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रामचरित्र मानस: एक धर्म ग्रन्थ या दलित विरोधी किताब?

बिहार में रामचरितमानस पर दिए गए शिक्षा मंत्री के विवादित बयान पर मचा घमासान थमने का नाम नहीं ले रहा. कुछ लोग शिक्षा मंत्री के बयान को सही ठहरा रहे हैं तो कुछ लोग इस बयान को नफरत फैलाने वाला कह रहे हैं.

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Kunal Kumar Sandilya
Jan 24, 2023 08:36 IST
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बिहार में रामचरितमानस पर दिए गए शिक्षा मंत्री के विवादित बयान पर मचा घमासान थमने का नाम नहीं ले रहा. कुछ लोग शिक्षा मंत्री के बयान को सही ठहरा रहे हैं तो कुछ लोग इस बयान को नफरत फैलाने वाला कह रहे हैं.

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विपक्षी पार्टी भाजपा लगातार प्रोफेसर चंद्रशेखर और उनकी पार्टी आरजेडी को हिंदू विरोधी बता रही है. आइए समझते हैं रामचरितमानस की ये चौपाइयां आखिर विवादित हैं या गैर-विवादित.

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पहले जान लेते हैं शिक्षा मंत्री का पूरा बयान

बिहार के शिक्षा मंत्री प्रोफेसर चंद्रशेखर नालंदा ओपन यूनिवर्सिटी के 15वें दीक्षांत समारोह में छात्रों को संबोधित करते हुए रामचरितमानस और मनुस्मृति पर टिप्पणी की थी.

टिप्पणी में उन्होंने कहा था कि

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"श्रीरामचरितमानस एक नफरत फैलाने वाला और समाज को बांटने वाला ग्रंथ है. इसके अलावा उन्होंने मनुस्मृति पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि समाज की 85% आबादी वाले बड़े तबके के खिलाफ इस ग्रंथ में गालियां दी गई हैं."

शिक्षा मंत्री ने आगे कहा कि

"रामचरितमानस के उत्तरकांड में लिखा है कि नीच जाति के लोग शिक्षा ग्रहण करने के बाद सांप की तरह जहरीले हो जाते हैं. ये नफरत फैलाने वाले ग्रंथ हैं. एक युग में मनुस्मृति, दूसरे युग में रामचरितमानस, तीसरे युग में गुरु गोवलकर का बंच ऑफ थॉट. यह सभी देश व समाज को नफरत में बांटते हैं. नफरत देश को कभी महान नहीं बनाएगी. देश को महान केवल मोहब्बत बनाएगी."

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कुछ चौपाइयों को लेकर खड़े होते हैं विवाद

रामचरितमानस की कुछ चौपाइयां ऐसी हैं जिन्हें लेकर प्रायः विवाद खड़े हो जाते हैं. कुछ लोगों का मानना है कि इन चौपाइयों में समाज को बांटने जैसी बात कही गयी हैं. वहीं कुछ लोगों का मानना है कि इन चौपाइयों को गलत अर्थ में पेश करके कुछ लोग हिंदू धर्म को बदनाम करते हैं. रामचरितमानस की वह चौपाई है जो काफी विवादित मानी जाती है, सुंदरकांड की है- ढोल गंवार शूद्र पशु नारी,सकल ताड़ना के अधिकारी.

इस विषय पर हमने सीपीआई माले से विधायक संदीप सौरभ से बात की, जो हिन्दी साहित्य में अपना पीएचडी भी किया है. उन्होंने बताया कि

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"रामचरितमानस कोई धार्मिक ग्रंथ नहीं है और उसको मनुस्मृति और बंच ऑफ थॉट के श्रेणी में नहीं रखा जाना चाहिए. वह एक शुद्ध लिटरेचर है. दुर्भाग्य की बात है कि नार्थ इंडिया में लोग उसको धार्मिक ग्रंथ और पूजा के सामान के तौर पर देखते हैं लेकिन वह एक महाकाव्य है. हम तो खुद हिंदी साहित्य के छात्र हैं. हिंदी के सिलेबस में हमलोग मानस पढ़ते थे और उसकी आलोचना भी लिखते थे. लाइन के विषय में शिक्षा मंत्री ने कहा है कि दलितों के खिलाफ है वह तो दलितों के खिलाफ है ही. लेकिन हम लोगों को यह देखना पड़ेगा कि रामचरितमानस का वह कहना है या नहीं. किसी दो व्यक्ति के संवाद को पूरे महाकाव्य का उद्देश्य तो नहीं बनाया जा सकता. तो रामचरितमानस का वह उद्देश्य है ऐसा तो हम नहीं मानते. लेकिन यह जरूर है कि तुलसीदास वर्ण व्यवस्था के समर्थक थे. रामचरितमानस तुलसीदास की प्रारंभिक रचनाओं में से एक है. उसके बाद उनकी जो महत्वपूर्ण रचना है जैसे कवितावली जिसमें वह कहते हैं मुझे किसी भी जाति का कहो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता. इससे मालूम पड़ता है कि वह उस वक्त के वर्ण व्यवस्था के पोषक और पंडितों को चुनौती देने वाले रचनाकार भी थे. अपने टाइम में सत्ता से टकराना यह भी उनका चरित्र रहा है.

