दवाएं हुई महंगी: दूसरे साल तय सीमा से अधिक महंगी हुई दवाएं

थोक मूल्य सूचकांक (WPI) में हुई वृद्धि के कारण दवाएं हुई मंहगी. मूल्य वृद्धि के कारण एनपीपीए ने 384 अनुसूचित (listed) दवाओं और 1 हज़ार से अधिक

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पल्लवी कुमारी
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थोक मूल्य सूचकांक (WPI) में हुई वृद्धि के कारण दवाएं हुई मंहगी. मूल्य वृद्धि के कारण एनपीपीए ने 384 अनुसूचित (listed) दवाओं और 1 हज़ार से अधिक फॉर्मूलेशन की कीमतों में लगभग 12% की वृद्धि की.
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थोक मूल्य सूचकांक (WPI) में हुई वृद्धि के कारण दवाएं हुई मंहगी. मूल्य वृद्धि के कारण एनपीपीए ने 384 अनुसूचित (listed) दवाओं और 1 हज़ार से अधिक फॉर्मूलेशन की कीमतों में लगभग 12% की वृद्धि की. इन दवाओं की कीमतों में लगातार दूसरे साल तय सीमा से ज़्यादा की वृद्धि की गयी है. वहीं गैर-अनुसूचित दवाओं कि कीमतें तय सीमा के अंदर यानि 10% ही बढ़ी हैं.

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1 अप्रैल से लागू हुए नए दाम

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पिछले वर्ष नेशनल फार्मास्युटिकल प्राइसिंग अथॉरिटी (NPPA) ने होलसेल प्राइस इंडेक्स (WPI) में 10.7 फीसदी के बढ़ोतरी की घोषणा की थी. जिसके कारण सभी आवश्यक दवाओं की कीमतों में 12 फीसदी की बढ़ोतरी तय की गई है. इस बढ़ोतरी को 1 अप्रैल 2023 से लागू किया गया है.

बढ़ी हुई कीमत का असर दर्द निवारक दवाओं, एंटीबायोटिक्स, एंटी-इंफेक्टिव, कार्डियक जैसी कई आवश्यक दवाओं पर देखने को मिलेगा.

हर साल एनपीपीए दवा (मूल्य नियंत्रण) आदेश, 2013 या डीपीसीओ(DPCO) 2013, के अनुसार थोक मूल्य सूचकांक (WPI) में बदलाव की घोषणा करता है.

800 से ज़्यादा दवाओं के मूल्य वृद्धि का क्या होगा असर

लेकिन क्या इस बढ़ोतरी से आमलोगों के दवा खरीदने के तरीकों में कोई बदलाव आएगा.

इसपर हनुमान नगर में मेडिकल दुकान चलाने वाले अजीत कुमार कहते हैं

आमलोगों के दवा खरीद पर इसका क्या असर पड़ेगा ये तो आने वाले एक-दो महीने में ही पता चलेगा. हालांकि लोग कुछ दवाएं अपनी समझ से भी खरीदते हैं. जैसे हल्का बुख़ार या खांसी में पारासिटामोल और विक्स लोग खुद ही मांगते हैं. बीकोसुल, कोबाडेक्स, सेरेडॉन जैसी कॉमन दवाएं लोग बहुत दिनों से खाते आए हैं. अगर इसके दाम में बढ़ोतरी होती भी है, तब भी इनकी बिक्री पर कोई ख़ास असर नहीं पड़ेगा.

अजीत जी कहते हैं

वहीं वैसे ग्राहक जिनका डॉक्टर की निगरानी में इलाज चल रहा है वो डॉक्टर द्वारा लिखी दवाएं ही लेते हैं. यहां तक की सेम कॉम्बिनेशन होने पर भी ग्राहक दूसरी कंपनी की वही दवा खरीदने से परहेज़ करते हैं. यहां ग्राहकों के लिए दाम से ज़्यादा दवा मायने रखती है.

