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सिंगल मां’ की कहानी आज से 116 साल पहले रुसी लेखक गोर्की ने अपने उपन्यास में बताया था. साल 1907 में रूसी लेखक मैक्सिम गोर्की की उपन्यास 'मां' सबसे पहले प्रकाशित हुई. एना ज़लोमोवा, जो एक फैक्ट्री में काम काम करती हैं, उसका पति उसे छोड़ देता है. एना अपने बेटे को अकेले बड़ा करती है और रूसी क्रांति में एक अहम भूमिका निभाती है. गोर्की ने अपने लेखन में ये साबित किया कि सिंगल मदर (एकल मां) बखूबी अपने बच्चों की परवरिश कर सकती हैं.
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अपने बच्चों कि हिम्मत और ताकत बनने वाली मां के लिए उस हिम्मत को जमा करना क्या इतना आसन होता है? ख़ासकर वैसी मां के लिए जो सिंगल रहकर अपने बच्चे को सभ्य और शिक्षित बनाना चाहती हैं. हमारे समाज में आज भी सिंगल महिलाओं को स्वीकार्यता नहीं मिली है.
आत्मसम्मान को बचाते हुए समाज में गरिमा के साथ बच्चे को पालना ‘सिंगल मदर’ के लिए आसान नहीं होता है. तलाकशुदा, विधवा या अपने ख़ुद की मर्ज़ी के कारण सिंगल मदर बनने का चुनाव करना महिलाओं के लिए आसान नहीं है.
मदर्स डे के दिन हम आज समाज की उन सिंगल मां की कहानी बता रहे हैं, जो ख़ुद पर भरोसा और हिम्मत करके अपने बच्चों को अच्छी परवरिश दे रहीं हैं.
बच्चे के जन्म के बाद मेरे अंदर आई हिम्मत कहानी सिंगल मां की
जेंडर अलायन्स की फाउंडर और महिलाओं को समाज में समानता और शिक्षा का अधिकार दिलाने के लिए काम करने वाली प्रशांति तिवारी सिंगल मदर हैं. शादी के कुछ समय बाद ही उनके पति और ससुराल वालों का व्यवहार उनके प्रति बुरा हो गया था. लेकिन समय के साथ यह व्यवहार और बुरा होता चला गया. आख़िरकार शादी के चार सालों बाद उन्होंने इस शादी को खत्म करने का फ़ैसला लिया. लेकिन इस फैसले को लेते समय उनके साथ उनका एक माह का बेटा भी था.
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प्रशांति बताती हैं
मेरी शादी में कुछ भी अच्छा नहीं था. गाली-गलौज और अपमान के उस माहौल के कारण मैं डिप्रेशन में चली गयी थी. लेकिन मेरे बच्चे के जन्म के बाद मुझे यह अहसास हुआ, कि मैं अपने बच्चे को इस माहौल में बड़ा नहीं करूंगी. रोज़ गाली-गलौज और मारपीट देखकर आगे मेरा बच्चा भी शायद ऐसा ही बन जाए. क्योंकि बच्चों को जैसा माहौल दिया जाएगा बच्चे आगे चलकर वैसे ही बन जाते हैं. तब मैंने अपने पति से अलग होने का फ़ैसला लिया.
प्रशांति आगे कहती हैं
डिप्रेशन में होने के कारण मुझमें सुसाइडल टेंडेनसी आ गयी थी, लेकिन ईश्वर की कृपा या बच्चे के प्रति मेरी ज़िम्मेदारी ने मुझे इससे बाहर आने का रास्ता दिया. जो हिम्मत और जो फ़ैसला मैं पिछले चार सालों में नहीं कर पायीं थी. वो बच्चे के जन्म के एक महीने बाद ही मैंने ले लिया. कुछ दिनों बाद मैंने डाइवोर्स (तलाक) के लिए अप्लाई (आवेदन) किया. इसके लिए मैंने कोई मैंटेनेंस या एल्युमिनी की मांग नहीं की थी. मैंने अपने बच्चे को अपने बल पर पालने का निर्णय लिया था.
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मुस्लिम समुदाय में सिंगल मां होना ज्यादा मुश्किल
पति के असमय मौत के बाद सिंगल मदर बनी मुसर्रत जहां शुरुआती परेशानियों को बताते हुए कहतीं हैं.
जब मेरे पति की मौत हुई उस वक्त मेरे बेटे की उम्र केवल 3 वर्ष थी. ऐसे में अचानक एक हाउस वाइफ जो आज तक कहीं काम के सिलसिले में बाहर नहीं निकली हो , उसे बहुत दिक्कत होती हैं. मैं हाउस वाइफ थी. लेकिन पति की मौत के बाद अब मुझे अपने बच्चे को पालने के लिए बाहर निकलकर काम करना था. मैं किसी के ऊपर निर्भर नहीं रहना चाहती थी.
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पति के मौत के बाद अपने माता-पिता या ससुराल के परिवार के साथ नहीं रहने का फ़ैसला लेने के लिए काफ़ी हिम्मत की ज़रूरत होती है. लेकिन मुसर्रत जहां ने अकेले रहते हुए अपने बच्चे को बड़ा करने का निर्णय लिया.
