NFHS-5 सर्वे: बिहार के 80% लोग इलाज के लिए नहीं जाते हैं सरकारी अस्पताल

बिहार में स्वास्थ्य सेवाओं की ऐसी लचर स्थिति है कि सरकारी अस्पतालों में चिकित्सकों की कमी और सुविधाओं का अभाव होने के कारण मरीजों को अंतिम विकल्प के तौर पर निजी अस्पतालों का ही सहारा लेना पड़ता है.  ऐसे हालत में गरीब के लिए इलाज कराना उनकी  क्षमता से बाहर हो जाता है. लेकिन सरकारी महकमा इसपर विशेष ध्यान देता नज़र नहीं आ रहा है.

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बिहार में स्वास्थ्य सेवाओं की ऐसी लचर स्थिति है कि सरकारी अस्पतालों में चिकित्सकों की कमी और सुविधाओं का अभाव होने के कारण मरीजों को अंतिम विकल्प के तौर पर निजी अस्पतालों का ही सहारा लेना पड़ता है.  ऐसे हालत में गरीब के लिए इलाज कराना उनकी  क्षमता से बाहर हो जाता है. लेकिन सरकारी महकमा इसपर विशेष ध्यान देता नज़र नहीं आ रहा है.

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बिहार के सरकारी अस्पतालों की स्थिति ऐसी है कि यहां परिसर में कुत्तों का जमावड़ा लगा रहता है. यहां तक की मरीजों के बेड के नीचे  कुत्ते आराम फरमातें  नज़र आतें हैं. मरीजों के बेड कि स्थिति भी जर्जर बनी रहती है. मरीजों कों यहां उसी टूटे बेड और फटे गद्दों पर रहकर  इलाज करवाना पड़ता  है. सरकारी अस्पतालों में मरीजों को दवाईयां कम दर पर उपलब्ध कराने की व्यवस्था हैं लेकिन मरीजों की शिकायत रहती है कि यहां बहुत मुश्किल से ही दवाएं मिल पाती हैं.

मरीजों का कहना है कि उन्हें ज्यादातर दवाइयां बाहर की दुकानों से खरीद कर लानी पड़ती हैं. यही कराण है कि सरकारी अस्पतालों के नजदीक निजी दवा दुकानों की संख्या धड़ल्ले से बढ़ रही हैं .

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नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-5 की रिपोर्ट भी बिहार के सरकारी स्वास्थ महकमे की पोल खोल रहा हैं. देश भर में हुए इस सर्वे से यह बात सामने आयी है कि बिहार में 80 प्रतिशत लोग बीमार होने पर सरकारी अस्पताल नही जाते हैं. देश भर में यह आंकड़ा सबसे ज्यादा हैं. बिहार के बाद सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश के लोगों का सरकारी अस्पतालों पर भरोसा नही हैं. यूपी में 75 प्रतिशत लोग बीमार पड़ने पर अस्पताल नही जाते हैं. देश के दो सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्यों की स्थिति यह है कि यहां के लोगों को सरकारी अस्पतालों के कार्यशैली पर भरोसा नही है.

नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-5 की पांचवें राउंड की रिपोर्ट से यह खुलासा हुआ है.

सर्वे में जब लोगो से यह पूछा गया कि आखिर वो क्यों सरकारी अस्पताल नही जाते हैं? तो तीन बातें सामने निकलकर आयीं- पहला और सबसे सामान्य कारण- अच्छे तरीके से देखभाल नही होना. ज्यादातर लोगों कि यह शिकायत रही कि सरकारी अस्पतालों में अच्छे से देखभाल नही होती हैं. बिहार में 62.3 प्रतिशत लोगों ने कहा कि सरकारी अस्पतालों में मरीजों की देखभाल सही ढंग से नही होती है, इसलिए वो सरकारी अस्पताल नहीं जाते हैं.

