बच्चों को पढ़ाने के साथ ही खिलाने की व्यवस्था यानि मिड डे मिल, अब बच्चों के साथ ही टीचरों के लिए सिर का दर्द बन रहा है। दरअसल सरकार के एक निर्णय के बाद एक तरफ जहां मिड डे मिल का उपलब्ध कराने वाले टीचर टेंशन में हैं वहीं दूसरी तरफ वैसे बच्चों की संख्या पर भी असर पड़ रहा है, जिनको मिड डे मिल मिलता था।
मिड डे मिल को लेकर सरकार की तरफ से बड़ा बदलाव किया गया है। अब बदली व्यवस्था की तहत अब वेंडर के माध्यम से मिड डे मिल दिया जाएगा जबकि पहले यह जिम्मेदारी संबंधित स्कूल के हेड मास्टर की होती थी। इस व्यवस्था को राज्य के सभी जिलों के स्कूलों में लागू किया गया है। इससे एक तरफ जहां शिक्षकों में रोष है वहीं दूसरी तरफ सरकार मापदंड में खामी होने से बच्चों को मिलने वाली मिड डे मिल पर असर पड़ रहा है।
मिड डे मिल स्कीम देश के 2408 ब्लॉक में एक केंद्र प्रायोजित स्कीम के रूप में 15 अगस्त 1995 में शुरू की गई थी। इस कार्यक्रम को देश के सभी ब्लॉक में 1997-98 में शुरू कर दिया गया था। साल 2003 में इसका विस्तार शिक्षा गारंटी केंद्रों व वैकल्पिक व नवाचारी शिक्षा केंद्रों में पढ़ने वाले बच्चों तक किया गया। अक्तूबर 2007 में इस स्कीम का देश के शैक्षणिक रूप से पिछड़े 3479 ब्लॉक में क्लास छह से आठ तक में पढने वाले बच्चों में विस्तार किया गया तथा साल 2008-09 में यह स्कीम देश के सभी क्षेत्रों में उच्च प्राथमिक स्तर पर पढने वाले सभी बच्चों के लिए कर दिया गया।

मुंगेर जिले के धरहरा ब्लॉक के प्राथमिक स्कूल के एमएच रंजीत शाह कहते हैं,
मिड डे मिल को लेकर एक नहीं बल्कि कई तरह की विसंगतियां हैं। पहले एचएम को मिड डे मिल के लिए पैसे मिल जाते थे। वह अपनी जिम्मेदारी पर बच्चों के मिड डे मिल के लिए सब कुछ व्यवस्था कराता था। अब वेंडर सिस्टम लागू कर दिया गया है। इसमें पैसे का चेक तो एचएम ही देगा लेकिन सामान उसे वेंडर के माध्यम से ही मिलेगा। वेंडर जो सामान देगा, एचएम को लेना अनिवार्य होगा। ऐसे में तो एचएम सामान की गुणवत्ता, कीमत से लेकर मात्रा पर भी सवाल उठाने लायक नहीं रह सकेंगे।
दूसरी बात यह कि अगर बच्चों को बेहतर भोजन नहीं मिला तो सारी जिम्मेदारी एचएम की होगी। यह तर्क संगत नहीं लगता। जब मिड डे मिल की जिम्मेदारी वेंडर को है तो गुणवत्ता व मात्रा भी उसके स्तर से ही तय किए जाने की जरूरत है। इसी जिले के इसी ब्लॉक के एक स्कूल के एचएम नाम न बताने की शर्त पर कहते हैं, दरअसल एचएम चाह के भी अपने स्तर से वेंडर का चयन नहीं कर सकते। वेंडर आला अधिकारी लेवल पर लिस्टेड हैं। उनसे ही सामान लेना होगा और यदि सामान नहीं लेंगे तो अधिकारियों का कोपभाजन बनना होगा। ऐसे में पूरा सिस्टम ही गड़बड़ हो गया है। रंजीत कुमार कहते हैं, हम तो चाहते हैं कि शिक्षकों को मिड डे मिल अनुश्रवण समिति से ही निकाल दिया जाए। हमारा जब मुख्य रोल ही इसमें नहीं है तो हमारी जवाबदेही क्यों तय की जा रही है? हमारा काम शिक्षा देना है, इसके लिए सरकार चाहे हमसे जितना काम करवा ले। वह कहते हैं, कोरोना के दो-दो लहर के कारण पिछले करीब डेढ साल से मिड डे मिल बंद था। जब कोरोना कम हुआ तो यह वेंडर वाली बात सामने आ गई। अब टीचरों के लिए सबसे बडी समस्या यह है कि वह मिड डे मिल के लिए दिमाग लगाए या फिर शैक्षणिक कार्य में लगा रहे।

