कोसी इलाके से क्यों विलुप्त होने की कगार पर औषधीय पेड़-पौधों की प्रजाति?

author-image
democratic
New Update

बिहार का शोक कही जाने वाली कोसी नदी प्रमुख रूप से जिन तीन जिलों में बहती है वह है सहरसा, सुपौल और मधेपुरा। इसलिए इन 3 जिलों के इलाके को कोसी का इलाका कहा जाता है। एक तो बिहार के कोसी की मिट्टी मे आयुर्वेद का भंडार है। साथ ही इस बड़े भू-भाग में सघन वन क्षेत्र है। इस वजह से कोसी का इलाका औषधीय पेड़ और पौधों से पटा रहता था।

लेकिन संरक्षण और संवर्धन के अभाव और गांवों की बसावट और सड़कों के विस्तार के कारण पिछले एक दशक में पेड़ों की अंधाधुंध कटाई एवं पेड़ों में उत्पन्न बीमारी के कारण इन्हीं वन क्षेत्र से लगभग एक दर्जन से ज्यादा औषधीय पेड़-पौधों की प्रजाति गायब हो गई है। वहीं कई प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर हैं।

सहरसा कृषि विभाग में काम कर रहे कृषि समन्वयक संजीव झा बताते हैं कि

लगभग 5-7 साल पहले तक कोसी इलाके के ग्रामीण क्षेत्रों में गम्हार, अर्जुन खैर, पलाश, हर्रा, बहेरा एवं सतावर समेत कई औषधिय पेड़-पौधों की भरमार थी। लेकिन अब गिने-चुने पेड़-पौधे ही दिखने को मिल सकता है। शायद संरक्षण के अभाव में ऐसा हुआ है। कुछ गलती समाज की है कुछ प्रशासन की।


और पढ़ें:- कोसी के कोख में बसे गांवों की कहानी: जहां हर सरकारी योजनाएं दम तोड़ देती है


औषधीय पौधे से गुलजार था कोसी दियारा

पूसा कृषि विश्वविद्यालय के कृषि वैज्ञानिक शंकर झा बताते हैं कि

पहले कोसी इलाके में ‘खैर’ पौधे से पान में खाने वाला कत्था बनता है। इसके साथ ही इस पौधे का पत्ता पीने से खून साफ होता है। पुराने घाव, फोड़ा-फूंसी की अचूक दवा है। वहीं गम्हार के पत्तों का इस्तेमाल अल्सर जैसी समस्या से राहत दिलाने के लिए किया जाता था। वहीं पलाश के फूलों से रंग बनाकर चेहरे में लगाने से चमक बढ़ती है। इसके फल कृमि नाशक होता है। यह लू और त्वचा संबंधी रोग में लाभदायक है।

publive-image

जलवायु परिवर्तन और शहरीकरण कितना असरदार?

सुपौल में पर्यावरण संसद के नाम से प्रसिद्ध रामप्रकाश रवि बताते हैं कि

बिहार में विकास हो रहा है। इस पर कोई संदेह नहीं है। लेकिन इस विकास की वजह से बड़े शहर तो छोड़िए छोटे शहरों का शहरीकरण होना और जंगलों का काटना भयावह है। लेकिन इसके बदले में जो पौधे काटे जा रहे हैं। वह सरकार के द्वारा कहीं ना कहीं लगाना चाहिए। जो नहीं लग रहा हैं। साथ ही जलवायु परिवर्तन तो जंगल सूखने का मुख्य वजह हैं ही।

बिहार आर्थिक सर्वे  के मुताबिक साल 2016-2017 में 20 प्रोजेक्ट के लिए 51.53 हेक्टेयर वन क्षेत्र, साल 2017-2018 में लगभग 150 हेक्टेयर वन क्षेत्र और 2020-2021 में 432.78 हेक्टेयर वन क्षेत्र मतलब पिछले 5 सालों के आंकड़े को देखा जाए तो 1603.8 हेक्टेयर में फैले वनक्षेत्र को विभिन्न सरकारी योजनाओं के लिए गैर वन क्षेत्र में तब्दील कर दिया गया हैं। वहीं भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा जारी ‘क्लाइमेट वल्नेरिबिलिटी एसेसमेंट फ़ॉर एडॉप्टेशन प्लानिंग इन इंडिया’ रिपोर्ट में बिहार को ‘हाई वल्नेरिबिलिटी’ श्रेणी में रखा गया है।

