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बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कोरोना की दूसरी लहर में ये बार-बार बता रहे हैं कि कोरोना से निपटने के लिए उनकी तैयारी मुक्कमल है. लेकिन इस दावे में कितना दम है? इस सवाल के जवाब को जानने के लिए हम पटना के अलग-अलग सरकारी स्वास्थ्य संस्थाओं में गए और वहां जो स्थिति थी वो इस दावे के बिल्कुल उल्ट थी.
भारत में स्वास्थ्य सेवाओं के लिए जो मूलभूत संरचना मौजूद है वो है प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (PHC) और शहरों के लिए शहरी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (UPHC). कोरोना की जांच से लेकर कोरोना वैक्सीन तक का काम इन PHCs और UPHCs में किया जा रहा है. बिहार के स्वास्थ्य बजट में इस बार 13,264 (तेरह हज़ार दो सौ चौसठ करोड़) रूपए ख़र्च किये जा रहे हैं. ये राशि पिछले साल से 21.28% अधिक है. पटना मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल (PMCH) को विश्वस्तरीय बनाने के लिए 5540.07 (पांच हज़ार पांच सौ चालीस) करोड़ रूपए ख़र्च हो रहे हैं. बिहार की राजधानी पटना में पूरे बिहार के स्वास्थ्य बजट का 45% हिस्सा ख़र्च किया जा रहा है. बिहार में हर UPHC में 1,30,000 (1 लाख 30 हज़ार रूपए) ख़र्च किया जाते हैं. जिसमें सरकारी नियमवाली के अनुसार
- UPHC में OPD यानी मरीज़ों को देखने का समय सुबह 8 बजे से लेकर दोपहर 12 बजे तक और शाम 4 बजे से लेकर रात 8 बजे तक है.
- मरीज़ों को देखने के लिए 100 स्क्वायर फ़ीट का एक कमरा, दवाइयों के डिस्ट्रीब्यूशन और स्टोर करने के लिए 120 स्क्वायर फ़ीट का एक कमरा, टीकाकरण और परिवार नियोजन के लिए 120 स्क्वायर फ़ीट का एक कमरा, मरीज़ों के इंतज़ार करने के लिए 300 स्क्वायर फ़ीट की जगह, महिलाओं और पुरुषों के लिए अलग-अलग शौचालय और रिकॉर्ड रूम के लिए 120 स्क्वायर फ़ीट का एक कमरा होना चाहिए.
- एक मेडिकल ऑफिसर जो 8 घंटे की ड्यूटी के लिए मौजूद हो, एक मेडिकल ऑफिसर 4 घंटे की ड्यूटी के लिए, 2 नर्स स्टाफ़ जो 8 घंटे की ड्यूटी करें और 1 स्टाफ़ अलग-अलग कार्यों के लिए मौजूद होना चाहिए.
लेकिन इन सरकारी नियमावली की धज्जियां बिहार की राजधानी पटना में उड़ती दिख रही हैं.
सबसे पहले हमलोग पटना के पूर्वी लोहानीपुर इलाके के UPHC में पहुंचे. उस UPHC की बिल्डिंग में कुछ लोग ऊपर रहते भी हैं और एक लोकल न्यूज़ पोर्टल का कार्यलय भी उसी बिल्डिंग में मौजूद है. 10 बजे तक पूरी लोहानीपुर UPHC खुला ही नहीं था. वहां पर लोगों से बात करने पर उन्होंने बताया कि पूर्वी लोहानीपुर UPHC 12 बजे के आस-पास खुलता है.
वहां पर बाहर में एक नोटिस भी टंगा हुआ था जिसमें ये लिखा हुआ था कि वैक्सीन का स्टॉक ख़त्म हो चुका है. कुछ लोग जो वैक्सीन लेने के लिए पहुंच रहे थे वो नोटिस देखकर वापस जाने लगें. वहां ताला नहीं खुलने के कारण ये पता ही नहीं चल सका कि ये UPCH कितना बड़ा है और वहां कितने डॉक्टर और स्टाफ़ मौजूद हैं.
