NFHS-5 रिपोर्ट: क्या बिहार कुपोषण मुक्त हो पाया है?

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पल्लवी कुमारी
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प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बच्चों में कुपोषण के दर को कम करने के उद्देश्य से 8 मार्च, 2018 को राजस्थान से पोषण अभियान की शुरूआत की थी. इस पोषण अभियान के तहत सरकार ने 2022 तक भारत को कुपोषण मुक्त करने का लक्ष्य रखा था. इस कार्यक्रम का उद्देश्य 2022 तक बच्चों में स्टंटिंग (आयु के अनुपात में छोटा कद) को 38.4 प्रतिशत से घटाकर 25 प्रतिशत करना था. लेकिन NFHS-5 के आंकड़ों के अनुसार देश में अभी स्टंटिंग के 36%, वेस्टिंग के 19% और अंडरवेट के 32% मामले पाए गए हैं.

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मोदी सरकार से पहले भी देश में कुपोषण जैसी समस्या को दूर करने के लिए भारत सरकार ने कुपोषण की उच्च दर जैसी समस्याओं से निपटने के लिए कई योजनाएं शुरू की थीं. 1975 में शुरू की गई एकीकृत बाल विकास योजना, 1993 में शुरू की गई राष्ट्रीय पोषण नीति, 1995 में शुरू की गई मध्याह्न भोजन योजना और 2013 में शुरू राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन योजना आदि भी इसका ही एक भाग है. 

लेकिन यह विडंबना ही है की आजादी के 75 सालों बाद भी देश में गरीब समुदाय के बच्चे और महिलाएं पोषण से वंचित हैं.

1992 से, मुंबई स्थित अंतर्राष्ट्रीय जनसंख्या विज्ञान संस्थान (IIPS) भारत सरकार के स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय, के लिए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS) आयोजित कर रहा है. 2019-21 में जारी NFHS की यह रिपोर्ट, इस कड़ी की पांचवीं श्रृंखला है. इस रिपोर्ट के द्वारा देश के 28 राज्यों, आठ केंद्र शासित प्रदेशों और भारत के 707 जिलों के जनसंख्या, स्वास्थ्य और पोषण के बारे में जानकारी प्रदान करता है.

NFHS-5 अपनी रिपोर्ट में जनसंख्या, प्रजनन क्षमता, परिवार नियोजन, शिशु और बाल मृत्यु दर, मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य, घरेलू हिंसा और विकलांगता जैसे संकेतकों पर जिला-स्तरीय डेटा प्रस्तुत करता है.

9 जुलाई, 2019 से 2 फरवरी, 2020 के बीच तैयार किये गए इस रिपोर्ट में बिहार के 38 जिलों के 35,834 घरों, 42,483 महिलाओं (15-49 वर्ष की आयु) और 4,897 पुरुषों (15-54 वर्ष की आयु) को शामिल किया गया. भारत सरकार द्वारा 28 राज्यों में कराए गए इस सर्वेक्षण के नतीजे बताते हैं कि देश में  कुपोषण के मामले लगातार बढ़ रहे हैं. महिलाओं में एनीमिया की शिकायत आम है और बच्चे कुपोषित पैदा हो रहे हैं.

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नवजात मृत्यु दर में आई है गिरावट

नवजात मृत्यु दर प्रति 1,000 जीवित जन्मों पर पहले 28 दिन की अवधि के दौरान बच्चों की मौतों की संख्या की ओर इशारा करती है.

वर्ष 2030 तक नवजात शिशुओं और 5 वर्ष से कम आयु के बच्‍चों में असामान्य मौतें कम करना सभी देशों का उद्देश्य है. नवजात शिशु मृत्‍यु दर को घटाकर प्रति 1,000 जीवित जन्मों पर कम-से-कम 12 करना और 5 वर्ष से कम आयु के बच्‍चों में मृत्यु दर को घटाकर प्रति  1,000 जीवित जन्मों पर कम-से-कम 25 करना है.

राज्य में, शिशु मृत्यु दर प्रति 1,000 जीवित जन्मों के लिए 47 मृत्यु (एक वर्ष की आयु से पहले) थी, जो NFHS-4 (प्रति 1,000 जीवित जन्मों पर 48 मृत्यु) के लगभग समान थी. हालांकि NFHS-3 से NFHS-5 तक इसमें 15 अंक की गिरावट दर्ज की गई है. वहीं ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में इसमें केवल 4 अंको का अंतर दर्ज किया गया है. शहरों में जहां यह 43 प्रति 1,000 जीवित जन्म है वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में यह 47 प्रति 1,000 जीवित जन्म है.

किशोर माताओं (20 वर्ष से कम आयु) के लिए शिशु मृत्यु दर 64 प्रति 1,000 जीवित जन्म थी, जबकि 20-29 वर्ष की माताओं के लिए 42 प्रति 1,000 जीवित जन्म और 30-39 वर्ष की आयु की माताओं के लिए प्रति 1,000 जीवित जन्मों पर 49 थी.