कोरोना के दौरान भी सरकार द्वारा मिड डे मील का किया जा रहा काम काफी अजीब रहा है। मिड डे मील में बच्चों को स्कूल में भरपेट खाना दिया जाता था। लेकिन जब कोरोना में स्कूल बंद हुए तब मिड डे मील को लेकर परेशानी होने लगी। कई बच्चों का पोषाहार रुक गया। सरकार ने कहा कि ऐसे में वो बच्चों के बैंक खाते में पैसे ट्रांसफर करेंगे ताकि बच्चों का मिड डे मील ना रुके। बिहार सरकार ने पत्र जारी करते हुए कहा था कि कक्षा एक से लेकर पांचवी तक के बच्चों को 114 रूपए और 171 रूपए छठी और सातवीं कक्षा के बच्चों को दिए जायेंगे। पूरे महीने की इस राशि को अगर आप एक दिन में देखेंगे तो आपको पता चलेगा कि बिहार सरकार ने बच्चों को एक दिन का केवल 3.80 रूपए और 5.7 रूपए ही दिया है। यानी सरकार ये सोचती है कि बच्चों को इतने में पेट भर भोजन मिल जाए। इसकी वजह से बिहार में कई बच्चे लॉकडाउन के दौरान खाने से भी वंचित रह गए।
कुछ ऐसी ही घटना बेगूसराय में भी हुई। बेगूसराय के डंडारी में डेमोक्रेटिक चरखा की टीम से एक परिवार मिला। उन्होंने अपनी 13 साल की बच्ची की शादी करवा दी थी। बच्ची की मां आरती देवी बताती हैं
खाने के लिए कुछ भी मौजूद नहीं था। पहले स्कूल खुला रहता था तो कुछ मिड डे मील में बच्चों को मिल जाता था खाने। मेरे पति रिक्शा चलाते हैं। ऐसे में लॉकडाउन के दौरान कुछ नहीं था कि हम बच्चों को खिला पातें। इसलिए हम अपनी बच्ची की शादी करवा दिए। थोड़ा तो घर का बोझ कम होगा।

इसी मार्च माह में मुंगेर जिले के कन्या मध्य विद्यालय अमारी के छात्र-छात्राओं ने मिड डे मिल को लेकर हंगामा भी किया था। तब स्कूल के तीसरी कक्षा के कई छात्रों ने बताया कि मिड डे मिल के तहत शुक्रवार को सब्जी चावल के साथ अंडा देने का मेन्यू है लेकिन खाने में अंडा नहीं दिया गया। छात्र-छात्राओं का यह भी कहना था कि बीते दो माह से विद्यालय में मिलने वाला चावल भी बहुत से छात्र छात्राओं को नहीं दिया गया है। जबकि विद्यालय के एचएम प्रभात कुमार रश्मि का कहना था कि वेंडर द्वारा अंडा नहीं मिलने के कारण छात्र छात्राओं को अंडा नहीं दिया गया।

बिहार प्रदेश टीईटी शिक्षक संघ के प्रदेश अध्यक्ष अमित विक्रम कहते हैं, जब वेंडर से ही मिड डे मिल लेना है तो फिर इसमें सरकार को एचएम को जोडने का कोई मतलब नहीं बनता है। इस प्रक्रिया में कई तरह की विसंगतियां भी हैं। सरकारी सप्लाई की दर अलग है जबकि बाजार में सामान का मूल्य अलग है। ईंधन की दर अलग तय की गई है जबकि बाजार में ईंधन का दर क्या है सब जानते हैं। सामान का भुगतान को सरकारी दर पर ही होगा और सामान भी तब मिलेगा तब पैसा वेंडर को मिलेगा। वह यह भी कहते हैं कि उनके संपर्क में आने वाले कई एचएम दबे स्वर में कमीशन देने की बात को कह चुके हैं। अमित कहते हैं, टीचर के सामने सबसे बड़ी परेशानी यह है कि वह पढ़ाएं, ज्ञान बढ़ाए या फिर ऐसे ही परेशानियों में लगे रहे, तय नहीं कर पा रहे हैं।
मुंगेर के डीपीओ (मिड डे मिल) धनंजय पासवान कहते हैं,
सरकार 63 प्रतिशत स्टूडेंट के अनुपात में आवंटन करती है। कभी –कभी बड़ी संख्या में लोग मिल के लिए एकत्र हो जाते हैं। ऐसे में सबको मिड डे मिल मिले, यह संभव नहीं हो पाता। ऐसी हालात में लोगों को समझाने की पूरी कोशिश की जाती है। अमूमन ऐसा कभी कभी ही होता है।

सरकार को ये समझने की जरूरत में कि जहां एक ओर भारत का हंगर इंडेक्स में लगातार रैंक गिरता जा रहा है उसमें भी अगर मिड डे मील में इस तरह की विसंगतियां होंगी तो इससे बच्चों के स्वास्थ्य पर असर पड़ेगा और कुपोषण की संभावना भी बढ़ेगी।