मनरेगा बजट में शुरूआती कम आवंटन रोजगार अवसरों में गिरावट को बढ़ाएगा साथ ही पहले से चली आ रही भुगतान अनियमितता (देर) को भी बढ़ाएगा. वित्तीय वर्ष 2023-24 के लिए मनरेगा के मद में कुल 60,000 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया. यह बीते वित्त वर्ष 2022-23 के संशोधित बजट 89,000 करोड़ रुपए से करीब 34 फ़ीसदी कम है.
इससे पहले भी की गयी है मनरेगा बजट में कटौती
यह लगातार तीसरा वर्ष है जब मनरेगा के बजट में कटौती की गई है. इससे पहले वित्त वर्ष 2021-22 में 34 फ़ीसदी और 2022-23 में 25.5 फ़ीसदी की कटौती की गई थी. साल 2020-21 में संशोधित बजट 1,11,500 करोड़ रूपए था. वहीं 2021-22 में संशोधित बजट 98000 करोड़ रूपए रखा गया. वर्ष 2022-23 में बजट अनुमान 73000 करोड़ रूपए रखा गया जिसे बढ़ाकर 89,400 करोड़ रूपए किया गया.
तीनों वर्ष के बजट आवंटन में क्रमशः गिरावट देखा जा सकता है.
मनरेगा बजट में कमी से ग्रामीण बेरोज़गारी बढ़ेगी
मनरेगा के बजट आवंटन में हुई कटौती पर ग्रामीण विकास एवं पंचायती राज पर बनी संसदीय समिति ने भी चिंता व्यक्त किया है. समिति ने ग्रामीण विकास विभाग से प्रश्न भी किया कि विभाग ने किस आधार पर केवल 98 हज़ार करोड़ रूपए की मांग की और वित्त मंत्रालय ने क्यों केवल 60 हज़ार करोड़ रूपए आवंटित किए. समिति ने ग्रामीण विकास विभाग से जमीनी स्तर पर योजना का जायज़ा करने और अधिक राशि आवंटन की मांग करने को कहा है.
संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि
समिति मनरेगा के तहत आवंटन में कमी के औचित्य को समझ नहीं पायी है.
समिति ने अपने रिपोर्ट में यह भी कहा कि ‘मनरेगा योजना’ पिछले तीन साल में ग्रामीण बेरोजगारों के लिए आशा की किरण बना है.
हालांकि मनरेगा के बजट में कटौती पर ग्रामीण विकास मंत्रालय ने अपना स्पष्टीकरण देते हुए कहा है कि यह एक मांग आधारित योजना है. यदि मांग बढ़ती है तो बजट में ख़र्च बढ़ाया जा सकता है. जैसे वित्त वर्ष 2021-22 में प्रावधान 73 हज़ार करोड़ रुपए का था जबकि संशोधित बजट में 25 हज़ार करोड़ रुपए बढ़ाकर 98 हज़ार करोड़ रूपए कर दिए गए थे.
मज़दूरी की मांग करने वाले प्रत्येक परिवार को योजना के अनुसार पंद्रह दिन के अंदर 100 दिनों की मज़दूरी मुहैया कराई जाती है. वित्त वर्ष 2022-23 में 99.81% ग्रामीण परिवारों की मांग के अनुसार काम दिया गया है.
मंत्रालय ने अपने स्पष्टीकरण में कहा कि
आवेदक द्वारा काम के मांग के पंद्रह दिन के अंदर रोजगार नहीं मिलने कि स्थिति में वह दैनिक रोजगार भत्ता का हक़दार है.
ग्रामीण क्षेत्रों में मनरेगा के तहत नहीं मिल रहा काम
योजना के नियम और मंत्रालय के स्पष्टीकरण की सच्चाई कटिहार जिले के सिक्कट गांव में कहीं नज़र नहीं आती है.
मनरेगा ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने में एक मजबूत स्तंभ बन सकता है. भूमिहीन मज़दूर, अकुशल कामगार और छोटे किसानों के लिए मनरेगा एक लाभकारी योजना है इसमें कोई संदेह नहीं है. लेकिन इसके क्रियान्वयन में मौजूद खामियां और विभागीय लेटलतीफ़ी का सीधा नुकसान मजदूरों को उठाना पड़ता है.