दूसरा कारण लंबे समय तक वेटिंग हैं. बिहार में 45.2 प्रतिशत लोगों ने कहा सरकारी अस्पतालों में इलाज के लिए लंबा इंतजार करना पड़ता है. तीसरा कारण आसपास सरकारी अस्पताल का नही होना बताया गया. 37.9 प्रतिशत लोगों ने कहा है कि सरकारी अस्पताल पास नहीं रहने के कारण वो नही जाते हैं. हमलोगों ने अपनी कई रिपोर्ट्स में भी ये बताया है कि कैसे ग्रामीणों के आसपास के सर्जारु अस्पताल सालों से खुले ही नहीं है. साथ ही 27 प्रतिशत लोगों ने कहा कि अस्पतालों की टाइमिंग सुविधाजनक नहीं है और 21 प्रतिशत लोगो कि शिकायत रही कि स्वास्थ्यकर्मी मौजूद नहीं रहते हैं.

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हमने इन आंकड़ों के बारे में और बेहतर ढंग से समझने के लिए हमने बिहार के सबसे बड़े अस्पताल PMCH में मरीज़ों से भी बातचीत की.

मोकामा से अपनी बहन का इलाज कराने पटना के PMCH आए गोपाल कुमार बताते हैं कि उनकी बहन के सर के पीछे चोट लग गयी है, जिसका इलाज करवाने वो पटना आए हैं. जब हमने उनसे पूछा कि क्या मोकामा के सदर अस्पताल में इलाज की व्यवस्था नहीं है, तो गोपाल बताते हैं  कि

"अगर व्यवस्था होती तो हम यहां क्यों आते. वहां ना जांच की व्यवस्था है और ना ही डॉक्टर की व्यवस्था है. आप ही बताइए इतने बड़े अंचल के इस सदर अस्पताल में केवल एक ही डॉक्टर मौजूद रहते हैं. इस अस्पताल में कई गांव से लोग इलाज करवाने आते हैं. लेकिन उन्हें बढ़िया इलाज नहीं मिलता है. आसपास कई प्राइवेट हॉस्पिटल खुले हैं जहां मरीजों को रेफर कर दिया जाता है. हम लोगों को अपना काम छोड़ कर इतनी दूर आना पड़ता है."

मोकामा के ही पास के मोर गांव से आयी सोनिया देवी कहती हैं कि

"हमलोग रोज कमाने खाने वाले लोग हैं. मेरे हाथ में सूजन हो गया है. इलाज कराने के लिए हम इतनी दूर से पटना आए हैं और आज यहां बोल रहे है कि डॉक्टर साहब चले गए हैं. यहां बोला गया कि आप डॉक्टर साहब की क्लिनिक पर जाकर दिखा सकती हैं. वो आगे कहती है कि अगर प्राइवेट में ही दिखाना होता तो मोकामा से पटना क्यों आतें?"

PMCH के सर्जरी विभाग के डॉक्टर डॉ संजय कुमार गुप्ता से जब हमने पूछा कि नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-5 की रिपोर्ट के मुताबिक बिहार के 80 प्रतिशत लोग सरकारी हॉस्पिटल में इलाज नहीं करवाना चाहते हैं तो डॉ. संजय कहते हैं

"हम कैसे यह बात मानें क्योंकि हमारे यहां तो रोज 800 से 900 मरीज आते हैं. लेकिन मैं इसपर ज्यादा कुछ नहीं कहूंगा. आप अधीक्षक से इस बारे में बात कीजिए."

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हम जब अधिक्षक सर से मिलने गए तो पता चला वो पांच दिनों की छुट्टी पर गए हैं.

हमने एन.एम.सी.एच (NMCH) के अधीक्षक डॉ विनोद कुमार सिंह से भी इस बारे में पूछा कि आप इस सर्वे के बारे में क्या कहते हैं उनका साफ़ कहना है कि वो इस रिपोर्ट को नही मानते हैं. उनका कहना है कि

"हमारे यहां 600 बेड है जो रोज भरा रहता है. मरीज के परिजनों के बहुत कहने पर हमें उनका इलाज बेड के नीचे भी करना पड़ता है. लोग सरकारी अस्पताल में इलाज तो करवाते हैं लेकिन जब कोई पूछता है तो कह देते हैं कि प्राइवेट में दिखाए हैं. लोग इसे अपनी प्रतिष्ठा से जोड़कर देखते हैं. लोगों की मानसिकता धीरे-धीरे बदलेगी."