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चार वर्षों में संस्थागत प्रसव में वृद्धि

जननी सुरक्षा योजना के तहत बिहार में उन महिलाओं का, जिन्होंने पहले के पांच वर्षों में प्रसव के दौरान जीवित बच्चों को जन्म दिया है, उचित पोषण और सही देखभाल देने के उद्देश्य से साल 2005 से जननी सुरक्षा अभियान चलाया जा रहा है.

इस योजना का उद्देश्य ही गरीब गर्भवती महिलाओं को पंजीकृत स्वास्थ्य संस्थाओं में प्रसव के लिये प्रोत्साहित करना है. जब वे जन्म देने के लिये किसी अस्पताल में पंजीकरण कराते हैं, तो गर्भवती महिलाओं को प्रसव के लिये भुगतान करने के लिए और एक प्रोत्साहन प्रदान करने के लिए नकद सहायता भी दिया जाता है.

लेकिन इस योजना का लाभ केवल 42% महिलाओं को ही मिल पा रहा है. शेष 58 फीसदी गरीब महिलाएं अभी भी इसका लाभ से दूर हैं. हालांकि शहरी महिलाओं (25%) की तुलना में ग्रामीण महिलाओं (45%) के बीच इस योजना की पहुंच ज्यादा है.

वहीं जननी सुरक्षा योजना (JSY) के तहत अनुसूचित जाति की 49% महिला, अन्य पिछड़ा वर्ग की 42% महिला. अनुसूचित जनजाति की 39% महिलाओं को इसका लाभ मिला है.

साथ ही ऐसी महिलाएं जो अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति या अन्य पिछड़े वर्ग से संबंध नहीं रखती हैं, 31% महिलाओं को इसका लाभ मिल पा रहा है.

NFHS-5 की रिपोर्ट के अनुसार बिहार में संस्थागत प्रसव दर चार वर्षों में 64 से बढ़कर 76% हो गई है. गर्भवती महिलाओं को प्रसव के लिए स्वास्थ्य केंद्रों या अस्पतालों तक ले जाने के लिए एंबुलेंस की मुफ्त व्यवस्था की गई है. सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों में प्रसव के बाद महिलाओं को 1400 रुपये बतौर प्रोत्साहन राशि दी जाती है तथा संस्थागत प्रसव को बढ़ावा देने के उद्देश्य से उन्हें स्वास्थ्य केंद्र लाने वाली आशा दीदी को भी 600 रुपये दिए जाते हैं.

वहीं सबसे ज्यादा संस्थागत प्रसव मुंगेर 92% में और सबसे कम किशनगंज 55% दर्ज किया गया है. राजधानी पटना में 89% महिलाओं का संस्थागत प्रसव कराया गया है.

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नहीं घट रहा कुपोषण

दुनियाभर में पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मौत का मुख्य कारण कुपोषण को माना गया है. शोध अध्ययनों से परिलक्षित होता है कि समुचित पोषण का अभाव बच्चों की रोग प्रतिरोधक क्षमता को कमजोर कर देता है, जिससे ऐसे बच्चे विभिन्न संक्रामक रोगों की चपेट में जल्द आ जाते हैं.

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5) वर्ष 2019-20 के आंकड़ों के अनुसार बीते पांच वर्षों में देश के अधिकांश राज्यों में पांच साल से कम उम्र के बच्चों में कुपोषण के मामले बढ़े हैं. विशेषज्ञों के अनुसार जन्म के बाद छह माह तक केवल मां का दूध और छह माह के बाद मां के दूध के अलावा ऊपरी आहार बच्चों के लिए जरूरी है. लेकिन बहुत कम ही बच्चों को सही व पर्याप्त मात्रा में ऊपरी आहार मिल पाता है और वे अंतत: कुपोषण के शिकार हो जाते हैं.

NFHS-5 के रिपोर्ट के अनुसार राज्य में 6 माह से पांच साल के 69.4% बच्चे कुपोषण का शिकार हैं.

बिहार में बच्चों में कुपोषण आज भी एक बड़ी समस्या है. NFHS-4 रिपोर्ट में बिहार में 48% बच्चे उम्र के अनुसार कम लम्बाई (स्टंटिंग) के शिकार थे, लेकिन NFHS-5 रिपोर्ट में इसमें पांच प्रतिशत की कमी दर्ज की गई, जिसके साथ अब यह 43% हो गई है.

वहीं उम्र के अनुसार कम वजन के शिकार बच्चों का प्रतिशत भी 44% से घटकर 41% हो गया है. हालांकि, इसी अवधि में लम्बाई के अनुसार कम वजन में वृद्धि दर्ज की गई है. NFHS-4 में यह 21% था जो NFHS-5 के समय बढ़कर 23% हो गया.

