एक तरफ 2022 तक तीन वर्षों में बिहार सरकार की जल जीवन हरियाली योजना के तहत 24 हजार 524 करोड़ खर्च होंगे। यह बात ग्रामीण विकास मंत्री श्रवण कुमार ने विधान परिषद में जल जीवन हरियाली पर आयोजित वाद विवाद में सरकार की ओर से पक्ष रखा। जल जीवन हरियाली योजना के तहत अतिक्रमण होने वाली नदियों और तालाबों को आजाद कराने की बात भी कही गई है। वहीं दूसरी तरफ जल संसाधन विभाग की रिपोर्ट के मुताबिक 23 जिलों में बह रही 48 नदियों की स्थिति बेहद नाजुक है। इनमें से कई नदियां तो चार-पांच जिलों से बहती हैं। अधिकांश नदियों में तो कई-कई दिनों तक पानी नहीं रहता, जहां है भी तो बेहद कम। उधर, कई नदियों का जलस्तर तेजी से नीचे जा रहा है।
राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित बिहार की धनौती नदी के अस्तित्व पर संकट !
गांधी के मोतिहारी शहर के पश्चिमी भाग से होकर गुजरने वाली धनौती नदी के लिए वर्ष 2020 में राष्ट्रीय जल पुरस्कार के सम्मान से पूर्वी चंपारण को राष्ट्रीय जल शक्ति मंत्रालय के द्वारा सम्मानित किया गया। यह पुरस्कार मुख्य रूप से जल संरक्षण को ले जिले में किए गए कार्यों में चैक डैम का निर्माण, जल-जीवन हरियाली व मनरेगा के तहत किए गए कार्य के लिए थे। लेकिन जमीनी स्तर पर मोतिहारी शहर में धनौती नदी गंदगी से पटी पड़ी है। नदी पर आश्रित मल्लाहों और किसानों की आजीविका पर आफत है, जिसका नतीजा ये कि ज्यादातर लोग पलायन को मजबूर है।
धनौती नदी मोतिहारी की पहचान हुआ करती थी। एक वक्त धनौती नदी से शहर की आधी आबादी को लाभ होता है। 35-40 साल पहले 200 से 250 फुट की धनौती नदी आज शहर में जमीन का टुकड़ा होती जा रही है। कई जगहों पर तो इसकी चौड़ाई महज 10 से 15 फुट ही बची है। मोतिहारी के आम नागरिक नदी पर अतिक्रमण करके घर बनाए जा रहे हैं।
शहर के स्थानीय निवासी बंटी मिश्रा डेमोक्रेटिक चरखा को बताते है।
पश्चिम चंपारण के माधोपुर मन प्रखंड के सामाजिक कार्यकर्ता चांद अली डेमोक्रेटिक चरखा को बताते हैं कि
जहां गांवों में बह रही धनौती नदी पर गरीब तबका खासकर मल्लाह मछली व्यवसाय पर निर्भर था। आज वो लोग रोजगार की तलाश में पंजाब और दिल्ली जा रहें हैं। शहर के लोग मिट्टी भरवा कर घर बनवा रहे हैं इससे धनौती नदी से गांव के लोगों को कोई फायदा नहीं मिल रहा है। कुछ दिनों में गांव के किसानों को पानी का संकट खड़ा हो जाएगा। धनौती के प्रवाह वाधित होने से बारिश के दिनों में आधा मोतिहारी शहर के साथ राघुनाथपुर, तुरकौलिया और बंजरिया प्रखंड के लोगों और मवेशियों को काफी कष्ट होता है।
सुपौल के गजना धार की जमीन पर हैं प्रोपर्टी डीलरों की नजर
गजना धार कभी कोशी की मुख्यधारा में शामिल हुआ करती थी। हालांकि आज कई जगह गजना धार अपने अस्तित्व को लेकर लड़ रही है। कुछ स्थानों पर गजना नदी का स्वरूप आज भी कायम है़, लेकिन विशेष कर स्थानीय सुपौल उच्च माध्यमिक विद्यालय के पश्चिम व उत्तरी भाग में अंधाधुंध हुए निर्माण के कारण नदी का अस्तित्व पूरी तरह संकट में दिख रहा है़। मुख्य सुपौल शहर में नदी का अस्तित्व पूरी तरह संकट में दिख रहा है।
कोसी नवनिर्माण मंच के अध्यक्ष महेंद्र यादव डेमोक्रेटिक चरखा से बताते है।
और पढ़ें- पटना यूनिवर्सिटी में DDE को बंद करना लाखों बच्चों के भविष्य के साथ खेलना है