कैग की रिपोर्ट में कहा गया है कि बिहार के जिला स्तर की स्वास्थ्य प्रणाली बदहाल स्थिति में है.नियन्त्रक एवं महालेखापरीक्षक(CAG) ने बिहार के जिला स्तरीय स्वास्थय प्रणाली का मूल्यांकन मार्च महीने में जारी किया था. कैग की रिपोर्ट ने बिहार के पांच जिलों पटना, हाजीपुर, बिहारशरीफ, जहानाबाद और मधेपुरा के जिला स्तरीय अस्पतालों का निरिक्षण किया गया है. अपनी सैंपल रिपोर्ट में कैग ने पांच जिलों के अस्पतालों में इमरजेंसी में ऑपरेशन के लिए ओटी(OTs), आई.सी.यू.(ICU) और सबसे जरूरी ब्लड बैंक की मौजूदगी की जांच की तो पाया गया कि यहां ये सुविधाएँ मौजूद नहीं हैं.

90% जिला स्तरीय अस्पतालों में बेडों की समस्या पाई गयीं हैं और यहां मरीजों को डॉक्टर द्वार लिखी गयी 60 प्रतिशत दवाइयां बाहर से खरीद कर लानी पड़ती हैं. मरीजों के लिए यहां मुश्किल से ही डायग्नोस्टिक सेवा मौजूद है.

पांच जिलों के इन जिलास्तरीय अस्पतालों में 60 प्रतिशत डॉक्टरों की कमी, 80 प्रतिशत दवाईयों की कमी, 74 से 92 प्रतिशत तक चिकित्सीय सहायकों की कमी रही हैं. पांच जिलों  के जिला स्तरीय अस्पतालों के जांच में पाया गया कि केवल जहानाबाद के प्राथमिक स्वाथ्य केंद्र में एक अर्ध-संचालित आई.सी.यू.(ICU) है जिसमें  केवल पांच बेड मौजूद है और वहां दवाईयों की कमी के साथ-साथ बहुत सारी कमियां पाई गई हैं.

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NMCH में बख्तियारपुर से आए अमित बताते हैं कि

"यहां लगभग सारी दवाइयां बाहर से ही लानी पड़ती हैं. जांच करवाने के लिए भी हमें प्राइवेट जांच घर में ही जाना पड़ता है."

कैग ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है-

"साल 2011 की जनगणना के अनुसार पटना की जनसंख्या 58 लाख से ज्यादा होगी जिसके लिए जिलास्तरीय अस्पतालों में 1280 बेडों की आवश्यकता है. लेकिन इंडियन पब्लिक हेल्थ स्टैंडर्ड्स के रिपोर्ट्स के अनुसार केवल 100 बेड मौजूद है जो 92 प्रतिशत कम हैं."

बिहारशरीफ के जिला अस्पताल में सबसे ज्यादा 300 बेड मरीजों के लिए उपलब्ध है लेकिन यह भी पर्याप्त नही है. हाजीपुर में 84 प्रतिशत और मधेपुरा में 79 प्रतिशत तक बेडों की कमी हैं.

बिहार के सरकारी अस्पतालों में 67 से 74 प्रतिशत तक डायग्नोस्टिक सेवाओं की कमी हैं. जिसके कारण गरीब और मजबूर लोगों कों मज़बूरी में प्राइवेट संस्थानों में जांच करवाना पड़ता है.

कैग ने बिहार के स्वास्थ्य विभाग के प्रधान सचिव को दोषी ठहराते हुए कहा कि  

"बिहार के जिला स्तरीय अस्पतालों और माध्यमिक स्तरीय स्वास्थय सेवाओं कि निगरानी करना तथा हेल्थकेयर प्रणाली का प्रबंधन करना प्रधान सचिव(स्वास्थ्य विभाग) की जिम्मेदारी है"