मनरेगा के तहत रोज़गार पाने के लिए सबसे पहले श्रमिक के पास जॉब कार्ड होना आवश्यक है. लेकिन योजना में सबसे पहली गड़बड़ी यहीं पर होती है. आवेदन देने के महीनों बाद भी जॉब कार्ड नहीं बनाया जाता है और आवेदन के 15 दिन के अंदर कार्ड नहीं बनने की स्थिति में उन्हें बेरोज़गारी भत्ता भी नहीं दिया जाता है.
कटिहार जिले के सुजापुर पंचायत में महिलाएं रोजगार के लिए अब भी मोहताज हैं. डेमोक्रेटिक चरखा की रिपोर्टर रीना देवी को पंचायत की महिलाएं बताती हैं कि
जॉब कार्ड के लिए आवेदन दिए उन्हें महीनों हो गए हैं. जबकि नियम के अनुसार आवेदन के 15 दिनों के भीतर आवेदक को जॉब कार्ड बनाकर दिया जाना चाहिए.
सुजापुर की रहने वाली निभा देवी डेमोक्रेटिक चरखा को बताती हैं
लेबर कार्ड के लिए आवेदन दिए एक महीना हो गया हैं. बिना काम के घर चलाना मुश्किल है. हर ज़रूरत के लिए कर्ज़ उठाना पड़ता है.
सुजापुर की ही सुलेखा देवी बताती हैं
गरीब आदमी हैं, रोगजार मांगते हैं वो भी नहीं मिलता है. जॉब कार्ड के लिए आवेदन दिए दो महिना हो गया. किसी तरह ब्याज़ पर पैसा उठाकर घर चला रहे हैं.
हालांकि, आर्थिक सर्वेक्षण की रिपोर्ट में बताया गया है जहां वर्ष 2018-19 में मनरेगा महिला कामगारों की भागीदारी 54.6% थी वह 2022-23 में बढ़कर 56.3% हो गयी है.
बिहार के ग्रामीण इलाकों में नरेगा के अंतर्गत काम करने वालें मजदूरों के लिए काम करने वाले आशीष रंजन कहते हैं
बजट घटने से लोगों को काम कम मिलेगा. नरेगा में सरकार जब पैसा ज़्यादा देती है तो काम ज़्यादा होता है. क्योंकि कोविड के दौरान अधिकतम बजट 1 लाख 10 करोड़ गया था. उस हिसाब से उस समय काम भी बढ़ा था. इस वित्तीय वर्ष जो बजट दिया गया है उसके अनुसार हमने हिसाब किया है कि एक्टिव कार्ड होल्डर यानि ऐसे कार्ड होल्डर जिन्होंने विगत दो-तीन सालों में काम किया है यदि केवल उन्हीं को काम दिया जाए तो मात्र 16 दिनों का काम ही मिल पाएगा. जबकि योजना में 100 दिनों के रोजगार की गारंटी है.
आशीष आगे बताते हैं
बजट कम होने से फंड फ्लो में दिक्कत होती है और इसका सीधा असर काम पड़ पड़ता है. बजट ख़त्म होने पर काम बंद हो जाता है क्योंकि बिना मज़दूरी के लोग काम नहीं करते हैं. लोग पिछली मज़दूरी का इंतजार करते हैं. इससे काम के साथ-साथ मज़दूरों के आर्थिक स्थिति पर भी असर पड़ता है.
मनरेगा बजट का असर वेतन भुगतान पर
मनरेगा के तहत न केवल जॉब कार्ड बनाने में देरी की जा रही है बल्कि जिन आवेदकों को रोज़गार मिला भी है उनके वेतन भुगतान में अनियमितता और देर की जा रही है. कटिहार जिले के सिक्कट पंचायत में काम करने वाले मनरेगा कामगारों काम पूरा होने के तीन महीने बाद भी वेतन का भुगतान नहीं किया गया है. भुगतान नहीं होने से परेशान मज़दूर अब कर्ज़ लेने को मजबूर हैं.
सिक्कट पंचायत के ग्रामीण लक्खी साव बताते हैं
काम किए हुए आज तीन महीने बीत चुके हैं लेकिन अभी तक भुगतान नहीं मिला है. काम करने से पहले भी कर्ज़ लिए थे और काम के बाद भी कर्ज़ लेकर घर चलाना पड़ रहा है. पीआरएस से जब पैसा मांगते है तो वो कहते हैं सरकार के खाता में अभी पैसा ही नहीं आया है.
