इंदिरा गांधी ह्रदय रोग अस्पताल के पीछे बन रहे सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल को बनने में अभी 6 से 7 महीने और लगने की संभावना है. जबकि अस्पताल में इलाज के लिए लगने वाले आधुनिक उपकरण अस्पताल पहुंच गये हैं. सुपर स्पेशलिटी भवन का निर्माण तय समय पर नहीं होने के कारण अब अस्पताल प्रबंधन के सामने इन उपकरणों को रखने की समस्या उत्पन्न हो गयी.
अस्पताल प्रबंधन ने सुरक्षित और पर्याप्त जगह नहीं होने के कारण उपकरण को वापस संबंधित कंपनी को ही भेज दिया.
2019 में सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल का हुआ था शिलान्यास, कार्य अब तक अधूरा
पीएमसीएच (Patna Medical College and Hospital) में करीब 200 करोड़ की लागत से बनने वाला सुपर स्पेशियलिटी अस्पताल का शिलान्यास साल 2019 में किया गया था. इस अस्पताल के निर्माण के लिए 18 महीने का लक्ष्य रखा गया था. लेकिन समय सीमा बीतने के दो सालों बाद भी इस अस्पताल का निर्माण कार्य पूरा नहीं हो सका है.
राज्य में पहली बार केंद्र सरकार की सहायता से अलग सुपर स्पेशियलिटी अस्पताल बनाया जा रहा है. इस अस्पताल में ओपीडी और इंडोर की सुविधा भी होगी. हर विभाग का अपना ओटी (OT) होगा जिसमें छह मेजर और एक माइनर ओटी होगा. आईसीयू में 51 बेड की व्यवस्था होगी. मल्टीलेवल पार्किंग की सुविधा होगी.
प्रधानमंत्री स्वास्थ्य सुरक्षा योजना फेज-4 (पीएमसएसवाई) के तहत बन रहे अस्पताल का शिलान्यास मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और तत्कालीन केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा ने किया था. 200 करोड़ की लागत से बनने वाले इस अस्पताल के लिए केंद्र सरकार 120 करोड़ और राज्य सरकार 80 करोड़ की राशि ख़र्च कर रही है.
211 बेड वाले इस अस्पताल में 8 सुपर स्पेशियलिटी विभाग शुरू किये जाने हैं. इनमें न्यूरोलॉजी, न्यूरो सर्जरी, यूरोलॉजी, यूरो सर्जरी, नेफ्रोलॉजी, इंडोक्राइनोलॉजी, नियोनैटोलॉजी व पेडिएट्रिक सर्जरी, हेमेटोलॉजी, रेडियोथेरेपी, इंडोक्राइन, कार्डियोलॉजी और गैस्ट्रोएंट्रोलॉजी विभाग शामिल हैं.
डॉक्टरों के मुताबिक इन विभागों में सुपर स्पेशियलिटी की सुविधा बहाल हो जाने से राज्य के मरीज़ों को इलाज के लिए बाहर नहीं जाना पड़ेगा. इन सभी विभागों की चिकित्सकीय सुविधा मरीज़ों को एक ही छत के नीचे मिल सकेगा. इसमें सभी आधुनिक उपकरण भी होंगे.
अस्पतालों में है चिकित्सीय उपकरण की कमी
बढ़ती स्वास्थ्य ज़रूरतों को ध्यान में रखकर ही इस नए सुपर स्पेशियलिटी अस्पताल का निर्माण किया जा रहा है. लेकिन तय समय से दो साल की देरी राज्य के बिगड़े स्वास्थ्य व्यवस्था को और बिगाड़ सकता है. वैसी आबादी, जिनकी आय कम है, वो सरकारी अस्पताल के इलाज पर ही निर्भर रहते हैं. सरकारी अस्पतालों में भी पीएमसीएच, एनएमसीएच, एम्स और आईजीआईएमएस जैसे कुछ गिने चुने बड़े सरकारी अस्पताल जहां मरीज़ों को बड़ी से बड़ी बीमारी का इलाज कम ख़र्च पर होता हैं.
पीएमसीएच के प्राचार्य डॉ विद्यापति चौधरी ने बताया कि
सुपर स्पेशियलिटी विभागों के लिए आवश्यक उपकरण आ गये थे. लेकिन सामान रखने की जगह नहीं होने के कारण उपकरण मुहैया कराने वाली एजेंसी, हाइट्स के ट्रक वापस कर दिए गए हैं. वहीं निर्माण एजेंसी जल्द कार्य पूरा करे, इसके लिए पत्र लिखा गया है.
लेकिन इन अस्पतालों में भी मरीज़ों का बढ़ता दबाव अव्यवस्था का कारण बना रहता है. चिकित्सीय उपकरण, डॉक्टर या नर्सिंग स्टाफ की कमी, अस्पताल में संसाधन की कमी मरीज़ों के लिए अक्सर समस्या का कारण बन जाती है.