उसके बाद हमारी टीम पटना के राजनैतिक गढ़ में पहुंची. पटना के आर-ब्लॉक के इलाके में अधिकांश राजनैतिक दलों के मुख्यालय हैं. वहां अक्सर प्रदेश के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपनी पार्टी जदयू के कार्यलय में आते रहते हैं. जदयू के कार्यलय से लगभग 300 मीटर की दूरी पर पटना की सबसे बड़ी बस्ती कमला नेहरू नगर है. वहां लगभग 14 हज़ार से लेकर 15 हज़ार की आबादी रहती है. कमला नेहरू नगर का UPHC एक संकरी गली में है जहां मोटरसाइकिल भी मुश्किल से जाए.
लेकिन UPHC की गाइडलाइन्स में ये साफ़ तौर से कहा गया है कि UPHC ऐसी जगह पर होना चाहिए जहां से आने-जाने में कोई कठिनाई ना हो लेकिन कमला नेहरू नगर में ऐसा बिल्कुल भी नहीं था. जब हमारी टीम अन्दर गयी तो ये पता चला कि डॉक्टर अभी तक आये ही नहीं हैं. वहां के गार्ड ने हमें बताया कि डॉक्टर 11:30 बजे तक आते हैं. हालांकि हमारे 12 बजे तक इंतज़ार करने पर भी डॉक्टर का कोई पता नहीं था. वहां पर सिर्फ़ 3 छोटे-छोटे से कमरे थे. जहां 4 आदमी के खड़े होने की भी जगह मौजूद नहीं थी.
इस UPHC पर पटना की सबसे बड़ी बस्ती के इलाज और टीकाकरण की ज़िम्मेदारी है. वहां पर स्टाफ़ के नाम पर सिर्फ़ 2 नर्स और 1 गार्ड मौजूद हैं. वहां की नर्स ने बताया कि उनकी बहाली 2 महीने पहले फ़रवरी के महीने में हुई है. फ़रवरी से पहले वहां पर कोई डॉक्टर भी मौजूद नहीं थे. अभी वहां पर डॉ. शशि भूषन की बहाली है. लेकिन सबसे हैरान करने वाली बात ये थी कि जब कमला नेहरू नगर UPHC में 5 महीने (सितंबर से लेकर जनवरी तक) कोई डॉक्टर मौजूद नहीं थे तब वहां इलाज कौन कर रहा था.
क्योंकि वहां दीवार पर टंगे सरकारी आंकड़ों के अनुसार इन 5 महीनों में सैंकड़ों मरीज़ों का इलाज किया गया है. जब हमारी टीम ने बाकी के स्टाफ़ से मिलना चाहा तो नर्स ने बताया कि डाटा एंट्री ओपरेटर नहीं आ रही हैं. लैब तकनीशियन वहां 12 बजे के आसपास पहुंचे. उन्होंने बताया कि उनकी ड्यूटी करबिगहिया जंक्शन के रेलवे अस्पताल में लगा दी गयी है जहां वो कोरोना जांच कर रहे हैं.
ऐसे में उनके ही ऊपर दो जगहों में कोरोना जांच करने की ज़िम्मेदारी है. लैब तकनीशियन की कमी के कारण उन्हें डबल शिफ्ट काम करना पड़ रहा है. जब हमलोगों ने वहां की उपस्थिति सूची को देखा तो उसमें डॉक्टर के आने और जाने का समय कभी भी लिखा हुआ ही नहीं था. जबकि सरकारी गाइडलाइन्स के मुताबिक उन्हें अपने आने और जाने का समय भी लिखना होता है. कोरोना के कारण सभी सरकारी कार्यालयों से बायो-मेट्रिक सिस्टम को बंद कर दिया गया है.
