लुप्त होती सिक्की कला को जीवित करने की चाह में ग्रामीण महिलाएं सक्रिय

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लुप्त होती सिक्की कला को जीवित करने की चाह में ग्रामीण महिलाएं सक्रिय
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आज से कुछ साल पहले तक दूर रहने वाली भाईयों के लिए रखियां महीने और पन्द्रह दिन पहले ही डाक से भेज दिए जाते थे. भाईयों को भी अपने राखियों का बेसब्री से इंतजार रहता था. बहनें भी बाजार जाकर अपने पसंद की राखियां चुनती थी. उसे डाक में भेजने से पहले खुद अपने हाथो से रोली और अक्षत की पुड़िया बनाकर लिफाफे में डालती थी. फिर अपने हाथो से लिखी एक चिठ्ठी भी उस लिफाफे में डालती थी.

लेकिन अब डिजिटल दौर में राखी खरीदने और भेजने का तरीका बदल रहा है. राखी खरीदने के लिए अब कहीं जाना नहीं पड़ता है. कई ऐसी वेबसाइट्स हैं जिन पर राखी, रोली, अक्षत, चॉकलेट, मिठाई, हैप्पी रक्षाबंधन के कार्ड और ढेरों दूसरे तरह के उपहार एक साथ मिल जाते हैं.    

बाज़ार हर त्यौहार को बदलता है, राखी को भी बदल रहा है, ‘हैप्पी रक्षाबंधन’ के कार्ड तो सालों पहले ही दिखने लगे थे. लेकिन अब तरह-तरह के कस्टमाइस्ड गिफ्ट भी बाजार में मिलने लगे हैं. साथ ही कस्टमाइस्ड राखियां भी ऑनलाइन बाजार में खूब खरीदी और बेचीं जा रही हैं. जिसमे भाई और बहन की तस्वीरे लगी होती हैं. बच्चों को लुभाने के लिए तरह तरह के कार्टून कैरेक्टर की राखियां भी बाज़ार में मौजूद हैं.

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लेकिन ये राखियां इको फ्रेंडली नहीं होती हैं. इनमे प्लास्टिक और अन्य तरह के कृत्रिम रंगों का उपयोग किया जाता है. लेकिन आजकल कुछ जागरूक युवा प्रकृति को भी ध्यान में रखते हुए त्योहार मनाना चाहते हैं और ऐसी राखियां पसंद कर रहे हैं जो पर्यावरण के अनुकूल हैं. ऐसी ही राखियां उपेंद्र महारथी शिल्प अनुसंधान केंद्र में कुछ महिलायें बना रही हैं.

संस्थान में सिक्की कला की ट्रेनर शांति देवी बताती है

अभी रक्षाबंधन में 12-13 दिन का समय बचा है तो हम राखियां बना रहे हैं. इसमें हम किसी तरह के प्लास्टिक का प्रयोग नहीं करते हैं. हमलोग सिक्की से बहुत सारी चीज़ें जैसे- डोलची, फूलदान, ट्रे, दिया, दीवार पर टांगने के लिए सजावटी आइटम, सजावटी मोर, तोता, हाथी, घोड़ा, आदि भी बनाते हैं.

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कैसे तैयार होता है सिक्की

सिक्की तैयार करने की प्रक्रिया थोड़ी लंबी होती है. शांति देवी बताती हैं

सिक्की सावा घास से बनता है, जिसकी लंबाई तीन फ़ीट से छह फ़ीट तक होती है. सावा घास की बाहरी कई परतों को हटाने के बाद अंदर से मुलायम सिक्की निकलता है, जिसकी लंबाई दो से तीन फीट होती है. इस सिक्की को कुछ प्रक्रियाओं के बाद मनचाहा रंग और आकार दिया जाता है.

पहली प्रक्रिया है, मुलायम सिक्की को बीचो-बीच चीर देना और धूप में सुखाना. सूखने के बाद  सिक्की को इस्तेमाल के लिए सुरक्षित रख लिया जाता है. जब सिक्की से कोई सामान बनाना होता है, तो उसे सादे पानी में दो बार उबालते हैं. इससे सिक्की मुलायम हो जाता है. फिर सिक्की को रंगा जाता है.

सिक्की को रंगने के लिए पहले हम प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल करते थे. घर पर ही रंग बनाते थे. लेकिन अब सिंथेटिक रंगों का प्रयोग होता है. रंगों को उबलते पानी में बबूल या बेल का गोंद या लस्से के साथ डालकर पक्का किया जाता है और फिर उसमें सिक्की के एक-एक मुट्ठे को बारी-बारी से डाला जाता था. जरूरत के हिसाब से इस प्रक्रिया को दुहराया जाता है. रंगने के बाद सिक्की को ठंडा कर उसे सर्फ के पानी से धोया जाता है, जिससे सिक्की का रंग पक्का हो जाता है और सिक्की में चमक भी आ जाता है.

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शांति देवी के साथ दो छात्राएं सपना और शिल्पी जो बीरभूमि और मधुबनी कि रहने वाली हैं बताती हैं

हम अपने गांव से इतनी दूर पटना सिक्की कला सिखने आए हैं. यहां हॉस्टल में रहकर ये कला सीख रहे हैं. काम सीखने के बाद अपना व्यवसाय शुरू करेंगे. खुद के पैरो पर खड़ा होना हमारा सपना है.

‘इसबार रक्षाबंधन पर अपने भाईयों के हाथ पर अपने हाथ से बनी राखियाँ बांधेंगे’ ये कहते हुए सपना के आँखों में अलग तरह की चमक थी.

उपेंद्र महारथी शिल्प अनुसन्धान केंद्र, पटना में सिक्की कला के द्वारा राखियां तैयार की जा रही हैं. यहां तैयार की गयी राखियां इको फ्रेंडली होने के साथ-साथ विलुप्त होती कला को भी एक नया मंच देने का काम कर रही है. यहां के मीडिया समन्वयक आनंद राज बताते हैं

हमारे यहां विभिन्न कलाओं की ट्रेनिंग दी जाती है. जिसके माध्यम से हम अपनी पुरानी कलाओं को युवाओं के बीच पहुंचा रहे हैं. विभिन्न कलाओं में यहां छह महीने का ट्रेनिंग कोर्स चलाया जाता है. इस कोर्स को करने के बाद छात्र अपना खुद का बिजनेस शुरू करते हैं, या कहीं के साथ जुड़कर काम करते हैं. हम उन्हें बाज़ार भी मुहैया करवाते है.

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शांति देवी आगे बताती हैं

मैं बीरभूमि की रहने वाली हूं. यहां बच्चों को ट्रेनिंग देने आयी हूं. हमारा पूरा परिवार इस काम से जुड़ा हुआ है. मैंने यह कला अपनी मां से सिखा है. हमलोग अपने काम के कारण दिल्ली, कोलकाता और पटना सहित कई जगहों पर गए हैं. अभी मैं यहां छह लड़कियों को सिक्की कला सिखा रही हूं. बहुत अच्छा लगता है जब इन लड़कियों को इस कला में रूचि लेते देखती हूं. मैं ज़्यादा पढ़ी लिखी नहीं हूं, लेकिन आज अपने कला के माध्यम से  अपने साथ-साथ इन बच्चियों के जीवन में बदलाव ला पा रही हूं.  

आज के समय में सिक्की कला लुप्त होने की कगार पर पहुंच गयी है. लेकिन मैथिल भाषी क्षेत्र और ग्रामीण महिलाओं के प्रयास से ये कला आज भी वापस से अपनी पुरानी रौनक में लौट रही है.