दवा खरीदते समय लोग अकसर दाम से ज़्यादा उसकी क्वालिटी को प्रमुखता देते हैं. डॉक्टर जो दवाएं लिखते हैं लोग उसी दवा का कॉम्बिनेशन अलग कंपनी या उसी दवा का मिलता जुलता विकल्प लेने से परहेज़ करते हैं.

इस स्थिति में डॉक्टर की ज़िम्मेदारी सबसे अहम हो जाती है कि वो मरीज़ों को किफ़ायती दवाएं लिखें (Prescribe) और खरीदनें के लिए प्रेरित करें.    

महंगी दवाएं की मार ग्राहक और दुकानदार दोनों पर

बिहार के आरा में दवा दुकान चला रहे रवि रंजन कुमार दवा के दामों में हुई वृद्धि को अपने व्यापर के लिए घाटा मानते हैं. उनका कहना है इससे मुनाफ़े के साथ-साथ ग्राहक भी कम होता है.

रवि रंजन बताते हैं

दवा का दाम बढ़ने से मरीज़ के साथ-साथ दवा दुकानदारों को भी बहुत परेशानी उठानी पड़ती है. मान लीजिए कोई ग्राहक इस महीने कोई दवा 50 रूपए में ले गया और 15 दिन बाद फिर वही दवा खरीदने आया और मैं इसबार उससे 60 रूपए मांगता हूं तो ग्राहक दुसरे दुकान चला जाता है. ग्राहक दुसरे दुकान इस उम्मीद में जाता है कि हो सके वहां कम दाम में दवा मिला जाए, लेकिन इससे मेरा कस्टमर लॉस होता है.

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“दूसरी बात अभी मैं किसी दवा पर 5% प्रॉफिट कमा रहा हूं और अगली बार उसी दवा का रेट 10% से बढ़ जाए तो मैं दूसरी बार उस दवा को खरीदने के लिए पैसे कहा से लाऊंगा. क्योंकि मैंने तो उस दवा के बिक्री से केवल 5% ही मुनाफ़ा कमाया और दाम बढ़ गया दोगुना. इस तरह के वृद्धि से दुकानदारों को इन्वेंटरी मैनेजमेंट में बहुत दिक्कत होता है.”

दवाएं महंगी होने पर निम्न और मध्यम वर्गीय परिवार पर सबसे अधिक बोझ

अशोक नगर रोड नंबर 1 की निवासी बिनीता कुमारी हाई ब्लडप्रेशर की पेशेंट हैं. दवाओं के दाम बढ़ने से परेशान बिनीता कहती हैं

मैं पिछले आठ सालों से बीपी की पेशेंट हूं. डॉक्टर ने एक दवा लिखी है जिसे हर सुबह नाश्ते के बाद खाना होता है. हर महीने केवल मेरे दवा के ऊपर 500 रूपए ख़र्च होते थे.

बिनीता आगे कहती हैं

लेकिन कोविड के बाद घर का बजट संतुलित करने के लिए मैंने अपनी ज़रूरत की चीज़ों में कटौती करना शुरू कर दिया. शुरूआती कुछ साल जो दवा मैं हर रोज़ खाती थी अब हफ़्ते में दो दिन ही खाती हूं. अगर कभी तबियत ख़राब रहती है तभी पूरे हफ़्ते दवा खाती हूं. ये सब बढ़ती मंहगाई का ही असर है. 

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दवा दुकानदार निशांत कुमार बताते हैं

बीपी की दवा एम्लोसेफ(Amlosafe 80) की कीमत 109.50 पैसे प्रति 10 टेबलेट है. ऐसे मैं अगर कोई मरीज हर दिन दवा का उपयोग करता है तो उसे महीने के 300 से ज्यादा ख़र्च करने पड़ते हैं. वहीं अलग-अलग कंपनी के दवाओं में दाम औए बढ़ सकता है.

बढ़ती मंहगाई का असर अकसर लोगों की स्वास्थ्य आवश्यकताओं पर पड़ रहा है. लोग बचत के लिए अपनी स्वास्थ्य ज़रूरतों से भी समझौता कर रहे हैं.