गजना नदी के धार के दोनों और आम जनमानस भी कचरा फेंकने के अलावा किनारों पर कब्जा जमाने में लगे हैं। गजना धार को अतिक्रमण मुक्त कर अगर उसकी उड़ाही कर दी जाए तो न सिर्फ जलस्रोत का यह बेहतर माध्यम हो सकता है बल्कि बरसात के मौसम में तटबंध के पास सीपेज से आ रहे पानी के निकासी के लिए भी यह काफी उपयोगी साबित हो सकता है। गजना धार की वर्तमान स्थिति को देखकर लगता है कि सरकार के जल स्रोतों को संरक्षित करने का संकल्प अभी अधूरा पड़ा हुआ है।
गजना धार पर अतिक्रमण करने वालों में पक्ष और विपक्ष में शामिल जनप्रतिनिधियों के अलावा कई दबंग और सफेदपोश भी शामिल हैं। बीएसएस कॉलेज के पश्चिमी छोर से लेकर बकौर तक कभी अविरल रूप से बहने वाली गजना धार को पहले लोगों ने नाला में बदल दिया और अब तो जिस तेजी से धार के बीचोंबीच घर बनाए जा रहे हैं जल्द ही यह नाला भी नहीं रह पाएगा।
स्थानीय निवासी बबलू यादव बताते है।
नदी के अतिक्रमण से कतरनी चावल के अस्तित्व पर संकट
चानन नदी के किनारे का इलाका अमरपुर, रजौन, कजरेली, भदरिया के साथ जगदीशपुर इलाका कतरनी चावल के उत्पादन का मुख्य केंद्र रहा है। वैज्ञानिकों के मुताबिक चानन नदी की वजह से ही कतरनी चावल का अस्तित्व है। लेकिन अब हालात यह है कि यहां के लोग भी कतरनी चावल के खीर खाने को तरस रहे हैं।
नदी से लगातार माफिया द्वारा अवैध खनन के बाद चानन नदी का पानी खेतों तक नहीं पहुंच पा रहा है। अब तो शहर के कई जगह लोग नदी की जमीन पर अतिक्रमण करके घर भी बना रहे हैं। जिसमें शहर के कई रइसो का भी हाथ है। इसके बाद नदी जीर्णोद्धार की सारी उम्मीद खत्म हो चुकी है। जिससे बाद असली कतरनी की खुशबू भी लगभग खत्म हो गई है। तभी तो सोनम और महीन चावल में सुगंधित इत्र डालकर कतरनी के नाम पर बेचा जा रहा है।
भादरिया गांव के बुजुर्ग हरिशंकर बाबू बताते हैं।
बीएयू के पौधा प्रजनन विभाग के वैज्ञानिक डॉ. मंकेश कुमार डेमोक्रेटिक चरखा को बताते हैं कि
2015-16 में भागलपुर, बांका व मुंगेर में 968.77 एकड़ में कतरनी का उत्पादन होता था, जो घटकर अब 500-600 एकड़ रह गया है। किसान के कतरनी चावल को छोड़ने की सबसे मुख्य समस्या सिंचाई का है। कतरनी चावल के उत्पादन का मुख्य केंद्र चानन नदी पर निर्भर था, जो धीरे-धीरे अतिक्रमण और खनन की वजह से सूख रही है।
शहरीकरण नदियों के लिए खतरनाक
नदी से जुड़े विशेषज्ञ और लेखक दिनेश कुमार मिश्रा बताते हैं कि
नदियों के जमीन पर घर बनाना भी शहरीकरण का ही उदाहरण है। तटबंध बना कर हमने पहले गलती की। अब नदियों को अधिक्रमित करके कर रहे हैं। पानी अपना रास्ता चाहता था लेकिन हम पानी को बांधना चाहते हैं। नदियों के अविरल बहने से ही उनका अस्तित्व बचा रहेगा।
कोसी नदी पर लगभग 40 साल काम करने वाले इंजीनियर अमोद कुमार झा बताते हैं कि, “कभी पानी से लबालब भरी रहने वाली नदियों का हाल बुरा है। भोजपुर के कुछ इलाकों में गंगा वहीं मिथिलांचल इलाकों में कोसी नदी में भी पानी नहीं दिख रहा। मुंगेर का मोहनी, सुपौल का गजाना और भोजपुर का बनास और सोन नदी अतिक्रमण की वजह से धीरे-धीरे सूख रहा है। इसकी मुख्य वजह छोटी नदियों का सुखना, बन रहा तटबंध और अतिक्रमण। नदी के सुखने से छोटी और बड़ी नदी का जो कनेक्शन या संपर्क था वो टूट गया। हालांकि जल संसाधन विभाग के द्वारा कई छोटी नदियों को पुनर्जीवित करने की कोशिश की जा रही है।”