इस चौपाई को लेकर आरोप लगाने वाले अक्सर कहते हैं कि तुलसीदास जी ने ढोल को, गंवार को, शुद्र को, पशु को और नारी समाज को पीटने और मारने योग्य बताया है.

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 इसका सही अर्थ जानने के लिए हमने आचार्य रमेश झा जी से बात की. उन्होंने बताया कि

"रामचरितमानस की यह चौपाई भगवान श्री राम और समुद्र के बीच हुए संवाद की है. जब प्रभु श्री राम को समुद्र ने लंका जाने के लिए मार्ग नहीं दिया तब उन्होंने क्रोधित होकर समुद्र को सुखाने के लिए धनुष-बाण उठा लिया. यह देखकर समुद्र देव ने क्षमा मांगते हुए उनसे यह चौपाई कही. इसका वास्तविक अर्थ है कि ढोल, गंवार, शुद्र, पशु और नारी को समझाना चाहिए ना कि उस पर क्रोधित होना चाहिए. यहां ताड़ना शब्द का अर्थ है दिशा-निर्देश देना और सही मार्ग दिखाना. कुछ लोग इसका अर्थ पीटना लगाते हैं जो सरासर गलत है. तो पहली बात यहां तुलसीदास जी ने यह चौपाई नहीं कही है बल्कि यह चौपाई प्रभु श्री राम और समुद्र देव के बीच का संवाद है जिसमें समुद्र देव के द्वारा यह चौपाई कही गई है जिसे तुलसीदास जी ने इस ग्रंथ में प्रस्तुत किया है."

रामचरितमानस की दूसरी चौपाई जिसको लेकर सबसे ज्यादा विवाद रहता है- पूजिअ विप्र सील गुन हीना, सूद्र न गुन गन ज्ञान प्रवीणा.

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उक्त चौपाई का जिक्र बिहार के शिक्षा मंत्री प्रोफेसर चंद्रशेखर ने भी किया था जिसके बाद वह विवादों में घिर गए थे.

इस चौपाई का सही अर्थ जानने के लिए हमने संस्कृत के जानकार और कर्मकांडी पंडित अंशु मिश्रा जी से बात की. उन्होंने बताया कि

"लोकमंगल के लिए समन्वय की भावना लेकर आए कवि तुलसीदास जी इस दोहे के माध्यम से कहते हैं कि शील और गुण से हीन ब्राह्मण भी पूजनीय है और गुणों से युक्त और ज्ञान से निपुण शुद्र यानी क्षुद्र भी पूजनीय नहीं है. यहां शुद्र का अर्थ क्षुद्र है यानी श्रेष्ठ आचरण से हीन, निम्न कर्म करने वाला. क्योंकि अगर इस चौपाई को वर्ण के दृष्टिकोण से लिया जाता तो तुलसीदास जी का अपना संप्रदाय रामानंदी वैष्णव था. उसी संप्रदाय के कबीर दास जी और रविदास जी परम पूजनीय एवं वंदनीय संत हैं. इसलिए यह कहना बिल्कुल गलत है कि इसे किसी खास वर्ण या जाति के लिए कहा गया है. यहां पर शूद्र शब्द का अर्थ क्षुद्र है जिसका अर्थ पतीत एवं नीच कर्म करने वाले से है. रही बात विप्र की तो विप्र वही पूजनीय है जो सब प्रकार के गुणों से ऊपर अर्थात इस संसार के गुण एवं माया से शून्य हो चुका है. कहने का अर्थ है जो स्वधर्म करते हुए वैराग्य का पूर्ण आश्रय ले चुका है,केवल वही विप्र पूजनीय है. और जो अपने स्वधर्म, कुलाचार, संध्या को त्याग चुका है वह शूद्र है यानी शूद्र है ऐसा व्यक्ति चाहे श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न ही क्यों ना हुआ हो पूजनीय नहीं माना जाएगा."

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बिहार के शिक्षा मंत्री प्रोफेसर चंद्रशेखर के द्वारा रामचरितमानस की एक और चौपाई पर टिप्पणी की गई जिसे लेकर उन्होंने प्रश्न खड़ा किया और उसे समाज को बांटने वाला बताया था, वह है- अधम जाति में विद्या पाए, भयहु यथा अहि दूध पिलाए'.

