरह से काम देना है और कैसे पैसा ख़र्च करना है. केंद्र सरकार की ओर से मनरेगा में काम करने के लिए बिहार को 2,886 करोड़ रूपए दिए थे. अगर आप मनरेगा ट्रैकर की वेबसाइट पर देखेंगे तो बिहार सरकार ने पहली तिमाही में ही 91% राशि ख़र्च कर दी. अब उनके पास पैसे ही नहीं बचे हैं वो काम कहां से दे पायेंगे"
सामुदायिक किचन सिर्फ़ कागज़ों पर मौजूद
बिहार में सरकार ने जगह-जगह पर सामुदायिक किचन की व्यवस्था की है लेकिन उसका काम भी अधिकांश तौर पर सिर्फ़ उदघाटन के दिन ही दिखता है. लॉकडाउन के पहले दिन यानी 5 मई को हमारे संवाददाता सुजीत सागर जब दानापुर के सामुदायिक किचन में दोपहर दो बजे पहुंचे तो वहां पर अभी किसी को खाना भी नहीं दिया गया था. उन्होंने वहां पर नियुक्त अधिकारी को कॉल किया लेकिन उनका कॉल भी बंद आ रहा था. हालांकि थोड़ी देर के बाद ही सुशील कुमार जो कार्यपालक पदाधिकारी, नगर पार्षद (दानापुर) हैं, सामुदायिक किचन आते हैं. उन्होंने बताया कि आज पहला दिन है इसीलिए देर हो रही है. बकौल सुशील कुमार
"बिहार सरकार ने लॉकडाउन में एक सामुदायिक किचन में 500 आदमियों के खाने का इंतज़ाम किया है. जो लोग यहां खाने नहीं आयेंगे हम उन्हें खाना पहुंचा भी देंगे"
लेकिन ठीक उन्हीं के सामने जब उनके कारीगर (जो खाना बना रहे थे) उनसे पूछा गया कि वो कितने आदमियों का खाना बना रहे हैं तो उन्होंने कहा-
"हमको तो साहब की तरफ़ से सिर्फ़ 50 आदमी के खाना बनाने का ही सामान मिला है. अभी हम लोग पूड़ी सब्जी बनायेंगे और रात में क्या बनेगा ये पता नहीं है क्योंकि अभी तक रात के खाने के लिए कोई सामान नहीं मिला है"
लॉकडाउन के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने भी ये स्टेटमेंट दिया है कि अगर किसी व्यक्ति के पास प्रमाण पत्र नहीं है तब भी उसे खाना राशन दिया जाए. लेकिन बिहार में मामला उल्ट है. यहां पर प्रमाण पत्र रहने के बाद भी कई लोगों को राशन नहीं दिया जा रहा है. पटना के लालबाग़ के इलाके में गोल्डन खां अपने 5 बच्चे और पत्नी के साथ रहते हैं.
गोल्डन भी दिहाड़ी मज़दूर हैं और लॉकडाउन से पहले वो प्लम्बर से लेकर बिजली का भी छोटा-मोटा काम कर देते थे लेकिन अभी के समय में उनके पास कोई काम नहीं है. उनकी पत्नी उस इलाके में रह रहे स्टूडेंट के लिए टिफ़िन बनाने का काम करती थी. लेकिन अब उनके पास भी एक काम नहीं है क्योंकि लॉकडाउन में कोई भी स्टूडेंट वहां नहीं रह रहे हैं. गोल्डन ने पिछले साल भी राशन कार्ड बनाने के लिए अप्लाई किया था लेकिन उन्हें उसके बाद कोई राशन कार्ड या उसकी कोई रसीद भी नहीं दी गयी. इस समय गोल्डन और उनके परिवार के पास खाने के लिए कुछ भी मौजूद नहीं है.