उम्र के अनुसार कम लम्बाई के सबसे ज्यादा मामले सीतामढ़ी (54.2%) और सबसे कम मामले गोपालगंज जिले (34.2%) में दर्ज किए गए. लम्बाई के अनुसार कम वजन का सबसे कम मामला पश्चिम चंपारण (13.2%) और सबसे ज्यादा मामला अरवल (36.8%) में दर्ज किया गया. वहीं उम्र के अनुसार कम वजन का सबसे ज्यादा मामला अरवल (52.8%) और सबसे कम मामला गोपालगंज (29.2%) दर्ज किया गया.

राज्य के 23 फीसद बच्चों का वजन उनकी आयु तथा लंबाई के अनुसार नहीं बढ़ पाता है. वहीं राजधानी पटना के छः माह से पांच वर्ष तक के 65.4% बच्चे कुपोषण का दंश झेल रहे हैं. स्टंटिंग, वेस्टिंग और कम वजन (अंडरवेट) बच्चों में कुपोषण के सबसे अहम कारको में आते हैं  और यह अभी भी राज्य में उच्च स्तर पर बना हुआ है.

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महिलाओं में खून की कमी

छोटे बच्चों में कुपोषण का एक बड़ा कारण मां का कुपोषित होना भी है. बच्चों को स्तनपान कराने वाली मां का स्वस्थ व पूर्ण पोषित होना जरूरी है. किंतु, NFHS-5 के आंकड़ों के अनुसार राज्य में बच्चों के साथ ही गर्भवती महिलाओं में भी खून की कमी जैसी गंभीर समस्याएं बढ़ रहीं हैं.

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 के अनुसार राज्य में 63.1 फीसदी गर्भवती महिलाएं एवं 69.4 फीसदी बच्चे कुपोषण से जूझ रही हैं. वहीं इसी आयु वर्ग की 63.6 फीसदी सामान्य महिलाएं कुपोषित हैं.

गर्भावस्था के दौरान गर्भवती महिलाओं पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है जिससे स्वस्थ और पोषित बच्चों का जन्म हो सकें. NFHS-5 के आंकड़ों के मुताबिक बिहार में छह माह से चार साल नौ महीने तक के 69 प्रतिशत बच्चों में खून की कमी है, जबकि 15 से 49 साल की 63.5 फीसद महिलाएं एनीमिक हैं. वहीं इसी आयुवर्ग की गर्भवती महिलाओं में यह आंकड़ा बढक़र 63 प्रतिशत हो गया है. जबकि 15 से 19 साल की 66 फ़ीसदी लड़कियां एनिमियां की शिकार हैं.

पटना जिले की 15 से 49 आयुवर्ग की 63.7% गर्भवती महिलाएं कुपोषण की शिकार हैं. जबकि इसी आयु वर्ग की 63.6 फीसदी सामान्य महिलाएं कुपोषण का शिकार हैं. जबकि यही आंकड़ा  2015-16 में गर्भवती महिलाओं में 40.7 फ़ीसदी और सामान्य महिलाओं में 58 फीसद था.

डॉक्टरों के अनुसार एनीमिया की समस्या को आयरन तथा विटामिन बी-9 व बी-12 की गोलियों के सेवन से कम किया जा सकता है. देश में एनीमिया के आधे मामलों की वजह आयरन तथा विटामिन बी-9 व बी-12 की गोलियों का सेवन नहीं करने या अपर्याप्त सेवन करने के कारण है. हालांकि गर्भावस्था के दौरान आयरन की गोली खाने वाली महिलाओं की संख्या में आठ फीसद की वृद्धि हुई है.

प्रजनन दर में आई है कमी

बिहार में कुल प्रजनन दर (टीएफआर) प्रति महिला तीन बच्चे की थी. NFHS-4 में दर्ज प्रति महिला 3.4 बच्चों की तुलना में 0.4 अंक की कमी दर्ज की गई है. शहरी क्षेत्रों में प्रजनन दर 2.4 बच्चे प्रति महिला थी, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में यह 3.1 बच्चे प्रति महिला थी.

ग्रामीण इलाकों (55 फीसदी) की तुलना में शहरी क्षेत्रों (62 फीसदी) में अधिक विवाहित महिलाएं गर्भनिरोधक का इस्तेमाल करने लगी हैं. वर्तमान में विवाहित महिलाओं में, 95% गर्भनिरोधक गोलियों के बारे में जागरूक थीं और केवल 19% महिला कंडोम के बारे में जागरूक थीं. 15-49 आयु वर्ग के आधे पुरुषों का मानना ​​था कि गर्भनिरोधक का उपयोग करना महिलाओं की जिम्मेदारी है. परिवार नियोजन का भार अभी भी महिलाओं पर ज़्यादा है.

राज्य में, 92% पुरुषों और लगभग 76% महिलाओं (15-49 वर्ष की आयु) ने एचआईवी/एड्स के बारे में सुना था, लेकिन केवल 10.3% महिलाओं और 25% पुरुषों को ही इसके बारे में ज्यादा जानकारी मौजूद था.

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