क्या Supreme Court के ज़रिये देश में LGBT की शादी को मान्यता मिलेगी? भारत ने आज़ादी के बाद उदारवादी शासन व्यवस्था को अपनाया है. जहां संविधान सर्वोपरी है और व्यक्ति की स्वतंत्रता को सबसे ऊपर है. पर पिछले दिनों भारत सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में एक हलफ़नामा पेश किया इससे सरकार की संकुचित मानसिकता का सहज अंदाज़ा लगाया जा सकता है.
LGBT की शादी से संबंधित हलफ़नामे में क्या है?
बीते दिनों केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में, LGBT की शादी के ख़िलाफ़ में अपना पक्ष रखा है.
दरअसल समलैंगिक विवाह को लेकर उच्चतम न्यायालय में सुप्रियो चक्रवर्ती बनाम भारतीय संघ नामक केस की सुनवाई चल रही है.
यह एक जनहित याचिका है. इसके साथ कई अन्य केस भी शामिल हैं. इस केस की अगली सुनवाई 18 अप्रैल 2023 को होनी है.
हलफ़नामे के माध्यम से सरकार ने कहा कि
समलैंगिक विवाह भारतीय सभ्यता-संस्कृति के ख़िलाफ़ है.
हलफ़नामे में सबसे भेदभावपूर्ण बात यह है कि LGBTQ+ समुदाय के व्यक्ति को रक्तदान करने की मनाही की गई है. सरकार ने इस वर्ग को हाई रिस्क वाले कैटेगरी में रखा है.
सरकार का मानना है कि समलैंगिक समूह द्वारा रक्तदान से HIV एड्स, हेपेटाईटिस का इन्फेक्शन हो सकता है. भारत सरकार के स्वास्थ्य एंव परिवार कल्याण मंत्रालय के इस कदम का सामाजिक कार्यकर्ताओं ने आलोचना किया है. इसे गैर- समावेशी माना. यह संविधान की मूल भावना के ख़िलाफ़ है.
सरकार ने शपथ पत्र में यह भी कहा कि LGBT की शादी की अनुमति देने से देश में 'कम्पलीट हैवोक' की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी.
कानून मंत्री किरण रीजिजू का कहना है
सरकार व्यक्तिगत स्वतंत्रता और निजी मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहती. लेकिन विवाह से जुड़ा फैसला सरकार का नीतिगत मामला है.
इससे जुड़े सुप्रीम कोर्ट के पूर्व के फैसले
इससे पहले साल 2018 में नौतेज सिंह जौहर बनाम भारत सरकार के वाद में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि समलैंगिक व्यक्ति एक साथ रह सकते हैं. इसी मामले में भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को डी-क्रिमनलाईज़ किया गया था. अर्थात अपराध की श्रेणी से बाहर किया गया.
लेकिन इस फैसले में इस समुदाय के लोगों को शादी का अधिकार नहीं दिया गया.
कानूनी जानकारों की राय
पटना हाई कोर्ट के वकील विशाल कहते हैं कि
भारत में विवाह का पंजीकरण किसी न किसी कानून में होता है, जैस विशेष विवाह अधिनियम, हिन्दू विवाह अधिनियम, अन्य निजी कानूनों के तहत पंजीकरण कराना अनिवार्य है. इसमें महत्वपूर्ण बात यह है कि इन सभी कानूनों में 'विपरीत लिंग' के बीच होने वाले शादियों को ही मान्यता दी गई है. सामान लिंग (same sex) के बीच शादी के लिए इन कानूनों में संशोधन की ज़रूरत होगी. अन्यथा अलग से इसके लिए कानून बनाना होगा.
विशाल आगे कहते हैं कि
विधि निर्माण न्यायलय का काम नहीं है. बल्कि इस संबंध में कानून तो संसद को बनाना होगा. विशेष विवाह कानून में बदलाव कर इन शादियों को भी शामिल किया जा सकता है.
विशाल वह आगे कहते हैं कि
नवतेज सिंह जौहर वाद में भारतीय दंड संहित्ता (आईपीसी) की धार 377 को डी-क्रीनलाईज्ड किया गया है. इसे हटाया नहीं गया है. ये आज भी आईपीसी में मौजूद है. बाल यौन शोषण के मामले में इसका आज भी प्रयोग किया जाता है.
संविधान के अधिकारों का हनन किस प्रकार?
एक ट्रांसजेंडर व्यक्ति की ओर से सीनियर एडवोकेट केवी विश्वनाथन पेश हुए. उन्होंने दलील दी कि केंद्र की ओर से दिया गया हलफ़नामा ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के अधिकारों के संरक्षण अधिनियम पर बात ही नहीं करता है.
उन्होंने कहा कि
यह केवल वैधानिक व्याख्या का मुद्दा नहीं है. बल्कि संविधान से प्राप्त अधिकारों की मान्यता का मुद्दा है.
