सरकारी स्कूल के बच्चों को अभी तक नहीं मिली किताब, बच्चों की पढ़ाई हुई बर्बाद

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प्रारंभिक शिक्षा में बच्चों के लिए सबसे अधिक ज़रूरी है कक्षाएं, शिक्षक और किताबें. बिहार के सरकारी स्कूल में शिक्षकों और कक्षाओं की कितनी कमी है ये डेमोक्रेटिक चरखा अपनी रिपोर्ट्स में हमेशा दिखाता है. ख़ास तौर से ग्रामीण इलाकों में मौजूद स्कूल में ये कमी अक्सर देखने को मिल जाती है. लेकिन पिछले कुछ सालों से बिहार में बच्चों को किताबें भी नहीं मिल रही हैं. बिहार में नया शैक्षणिक वर्ष 1 अप्रैल से शुरू हो चुका है. शिक्षा का अधिकार कानून के तहत प्रारंभिक स्कूल के बच्चों को निशुल्क किताबें शिक्षा विभाग को मुहैय्या करवाना है. पहले ये किताबें बच्चों को सीधा उनके स्कूल में दी जाती थी. लेकिन साल 2018 से किताब की बजाये बच्चों के खाते में किताब के लिए सरकार द्वारा पैसे भेजे जाने लगे. इन राशि से बच्चों को अपनी किताबें बाज़ार से खरीदनी होती है. लेकिन जब से किताबों की बजाये विभाग द्वारा बच्चों को राशि प्रदान की जा रही है इसमें कई सारी खामियां नज़र आ रही हैं.

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इन राशि को बच्चों के खाते में देने का मकसद ये था कि बिना किसी विलंब के बच्चों को किताबें मिल सकें और उनकी पढ़ाई में किसी तरह की कोई बाधा ना आए. लेकिन इस राशि को बच्चों तक पहुंचने में इतना समय लग रहा है जिसकी वजह से बच्चों की पढ़ाई रुक जा रही है. महीने के 20 दिन बीत जाने के बाद भी बच्चों को उनकी किताबों की राशि नहीं मिली है. 12 अप्रैल को किताबों की राशि मुहैया कराने के लिए शिक्षा विभाग ने बैठक की और उसमें 520 करोड़ रूपए की राशि को स्वीकृति दे दी. लेकिन ये राशि बच्चों तक पहुंचने में कम से कम 2 से 3 महीने का समय लगेगा. पिछले सत्र में भी बच्चों को उनकी किताब की राशि अगस्त महीने के आखिर में मिली थी. किताबों के वितरण में भी हमेशा लगभग इतना ही समय लग जाता था. साल 2018 से पहले किताबों के वितरण में सितंबर से नवंबर तक का समय लगता था.

इसके साथ जो दूसरी सबसे बड़ी समस्या देखी जा रही है वो है कि बच्चों को किताब के राशि तो दी जा रही है लेकिन उस पैसे से किताबें ख़रीदी नहीं जा रही है. शिक्षा विभाग के आंकड़ों के अनुसार साल 2018 में 13%, साल 2019 में 19%, साल 2020 में 11% किताबों की बिक्री हुई है. साल 2018-19 में 264.29  करोड़, साल 2019-20 में 500.36 करोड़ और साल 2020-21 में 378.64 करोड़ रूपए बच्चों के खाते में किताब के लिए भेजे गए. लेकिन किताबों की बिक्री नहीं हुई. यानी बच्चों को मिले पैसे से उनकी शिक्षा की सबसे बुनियादी चीज़ बच्चों के मां-बाप ही नहीं खरीद रहे हैं.

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आवंटित राशि के मुकाबले किताबों की ख़रीद काफ़ी कम है

सामग्री की जगह राशि भेजने के बारे में सामाजिक कार्यकर्ता प्रभाकर बताते हैं

कभी भी किसी भी सामग्री के बदले राशि देना गलत नियम है. इस वजह से उस राशि का सही जगह इस्तेमाल नहीं हो पाता है. इसका विरोध बिहार की सिविल सोसाइटी में काफ़ी पहले से किया है. लॉकडाउन में सरकार को मौका मिल गया इस नियम को पुख्ता तरीके से लागू करने का. इस मामले में दोष परिवार वालों का भी नहीं है. सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले सभी बच्चे अत्यंत गरीब परिवार से आते हैं. इस वजह से उनके पास अगर कुछ पैसे मिलते हैं तो उनके घर वालों की प्राथमिकता पहले भूख मिटाना होता है. इस वजह से बच्चों तक उनकी किताबें नहीं पहुंच पा रही हैं.


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बिहार में इस साल प्रारंभिक स्कूल में नामांकित बच्चों की संख्या डेढ़ करोड़ है और ये परेशानी सभी बच्चों के साथ है. इस मामले पर और जानकारी इकठ्ठा करने के लिए डेमोक्रेटिक चरखा की टीम ने शिक्षा विभाग के अपर मुख्य सचिव संजय कुमार से बातचीत की. उन्होंने बताया कि

ऐसा नहीं है कि पैसों की कोई समस्या है. राशि स्वीकृत भी हो चुकी है. इस माह प्रारंभिक स्कूल में नामांकित सभी बच्चों को किताब के पैसे मिल जायेंगे.

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बिहार में शिक्षा की लचर व्यवस्था का परिणाम आने वाली पीढ़ियों में देखने को मिलेगा. इस पर बात करते हुए शिक्षाविद् प्रो. नवल किशोर चौधरी बताते हैं-

सरकार की नीतियां कभी बच्चों की पढ़ाई को आगे बढ़ाने में रही ही नहीं. इसका खामियाज़ा सिर्फ़ समाज के सबसे नीचले तबके के लोगों को होता है. पढ़ाई की एक मात्र ऐसा रास्ता है जिसके ज़रिये वो अपने आने वाली पीढ़ियों का भविष्य बदल सकते हैं और इसी के लिए सरकारी स्कूल को बनाया गया. लेकिन पिछले 20-25 सालों में सरकारी स्कूल की पूरी व्यवस्था को ही ध्वस्त कर दिया गया है.

सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे किताबों की कमी की वजह से अपनी पढ़ाई नहीं कर पा रहे हैं. ऐसे में इस साल उनके पास कब किताबें पहुंचेगी ये सोचनीय है.