पिछले साल ही पीएमसीएच के नेफ्रोलॉजी विभाग में वेंटीलेटर की सुविधा नहीं होने के कारण मरीज़ों को दूसरे अस्पताल में रेफ़र किया जा रहा था. क्योंकि नेफ्रोलॉजी विभाग को कम से कम दो वेंटिलेटर, ईसीजी मशीन, पोर्टेबल एक्सरे, एबीजी मशीन और 10 बेड के आईसीयू की आवश्यकता थी. अगर विभाग में वेंटिलेटर, ईसीजी मशीन, पोर्टेबल एक्सरे, एबीजी मशीन और 10 बेड के आईसीयू की व्यवस्था रहती तो किडनी फेल्योर मरीजों के इलाज में सहूलियत मिलती और उन्हें किसी दूसरे अस्पताल नहीं जाना पड़ता.
वही कार्डियोलॉजी विभाग में भी कैथ लैब, इमेज इंटेसीफ़ायर, आईसीयू और पेस मेकर जैसे ज़रूरी उपकरण मौजूद नहीं थे. जिसके कारण हार्ट सर्जरी के लिए मरीज़ों को दूसरे अस्पताल में रेफ़र कर दिया जा रहा था.
एनएमसीएच में भी बेड की संख्या से ज़्यादा मरीज होने के कारण उनका इलाज जमीन पर करना पड़ता है.
आबादी के अनुसार नहीं है सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल
राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (NHM) की वर्ष 2019-20 के ग्रामीण स्वास्थ्य स्थिति रिपोर्ट (रूरल हेल्थ स्टेटस) के मुताबिक राज्य में सरकारी अस्पतालों की संख्या वर्ष 2005 में 12,086 थी जबकि वर्ष 2020 में यह संख्या बढ़ने के बदले घटकर 10,871 रह गयी. मानकों के अनुसार आबादी के अनुरूप बिहार में 25,772 सरकारी अस्पताल होने चाहिए.
इसके बाद मरीज़ के पास मेडिकल कॉलेज जाने का विकल्प है जो बिहार में बहुत कम हैं. बिहार में सरकारी मेडिकल कॉलेज 11 हैं और इनमें से चार तो पटना में ही हैं. जबकि 50 लाख की आबादी पर एक मेडिकल कॉलेज होना चाहिए.
चुनिंदा अस्पतालों पर मरीज़ों के दबाव को कम करने और एक ही जगह पर सस्ती और अच्छी चिकित्सा सुविधा देने के लिए ही इस अस्पताल का निर्माण किया जा रहा है. लेकिन कंपनी की कार्यशैली इसकी उपयोगिता को नहीं समझ रही है.
हर बार छह महीने का समय मांगती है कंपनी
सीके कंस्ट्रक्शन को निर्माण कार्य का ज़िम्मा सौंपा गया है. लेकिन तय समय के अंदर कंपनी काम पूरा नहीं कर सकी. कोरोना के कारण कार्य बाधित होने के कारण जनवरी 2021 में तैयार होने वाले इस भवन को जनवरी 2022 में पूरा करने का समय दिया गया. हालांकि कंपनी ने जनवरी की जगह नवंबर में काम पूरा करने का समय मांगा. लेकिन कंपनी नवंबर 2022 में भी काम पूरा करने में विफ़ल रही और दोबारा मई 2023 तक काम पूरा करने का आश्वासन दिया.
लेकिन अब मई महीना भी समाप्त होने वाला है और एजेंसी वापस नवंबर-दिसंबर का समय मांग रही है.
बिहार के स्वास्थ्य पर क्या असर पड़ रहा है?
बिहार के जिला अस्पतालों में डॉक्टरों के 36% और अनुमंडल अस्पतालों में 66% पद खाली हैं. जिला अस्पतालों में डॉक्टरों के कुल स्वीकृत 1872 पदों में से 1206 पदों पर नियुक्ति हुई है और 688 पद खाली हैं. जबकि अनुमंडल अस्पतालों में 1595 स्वीकृत पदों में से 547 ही पदों पर नियुक्ति हुई है. यह आंकड़े केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की ओर से जारी रूरल हेल्थ स्टैटिसटिक्स के हैं.
इसके मुताबिक राज्य के जिला और अनुमंडल अस्पतालों में पैरामेडिकल स्टाफ के भी आधे से अधिक पद खाली हैं. जिला अस्पतालों में 8208 स्वीकृत पदों में से 3020 और अनुमंडल अस्पतालों में 4400 पदों में से 1056 पैरामेडिकल स्टाफ के पदों पर नियुक्ति की गयी है. वहीं बिहार के ग्रामीण इलाकों में जनसंख्या के हिसाब से 53% स्वास्थ्य उपकेन्द्र, 47% प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और 66% सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों की कमी है.
अभी हाल में ही IGIMS में उपकरण की कमी की वजह से एक युवक की मौत हुई है. ऐसे में उपकरणों को वापस भेजना और अस्पताल बनने में देरी लोगों के स्वास्थ्य से खेलना है.