आवश्यक दवाओं का सस्ता विकल्प है जेनरिक दवाएं

जेनरिक दवाओं में भी आवश्यक दवाओं का विकल्प ढूंढा जा सकता है. जैसे बुख़ार, सर्दी-जुकाम, सरदर्द, पेटदर्द यहां तक की बीपी, सुगर और हार्ट से संबंधित गंभीर बिमारियों के लिए भी जेनरिक दवाएं उपलब्ध हैं. डॉक्टर के सुझाव और लोगों में को इसको लेकर जागरूकता होना आवश्यक है.

जेनरिक दवाओं के सस्ता होने का सबसा पहला कारण पैकेजिंग पर कम ख़र्च को दिया जा सकता है. वहीं जेनरिक दवाओं पर ब्रांड लोगों नहीं होने के कारण इसका दाम कम होता है.

हालांकि, जेनरिक और ब्रांडेड दवाओं का कंपोजीशन एक ही होता है. फ़र्क केवल ब्रांड नेम और जेनरिक नाम का होता है. जेनरिक दवाएं अपने कम्पोजीशन के नाम से बेचीं जाती हैं. वहीं कम्पोजीशन के साथ ब्रांड का नाम जुड़ने से दवाओं का दाम बढ़ जाता है. 

जेनरिक और ब्रांडेड दवाओं में दोगुने का अंतर आप ऐसे समझ सकते हैं. जैसे- उल्टी होने की स्थिति और मोसन सिकनेस की स्थिति में पेशेंट को औन्डेम लेने की सलाह दी जाती है. औन्डेम-4 टैबलेट की कीमत 50 रूपए के करीब होती हैं. जबकि यही दवा जेनरिक दवाओं में ऑनडॉक(Ondoc) केवल 24 रूपए में आती है.

ब्रांड के प्रचार और पकैजिंग का ख़र्च नहीं होने के कारण जेनरिक दवाओं का मूल्य कम रहता है. वहीं ब्रांडेड दवाओं का मूल्य कंपनी निर्धारित करती है जबकि जेनरिक दवाओं का मूल्य सरकार तय करती है.

ब्रांडेड दवाओं के बढ़ते दाम लोगों की परेशानी का कारण हो सकते हैं. लेकिन हम इसके विकल्प के तौर पर जेनरिक, होमियोपैथिक और आयुर्वेदिक दवाओं का भी उपयोग कर सकते हैं.

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NPPA करती है दवा का मूल्य निर्धारण

दवाओं के मूल्य नियंत्रण का ज़िम्मा राष्ट्रिय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (NPPA) के ऊपर है. इसका गठन 1997 में भारत सरकार द्वारा दवाओं के मूल्य निर्धारण और उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए किया था.

एनपीपीए, आवश्यक दवाओं की राष्ट्रिय सूचि (NLEM) में सूचीबद्ध दवाओं और मेडिकल उपकरणों का मूल्य निर्धारित करती है. सरकार द्वारा मूल्य विनिमय के योग्य तैयार की गयी आवश्यक दवाओं की सूचि (NLEM) को एनपीपीए को भेजा जाता है. एनपीपीए (NPPA) तब इस अनुसूची में दवाओं की कीमतें तय करता है.

NLEM की सूचि में फार्मा बाजार की 15% दवाएं सूचीबद्ध हैं. थोक मूल्य सूचकांक के अनुसार सरकार मूल्य वृद्धि की अनुमति देती है. शेष 85% दवाएं जो इस सूचि से बाहर हैं, का मूल्य हर वर्ष 10% के दर से बढ़ाया जाता है.   

विशेषज्ञों का क्या मानना है?

लगातार दुसरे साल दवाओं का दाम बढ़ाया जाना मरीज़ों और आमलोगों की ज़ेब पर कितना असर डालेगा? इसपर डॉ शकील बताते हैं

हिंदुस्तान में आउट ऑफ़ पॉकेट एक्स्पेंडीचर (OOPE) ख़र्च बहुत ज़्यादा है. आउट ऑफ़ पॉकेट एक्स्पेंडीचर का मतलब हुआ कि जब हम किसी अस्पताल में इलाज कराने जाते हैं चाहे वो अस्पताल सरकारी ही क्यों न हो, हमें अपने जेब से बहुत सारा पैसा ख़र्च करना पड़ता है.