उसके बाद पटना सचिवालय में मौजूद UPHC में भी वैक्सीन मौजूद नहीं था. वहां पर मौजूद कई सरकारी कार्यालयों में काम करने वाले लोगों ने बताया कि UPHC के प्रतिनिधि उनके ऑफिस में जाकर उन्हें वैक्सीन के लिए आज का समय दिया था अब वो सुबह से लाइन में खड़े हुए हैं लेकिन अभी तक वैक्सीन का कोई पता नहीं है. जब हमलोगों ने अन्दर वैक्सीन के बारे में जानकारी लेनी चाही तो वहां मौजूद डॉ. अलका ने बताया कि उन्होंने वैक्सीन की कमी की जानकारी सिविल सर्जन को दी है. डॉ. अलका ने हमें बताया कि
"कोरोना को लेकर हमलोग काम तो लगातार कर रहे हैं लेकिन जांच की गति धीमी है. पिछले 15-20 दिनों से आरटीपीसीआर जांच (जिससे कोरोना के बारे में पता चलता है) की रिपोर्ट RMRI से आई ही नहीं है."
जब हमलोगों ने उनसे डॉक्टर्स की कमी के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि वो कोरोना से पहले हर दिन 200-300 मरीज़ों का इलाज करती थी. कोरोना में OPD में मरीज़ों की संख्या काफ़ी कम हो गयी है. हालांकि, एक डॉक्टर को एक मरीज़ पर कम से कम 6-8 मिनट देने होते हैं लेकिन डॉक्टर की कमी के कारण एक डॉक्टर को कम से कम 200-300 मरीज़ों का इलाज करना पड़ता है. जब हम लोगों ने डॉक्टर अलका से इस बारे में बात की तो उन्होंने बताया कि
"ये सच है कि हमें ज़्यादा पेशेंट देखने पड़ते हैं लेकिन अब काम करते करते आदत हो चुकी है."
जब इस मामले पर हम लोगों ने पटना की सिविल सर्जन विभा कुमारी सिंह से बातचीत करने के लिए उनके कार्यालय पहुंचे तो पता चला वो वहां मौजूद नहीं हैं. हमलोगों ने उनसे फ़ोन के ज़रिये बातचीत की तो उन्होंने बताया कि वो बिहटा के तरफ़ दौरे पर गयी हैं.
जब हमलोगों ने पूर्वी लोहानीपुर के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र के बंद रहने का कारण सिविल सर्जन विभा कुमारी सिंह से पूछा तो उन्होंने कहा कि आप लोग समय से पहले पहुंचे होंगे, PHC खुलता है. हालांकि हमलोगों ने ये भी बताया कि हमलोग समय पर ही थे और डॉक्टर मौजूद नहीं थे लेकिन सिविल सर्जन ने इसका जवाब नहीं दिया. जब हमलोगों ने आरटीपीसीआर की 15-20 दिन लेट से आ रही रिपोर्ट के बारे में पूछा तो उन्होंने बता कि
"ऐसे भी 20 दिन के बाद कोई रिपोर्ट लेकर क्या ही करेगा. अगर वो पॉजिटिव भी होगा तो नेगिटिव हो चुका होगा."
सरकारी आंकड़ों पर असर नहीं पड़ेगा? सरकारी आंकड़ें तब कैसे बन रहे हैं?
इसपर सिविल सर्जन ने कहा कि
"आप लोग गलत अफ़वाह फैला रहे हैं. डॉक्टर और लैब तकनीशियन भी झूठ बोल रहे हैं. ऐसी कोई बात नहीं है और आपसे हम बाद में बात करेंगे अभी हम जाम में फंसे हुए हैं."