उन्होंने आगे कहा,
यह मामला ट्रांसजेंडर कानून या हिंदू विवाह अधिनियम के बारे में नहीं है. यह संविधान के अनुच्छेद-21 और अनुच्छेद19 (1) (A) से जुड़ा है. पार्टनर चुनने का अधिकार अभिव्यक्ति का अधिकार है. यह गरिमापूर्ण जीवन के अधिकार से भी जुड़ा है. यह एक प्राकृतिक अधिकार का भी मामला है.
LGBT समुदाय का क्या कहना है?
इस मुद्दे पर पटना की रहने वाली एक ट्रांसवुमेंन नाम ना बनाते की शर्त पर कहती हैं
एक तरफ सरकार सबका साथ सबका विकास की बात करती है. वहीं सरकार लिंग के आधार पर भेदभाव कर रही है. रक्तदान करने से वंचित करना, एक तरह की अमानवीय बात है.
और पढ़ें:- ट्रांसजेंडर समुदाय को रक्तदान से रोकने पर केंद्र को सुप्रीम कोर्ट का नोटिस
वह आगे कहती हैं कि
सरकार कैसे पहचान कर पाएगी कि कौन समलैंगिक है या नहीं. आप किसी को चेहरे से नहीं पहचान सकते कि कौन सेक्स वर्कर, गे या लेस्बियन है? लिंग के आधार पर भेदभाव करना यह अपराध की श्रेणी में आता है. यह तो मानव अधिकारों का भी उल्लंघन है.
सभी धर्म गुरु सरकार से साथ
वैसे तो भारत में धार्मिक गुरुओं के बीच अनेक मुद्दों पर गंभीर असहमतियां देखने को पाई जाती है. लेकिन इस मुद्दे पर सभी एक ही पंक्ति में खड़े नज़र आते हैं. हिन्दू , मुस्लिम, सिख, इसाई सभी धार्मिक गुरु, समलैंगिक शादी के ख़िलाफ़ हैं. सभी ने सरकार के इस पहल को उचित माना है.
भारत में LGBT समुदाय से संबधित कानून
केंद्र सरकार ने वर्ष 2019 में इस संबध में एक महत्वपूर्ण कानून बनाया. ताकि थर्ड जेंडर के लोगों के अधिकारों की रक्षा हो सके. इस कानून का नाम था ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019. मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा के अनुच्छेद-1 में कहा गया है कि सभी मनुष्य सामान अधिकार और गरिमा के साथ पैदा हुए हैं.
मद्रास हाई कोर्ट का फैसला
मद्रास हाई कोर्ट ने वर्ष 2019 में अरुण कुमार बनाम इंस्पेक्टर जनरल ऑफ़ रजिस्ट्रेशन नामक वाद में ट्रांसजेंडर के संबंध में एक फैसला सुनाया था.
न्यायालय ने इस वाद में माना कि ट्रांसजेंडर के बीच में शादी हो सकती है. हालांकि तमिलनाडु या देश के स्तर पर इस सम्बन्ध में कोई कानून अब तक नहीं बनाए गए हैं.
इस केस की अगली सुनवाई संविधानिक बेंच करेगी
इस वाद को संविधानिक बेंच को भेजा गया है. संविधानिक बेंच सामान्यतः पांच या पांच से अधिक न्यायधीशों की पीठ होती है. इस वाद की अध्यक्षता जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ करेंगे.
जस्टिस चंद्रचूड़ को एक प्रगतिशील जज माना जाता है. आधार कानून, आईपीसी की धार 377 इत्यादि से संबधित कई ऐसे फैसले सुनाए हैं.
कानून पर नज़र रखने वालों का भी मानना है कि इस वाद (समलैंगिक विवाह) में भी प्रगतिशील फैसले आने चाहिए. हालाँकि भारतीय समाज अभी भी पश्चिमी देशों की तरह खुला समाज नहीं है.
इस वाद में केंद्र सरकार का प्रतिनिधित्व सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता कर रहे हैं. जबकि याचिकाकर्ता के वकील नीरज किशन कौल हैं.
विश्व के कितने देशों में समलैंगिक विवाह वैध है?
दुनिया भर के 32 देशों ने समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता दिया है.
साल 2001 में नीदरलैंड पहला ऐसा देश बना जिसने समलैंगिक विवाह की अनुमति दी. वर्ष 2015 में अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक विवाह को अनुमति दी थी.
ऑस्ट्रिया, अर्जेंटीना, बेल्जियम, डेनमार्क, फिनलैंड, आइसलैंड, आयरलैंड, लक्जमबर्ग, माल्टा, नॉर्वे, पुर्तगाल, न्यूजीलैंड, स्पेन इत्यादि देशों में समलैंगिक विवाह की अनुमति है.
अब देखना है कि न्यायालय इसकी सुनवाई करते हुए क्या फैसला लेती है. सामाजिक कार्यकर्ताओं और संविधान प्रेमियों की इस पर खास नज़र है.