डॉक्टर शकील आगे बताते हैं

आमतौर से वो पैसा दो जगहों पर ख़र्च होता है. पहला डायग्नोस्टिक्स पर क्योंकि आमतौर पर सरकारी अस्पतालों मीन डायग्नोस्टिक्स नहीं हो पाता है. आजकल सरकार ने पीपीपी (Public Private Partnership) मोड लागू कर दिया है. जिसके तहत सस्ते दरों पर जांच होगा लेकिन उसके लिए कुछ पैसा आपको देना पड़ेगा. दूसरा ख़र्च दवाओं पड़ होता है. पूरे इलाज का 60% ख़र्च दवाओं पर होता है. मान लीजिए इलाज़ पर 100 रूपए ख़र्च हो रहे हैं तो 60 रूपए केवल दवाओं पर ख़र्च हो जाते हैं. सरकार के तरफ़ से प्रति व्यक्ति मदद केवल 40% ही रहता है. हेल्थ के मामले में जो मुल्क अच्छे हैं उनके यहां ये ख़र्च बहुत कम या बिल्कुल नहीं हैं.

"बिहार का आउट ऑफ पॉकेट एक्स्पेंडीचर है 83%"

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बिहार की लचर स्वास्थ्य व्यवस्था के बारे में बताते हुए डॉक्टर शकील कहते हैं-

जब दवाओं की कीमतें बढ़ेगी तो आउट ऑफ़ पॉकेट एक्स्पेंडीचर भी बढेंगा. भारत का औसत आउट ऑफ़ पॉकेट एक्स्पेंडीचर 60% है लेकिन बिहार के लिए यह औसत और ज्यादा 83% है. इस हिसाब से बिहार के लोगों को अपने जेब से कहीं ज़्यादा पैसा इलाज़ पर ख़र्च करना पड़ता है. नेशनल हेल्थ पॉलिसी की रिपोर्ट में केंद्र सरकार ने माना है की इलाज के सिलसिले में कभी-कभी लोगों को इतना ख़र्च करना पड़ जाता है कि लोगों को कर्ज़ लेना पड़ता है, उन्हें अपनी संपत्ति तक बेचनी पड़ जाती है. इलाज़ पर होने वाले ऐसे ख़र्च को कैटेसट्रॉफिक हेल्थ एक्स्पेंडिचर (Catastrophic health expenditure) कहा जाता है.

महंगे दवाएं और इलाज का असर देश की अर्थव्यवस्था पर

कैटेसट्रॉफिक हेल्थ एक्स्पेंडिचर के कारण हर साल 6% लोग गरीबी रेखा (Poverty line) के नीचे चले जाते हैं. भारत में अभी भी हेल्थ पर 1.5% GDP से ज्यादा ख़र्च नहीं किया जा रहा है. विश्व ने 2030 तक टीबी (TB) को खत्म करने का लक्ष्य रखा है लेकिन भारत में 2025 तक ही इसे मिटाने का लक्ष्य रखा है.

डॉ शकील बताते हैं

टीबी का एक प्रकार एक्स्टेंसिव ड्रग रजिस्टेंस (Extensively drug-resistant (XDR) है. इसतरह की बीमारियां ज्यादातर गरीब लोगों को हो रही है. इसके इलाज में उपयोग होने वाली दवा भी बहुत महंगी आती है. दवा का दाम बढ़ा है तो उन दवाओं की कीमतें भी बढ़ेगी. ऐसे में इसके परिणाम बुरे होंगे.

डॉ शकील आगे कहते हैं

दवाओं की कीमत बढ़ाकर सरकार दवा कंपनियों को नुकसान से बचाना चाहती है, ठीक है. लेकिन इसका बोझ जनता के ऊपर डालना सही नहीं है. सरकार को दाम बढ़ाने के साथ-साथ आमलोगों को दवाओं पर सब्सिडी देना चाहिए.