बिहार में डॉक्टर की कमी कोई नया मुद्दा नहीं है. 16 मई 2020 में बिहार सरकार ने पटना हाईकोर्ट में एक शपथ पत्र दिया जिसके अनुसार बिहार में 11645 पदों में से केवल 2877 पदों पर ही बहाली हुई है. यानी 8768 पद अभी भी ख़ाली पड़े हुए हैं. 5674 पद सिर्फ़ ग्रामीण इलाकों में ख़ाली हैं. इसका मतलब ये है कि बिहार सरकार की नज़रों में ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य व्यवस्था दुरुस्त करने की कोई इच्छा ही नहीं है.
सिर्फ़ आंकड़ें ही हैं बल्कि तस्वीरों से भी इस बात की पुष्टि होती है. एक जिला अस्पताल पहुंचने से पहले कोई भी व्यक्ति लोकल लेवल पर भी अपना इलाज करवा सकते हैं. सरकार ने इसके लिए प्राथमिक उप-स्वास्थ्य केंद्र (5 हज़ार की आबादी पर होना चाहिए. साथ ही कम से कम दो मेडिकल स्टाफ़), प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (30 हज़ार की आबादी पर होना चाहिए), सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (80 हज़ार की आबादी पर एक) और इसके बाद जिला अस्पताल आता है. बिहार के बेगूसराय के भगवानपुर प्रखंड के जयरामपुर गांव में एक प्राथमिक उप- स्वास्थ्य केंद्र स्थापित है. प्राथमिक उप-स्वास्थ्य केंद्र हर 5 हज़ार की आबादी पर स्थापित होता है और यहां कम से कम दो मेडिकल स्टाफ़ होने चाहिए. उप-स्वास्थ्य केंद्र के खुलने का समय सुबह 8 बजे से होता है. डॉक्टर को गांव भ्रमण पर भी जाना होता है ताकि गांव वालों का इलाज और स्वच्छता के बारे में बता सकें.
इस प्राथमिक उप-स्वास्थ्य केंद्र में डॉ. दिलीप की नियुक्ति है और यहां मीनाक्षी कुमारी और कुमकुम सिन्हा ए.एन.एम के पद पर नियुक्त हैं. प्राथमिक उप-स्वास्थ्य केंद्र पर डॉक्टर और ए.एन.एम रहना तो दूर की बात हैं यहां पर उप-स्वास्थ्य केंद्र खुलता भी नहीं है. वहां जब हमारे ग्रामीण पत्रकार गुलशन पहुंचें तो उन्हें दरवाज़े पर ताले लटके दिखाई दिए.
उप-स्वास्थ्य केंद्र के परिसर में गाय-भैंस बांधने का सामान, चारा, गाय की नादी और गाय का चारा काटने की मशीन रखी हुई थी. गुलशन ने गांव के लोगों से बात-चीत की और गांव वालों ने बताया कि इस उप-स्वास्थय केंद्र में कभी भी डॉक्टर नहीं आते हैं, ए.एन.एम हफ्ते में एक दिन ही आती हैं.
इस इलाके में 10 किलोमीटर तक कोई दूसरा सरकारी अस्पताल नहीं है. इस वजह से 1 महीने पहले रुखसार खातून अपनी जान गंवा चुकी हैं. रुखसार खातून अपने पिता लाल मोहम्मद के घर अपनी पहली डेलिवरी के लिए आई थी. जब अचानक उनको प्रसव पीड़ा (लेबर पेन) हुई जिसके बाद वो उप-स्वास्थ्य केंद्र पहुंचे. लेकिन डॉक्टर नहीं होने की वजह से उन्हें दूसरे जगह जाना पड़ा और रास्ते में उनकी मौत हो गयी.
जब हमारे ग्रामीण पत्रकार गुलशन ने डॉ. दिलीप से बात की तो उन्होंने कहा कि वो ए.एन.एम से इस बारे में जांच करेंगे और आगे कार्यवाई करेंगे.
अगर बिहार सरकार अपने स्वास्थय व्यवस्था की नियमावली का अच्छे से पालन करती तो आज के समय में कोरोना के दौर में जो हेल्थ फैसिलिटी चरमरा चुकी है उससे बचा जा सकता था.