कई समुदाय के आंकड़े सरकार के पास मौजूद नहीं
राइट तो फ़ूड कैंपेन के बिहार संयोजक रुपेश कुमार ने बिहार सरकार की राशन वितरण सामग्री पर सवाल उठाते हुए कहा
"बिहार सरकार की जो पूरी पालिसी है उसमें घुमंतू समुदाय, दलित, आदिवासी समुदाय और ऐसे समुदाय जिनके पास रिसोर्स नहीं हैं वो ख़ुद ही छंट जाते हैं. बिहार सरकार ये भी नहीं बोल सकती है कि उनके पास इन समुदायों के सही आंकड़ें भी मौजूद हैं"
बिहार में 55% आबादी ग़रीबी रेखा से नीचे है. पटना की आबादी 2011 के सेन्सस के मुताबिक़ 20 लाख के आसपास है और उनमें से सिर्फ़ 2,95,951 लोगों का ही राशन कार्ड (आंकड़ें 27 मई 2021 तक के हैं) बना है. राशन कार्ड नहीं बनने की वजह जानने के लिए डेमोक्रेटिक चरखा ने सबसे पहले 41 नंबर वार्ड की पार्षद कंचन देवी से बातचीत करनी चाही. लेकिन कंचन देवी के पति ने ही बात की और कहा कि जो भी बात करनी है वो ही करेंगे. उन्होंने राशन कार्ड नहीं बनने के बारे में कहा-
"राशन कार्ड बनाने के लिए हम लोगों ने 2200 आवेदन दिए थे लेकिन उसमें से 1200 लोगों के कार्ड एक साल में बनें हैं बाकी के कार्ड कब बनेंगे पता नहीं. आपको जो भी पूछना है डीएम से पूछिए"
जब हमलोगों ने डीएम कार्यलय में कॉल किया तो वहां से अनुभाजन अधिकारी का नंबर दिया गया और कहा गया कि वही ये काम करेंगे. लेकिन जब अनुभाजन अधिकारी से बात हुई तो उन्होंने कहा,
"मैं किसी का भी राशन कार्ड बनाने का ज़िम्मेदार नहीं हूं आप ADM सप्लाई से बात कीजिये"
ADM सप्लाई से अभी तक कोई संपर्क नहीं हो पाया है क्योंकि वो फ़ोन नहीं उठा रहे हैं और ना ही अपने दफ़्तर में मौजूद हैं.
बफ़र स्टॉक के बाद भी राज्य में लोग भूखे
रौशन ख़ातून हॉस्टल में बतौर बावर्ची काम किया करती थी. लॉकडाउन के बाद से उनकी तनख्वाह कम कर दी गयी क्योंकि हॉस्टल बंद हो चुका था. जब उन्होंने राशन कार्ड बनाने के लिए अपने वार्ड पार्षद को कहा तो उसे ये कह कर साफ़ मना कर दिया कि अभी सरकार की ओर से राशन कार्ड नहीं बनाया का रहा है.
रुपेश कुमार सरकार द्वारा अनाज को लेकर पालिसी के बारे में बताते हैं,
"सरकार के पास बफ़र स्टॉक में इतना राशन है कि वो पूरे देश को 3 साल तक खाना खिला सकते हैं लेकिन फिर भी भारत में लोग भूख से तड़पते हैं. हमलोगों ने दूसरी लहर की शुरुआत में ही सरकार को PDS (सार्वजनिक वितरण प्रणाली) को लेकर कई सुझाव दिए थे. हमने 5 किलो अनाज, 1.5 किलो दाल, तेल, नमक के साथ-साथ विटामिन ए-बी-सी- तीनों की गोलियां जन वितरण प्रणाली में रखने की मांग की थी"
बिहार में भूख की कहानी काफ़ी लंबी है. शायद कोरोना में सरकारी तंत्र के नाकामयाबी की ये एक ऐसी दास्तान है जिस पर काफ़ी कम लोगों की नज़र जा रही है लेकिन अधिकांश बिहार इस भूख से गुज़र रहा है.