सरकार का कहना है कि मांग बढ़ने पर बजट राशि बढ़ाई जाएगी लेकिन शुरुआती कटौती का सीधा असर भुगतान और रोज़गार अवसरों पड़ता है. रोजगार अवसरों में आई कमी का आंकड़ा बजट से पहले ज़ारी हुए आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट से भी पता चलता है.
रिपोर्ट में 2018-19 से 2022-23 के 6 जनवरी 2023 के प्रत्येक वर्ष के कितना श्रम दिवस सृजित किया गया है इसके आंकड़े बताए गए हैं. वर्ष 2020-21 में 389.1 करोड़ श्रम दिवस, वर्ष 2021-22 में 363.3 करोड़ श्रम दिवस और वर्ष 2022-23 में 225.8 करोड़ श्रम दिवस सृजित किया गया है जो कि पिछले वित्तीय वर्ष से काफ़ी कम है.
आर्थिक सर्वेक्षण 2021-22 में यह भी बताया गया है पलायन करने वाले मज़दूरों जिस राज्य में सबसे ज़्यादा जाते हैं साल 2021 में उन्हीं राज्यों में सबसे ज़्यादा मनरेगा के तहत काम मांगने में बढ़ोतरी हुई है. इनमें पंजाब, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु प्रमुख हैं. मनरेगा के तहत काम मांगने की दर न केवल गांवों में बढ़ी है बल्कि शहरी क्षेत्रों में भी मनरेगा के तहत काम मांग में बढ़ोतरी देखी गयी है.
100 दिन का पक्का रोजगार केवल कागज़ों पर
कैग की रिपोर्ट से यह खुलासा हुआ था कि बिहार में 2014 से 2019 के बीच केवल 1 से 3 प्रतिशत मजदूरों को ही 100 कार्यदिवस का रोज़गार मिला था. बिहार में भूमिहीन मजदूरों की संख्या देश में सबसे ज़्यादा है. बिहार में मनरेगा में निबंधित मज़दूरों की संख्या 8 से 10 प्रतिशत है. मनरेगा वेबसाइट पर उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार बिहार में कुल 170.29 लाख जॉब कार्ड बनाये गये हैं. जिसके तहत 217.19 लाख मज़दूर निबंधित हैं.
वहीं एक्टिव जॉब कार्ड की संख्या 77.5 लाख हैं जिसके तहत 86.63 लाख मज़दूर कार्य कर रहे हैं. कुल कार्यरत मज़दूरों में एससी मज़दूरों की संख्या 14.95% और एसटी मज़दूरों की संख्या 1.54% है.
राज्य में भूमिहीन मज़दूरों की संख्या 88.61 लाख हैं. लेकिन रोज़गार मांगने के इच्छुक 90 हज़ार लोगों में 3.34% का ही जॉब कार्ड है. इनमें भी केवल 1% लोगों को ही 100 दिनों तक काम मिला है. मनरेगा के तहत 100 दिन काम देने की गारंटी होती है लेकिन इनमें अधिकतर लोगों को 34 से 45 दिनों का ही रोज़गार दिया गया. सरकार का तर्क है कि कृषि कार्यों में ज़्यादा मज़दूरी होने की वजह से मज़दूर मनरेगा में काम करने नहीं आते हैं.
मनरेगा के तहत पहले जहां प्रतिदिन 177 रुपये प्रति दिन के हिसाब से मज़दूरी मिलती थी. उसे बढ़ाकर अब 210 रूपए कर दिया गया है. ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा 24 मार्च को जारी अधिसूचना में मनरेगा के तहत काम करने वाले मजदूरों के दैनिक वेतन भत्ते में वृद्धि की गयी है.
आशीष कहते हैं
केंद्र सरकार मनरेगा को गरीबों की योजना मानती है. इसमें गरीब लोग काम करते हैं और सरकार की इच्छा नहीं है कि इन लोगों को रोज़गार मिले. सरकार चाहती है लोग पलायन को मजबूर रहें और बड़े-बड़े फैक्ट्रियों में सस्ते मज़दूर बने रहें. मजदूरों का पलायन पहले भी होता रहा है लेकिन ऐसे फ़ैसलों से माइग्रेशन और तेज़ (acute) हो जाएगा. साथ ही बाजार में न्यूनतम मज़दूरी भी प्रभावित होगा क्योंकि मार्केट में बेरोज़गार मज़दूरों की संख्या बढ़ेगा.