आगे शंकर झा बताते हैं

कोशी इलाके में एलोवेरा, गुगल, बेल, , सर्पगंधा, घृतकुमारी, गुडमोर, अश्चगंधा, आंवला, तुलसी, पत्थरचट्टा, दालचीनी, तेजपत्ता आदि की खेती भी होती थीं। अर्जुन पेड़ का हरा अंग औषधि के रूप में उपयोग होता है। साथ ही छाल ह्दय रोग व अस्थि रोगों में उपयोगी था सरकार के द्वारा इस खेती पर अनुदान भी दिया जाता हैं। इसके बावजूद कोई किसान आयुर्वेद खेती नहीं करना चाहता। साथ ही औषधीय पेड़-पौधों की प्रजाति भी जंगल से धीरे-धीरे खत्म हो रही हैं।

अलग-अलग किस्म के औषधीय एवं सुगंधित पौधे के बागवानी खेती के लिए सरकार के तरफ से अनुदान दिया जाता है। बढ़ती मांग और संभावनाओं को देखते हुए बागवानी मिशन के तहत सरकार ने औषधीय व सुगंधित खेती को बढ़ावा देने के लिए लागत मूल्य पर 50 से 70 फीसद तक अनुदान देने की योजना हैं। हर तरह की औषधि के लिए अलग-अनुदान तय किया गया है। औषधीय खेती नकदी खेती की श्रेणी में आता है।

publive-image

कृषि महाविद्यालय अगवानपुर के प्रोफेसर डा. उमेश सिंह कहते हैं कि, “मुख्य रूप से शहरीकरण का विस्तार के कारण पेड़ों की अंधाधुंध कटाई एवं पेड़ों में उत्पन्न बीमारी के कारण कोसी क्षेत्र में औषधीय पौधे की एक दर्जन से अधिक प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं और कहीं प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर हैं। पेड़ में गमोंसी बीमारी के होने से पेड़ के अंदर से गम निकलने लगता है। जिससे पेड़ सूख जाता है। सबसे ज्यादा आयुर्वेदिक पौधे को यही नुकसान पहुंचाया है। साथ ही बांध के भीतर के गांवों में जल स्तर के ऊपर उठने एवं अत्यधिक वर्षा होने से पेड़ लगे स्थल में जलजमाव होने के कारण पेड़ सूखने लगता है। इसके साथ जलाऊ लकड़ी, इमारती लकड़ी, फर्नीचर के व्यापारियों ने अवैध रूप से दोहन करवाया हैं।”

औषधीय पौधा को लेकर सरकार के द्वारा चल रहा योजना

पूसा कृषि विश्वविद्यालय के कृषि वैज्ञानिक शंकर झा बताते हैं कि, “यहां पहले आयुर्वेद पौधे का उपयोग खुद के लिए ही किया जाता था। व्यापारिक उद्देश्य से नहीं। आज भी सरकार की योजनाओं के बावजूद किसान आयुर्वेदिक कृषि की ओर हाथ नहीं आजमाते। एक तो मंहगी खेती हैं साथ ही किसान रिस्क नहीं लेना चाहते।”

वह एक सरकारी अधिकारी नाम न बताने की शर्त पर बताते हैं कि

सरकार की अनुदान की योजनाएं फाइल तक ही हैं। पूरे कोसी क्षेत्र में गिने-चुने लोग ही होंगे जिन्होंने खेती किया हो और उन्हें अनुदान मिला हो। एक तो महंगी फसल होने की वजह से लोग कोशिश कम करते हैं।

पेड़ों की कटाई से यह असर

“कोसी क्षेत्र में 30 से भी अधिक वन औषधी के पेड़-पौधों की पहचान पुराने लोगों को थी। इसके अलावा कई और पेड़ पौधे भी हैं जो औषधी हो सकते हैं। अभी गिन चुनकर 10 भी नहीं बचा है। आयुर्वेद की बची प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर हैं। बायो डाइवर्सिटी वाले पेड़ के बीज को एकत्रित कर बारिश के समय इन्हें फैला कर औषधीय व अन्य प्रजातियों को विलुप्त होने से रोका जा सकता है। औषधीय पेड़ों की कटाई से बीमारियां बढ़ी है साथ ही तापमान भी बढ़ रहा है।” सुपौल के प्रसिद्ध आयुर्वेद चिकित्सक मनोज मिश्रा बताते है।

Health Hindi News Patna Live patna news patna Medicinal Plants Kosi education Current News Breaking news Bihar NEWS Bihar