इस चौपाई को समझने के लिए हमने धर्मगुरु और भागवत कथा वाचक आचार्य कुमार भास्कर से बात की. उन्होंने हमें बताया कि

 "यह चौपाई रामचरितमानस के उत्तरकांड की है जब गरुड़ देव और काक भुशुण्डी के बीच संवाद होता है. इस संवाद में काक भुशुण्डी जी गुरुड़ जी से कह रहे हैं कि मेरे जैसा पापी विद्या पाकर ऐसा हो गया जैसे दूध पिलाने से सांप. यहां काक भुशुण्डी जी अपने लिए अधम जाति का इस्तेमाल कर रहे हैं और खुद को पापी कह रहे हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि काक भुशुण्डी  जी को श्राप मिला था जिस वजह से वह कौआ बन गए थे. इसलिए यहां अधम किसी जाति को नहीं बताया गया है बल्कि एक श्रापित पक्षी संवाद के दौरान इसे खुद के लिए इस्तेमाल कर रहा है."

पटना के महावीर मंदिर के संस्थापक और पूर्व आईपीएस आचार्य कुणाल किशोर से जब हमने इस विषय पर पूछा तो उन्होंने कहा कि

"अभी मैं अपने सभी कामों को छोड़कर इसी विषय पर लिख रहा हूं. 22 को सेमिनार है आप सभी लोग आइएगा. मैं भी इसी काम में लगा हुआ हूं दिन-रात."

संदीप सौरभ इस पर बीजेपी के एजेंडे के बारे में समझाते हुए कहते हैं

लेकिन गोलवलकर की जो रचना है वह तो बीजेपी के हिंदू-मुस्लिम और दलित विरोधी एजेण्डे पर आधारित है. लेकिन तुलसीदास की रामचरितमानस को उस श्रेणी में रखना ठीक नहीं है. वह एक महाकाव्य है और उसे उसी रूप में देखा जाना चाहिए."

धार्मिक मामलों में अक्सर होते हैं सकारात्मक और नकारात्मक पक्ष

अक्सर यह देखा गया है कि धार्मिक पहलूओं को लोग अपने-अपने तरीके से देखते हैं. कई लोग इसे सकारात्मक भाव से देखते हैं और कई लोग इसे नकारात्मक भाव से.

यह समझना बेहद जरूरी है कि कोई भी धार्मिक ग्रंथ किन परिस्थितियों में और किस समय में लिखे गए हैं. क्या वर्तमान स्थितियों के हिसाब से वे सभी धार्मिक पक्ष अनुकूल हैं?

इस विषय पर हमनें रामविलास प्रसाद से बात की जो अखिल भारतीय धोबी महासंघ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं. हमने उनसे पूछा कि क्या आपको लगता है कि रामचरितमानस एक दलित विरोधी ग्रंथ है. इसका उन्होंने जवाब देते हुए कहा कि

"रामचरितमानस बहुत अच्छी पुस्तक है. उसमें लिखी गई बातों का अनुसरण किया जाना चाहिए. यह ग्रंथ जिसे तुलसीदास जी ने लिखा है वह बहुत हकीकत बात है. उस पर लोगों को अमल करना चाहिए और उसका अनुग्रह करना चाहिए. भगवान राम जो क्षत्रिय थे लेकिन उन्होंने शबरी के जूठे बेर खाए लेकिन आज लोग राष्ट्रपति के मंदिर चले जाने पर मंदिर धो देते हैं. एक तरफ ग्रंथ में तो अच्छी बात लिखी है लेकिन लोग सही तरीके से उस पर अमल नहीं करते. इसलिए सबसे जरूरी है कि इन ग्रंथों पर पहले अमल किया जाए."

बिना इन बातों पर विचार किए किसी भी प्रकार की धार्मिक टीका-टिप्पणी से सामाजिक संतुलन बिगड़ने का खतरा काफी बढ़ जाता है.

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बात चाहे सनातन संस्कृति की हो, इस्लाम की हो अथवा ईसाई धर्म को मानने वाले लोगों की, धर्म को सभी लोग अपने-अपने नजरिए से देखते हैं और उसका पालन करते हैं.

धार्मिक संवेदनशीलता और सद्भावना तब ज्यादा खतरनाक हो जाती है जब इसे राजनीतिक रंग दिया जाने लगता है. खासकर भारत में हमेशा देखा गया है कि समय-समय पर राजनीतिक पार्टियों द्वारा धार्मिक भावनाओं को लेकर टिप्पणी किए जाने से किसी विशेष धर्म को मानने वाले लोगों के मन में काफी पीड़ा होती है और कई बार यह हिंसा का रूप भी ले लेता है.

 ऐसे में यह बेहद जरूरी है कि धर्म और राजनीति, इन दोनों पहलुओं को पृथक नजरिए से देखा जाए ताकि इन दोनों के टकराव से सामाजिक क्लेश उत्पन्न न हो.

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