मुसर्रत कहतीं हैं.
अकेले रहने का निर्णय मेरा ख़ुद का था. मैं अपने बच्चे को अपने ढंग से पालना चाहती थी. मुझे लगता है, आज मैं यदि ससुराल में रहती तो मेरा बेटा उतना अच्छा नहीं कर पाता जीतना आज वो है.
क्या बच्चे के पिता का नाम ही उसकी पहचान होती है?
समाज में यह धारणा बनी हुई हैं, कि सिंगल मदर सशक्त नहीं होती है. लोग यह मानने के लिए तैयार नहीं है, कि एक महिला अकेले अपने बच्चे को पालने के लिए सशक्त है. समाज की गलत धारणा के कारण आज भी सिंगल मदर को बच्चे की शिक्षा के साथ-साथ कार्यस्थल पर चुनौतियों का सामना करना पड़ता है. कुछ जड़ मानसिकता वाले लोग सिंगल मदर या सिंगल महिला को आज भी अप्रोचेबल (आसानी से मिलने वाला) समझते हैं.
प्रशांति बताती हैं
जब मैं अपने बच्चे का एडमिशन पटना के नोट्रेडम स्कूल में कराने गई. तब वहां बच्चे के पिता का नाम पूछा गया. मैंने उन्हें साफ़ शब्दों में कहा कि मेरे बच्चे के लिए मां और पिता मैं ही हूं. उन्होंने मुझे समझाने की कोशिश की आपका बच्चा छोटा है. आप मैनेज नहीं कर पाएंगी.
हिन्दुस्तानी परिवेश में सिंगल मां का धारणा स्वीकार्य नहीं
पटना की रहने वाली फ़ातिमा ख़ातून की कहानी भी उन महिलाओं की तरह ही है, जिन्हें उनके पति से रोज़ गाली गलौज और मारपीट का सामना करना पड़ा. पति की प्रताड़ना से तंग आकर फ़ातिमा ने उनसे तलाक ले लिया. तमाम मुश्किलों के बाद आज फ़ातिम अपने दो बेटों को अच्छी शिक्षा देने में सफ़ल रहीं हैं. और उन्हें इस बात का गर्व हैं.
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फ़ातिमा बताती हैं
मेरी शादी मात्र 16 वर्ष में हो गयी थी. उस समय मैं इंटर में पढ़ती थी. कम उम्र में शादी और दो बच्चों के कारण मैं आगे पढ़ नहीं सकी. शादी के बाद मेरे पति मुझे प्रताड़ित करने लगे. उनकी प्रताड़ना झेलते हुए. मैं अपने बच्चों को पाल रही थी. लेकिन उनके दूसरी शादी करने के बाद मैंने इस शादी से बाहर निकलने का फ़ैसला ले लिया. मैं भाग्यशाली थी, कि मेरे इस फ़ैसले में मेरे माता-पिता और भाइयों का पूरा सपोर्ट रहा.
अकेली काम करने वाली महिलाओं पर हमेशा लोगों की गलत नज़र रहती है
मुसर्रत जहां ने शिक्षक और हॉस्टल वार्डन के तौर पर 20 सालों तक काम किया. काम के दौरान उन्हें हमेशा लोगों के 'सवालों' का सामना करना पड़ता था. अल्पसंख्यक समुदाय से ताल्लुक रखने की वजह से उन्हें क्या परेशानी हुई उस पर मुसर्रत जहां बताती हैं-
सिंगल मां के लिए समाज में रहना मुश्किल है. और मुस्लिम महिलाओं के लिए समस्याएं और ज़्यादा हैं. लोग कहते हैं तुम अपने मां के साथ या अपने ससुराल वालों के साथ क्यों नहीं रहती हो? लोग तरह-तरह की बात करते हैं. ऐसे में उनके सवालों का जवाब देना मुश्किल होता हैं. हमारे कम्युनिटी में अगर कोई महिला किसी काम के सिलसिले में भी अगर किसी से बात कर रही है, तो लोग उसे गलत नजरों से देखते हैं.
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सिंगल मदर के साथ बेचारी का तमगा
हमारे समाज में पति के मौत के बाद अक्सर महिलाओं के साथ बेचारी शब्द जुड़ जाता है. लोग कहने लगते हैं. अब इसका घर और इसके बच्चे कौन पालेगा?
प्रशांति कहतीं हैं .
सिंगल मदर को अक्सर हमारा समाज बेचारी मानता हैं. लोग कहते हैं, कैसे मैनेज करती होगी. बेचारी को बहुत दिक्कत होती होगी. समाज आज भी सिंगल मदर को शक्तिशाली (empowered) नहीं मानता हैं. मैं आज भी जहां जाती हूं या जहां काम करती हूं, लोग मेरे मैरिटल स्टेटस के बारे में पूछते हैं. जब उन्हें पता चलता है , कि मैं सिंगल हूं और अपने बच्चे को अकेले पाल रहीं हूं. तो उनका रिएक्शन यही रहता- ओह! बेचारी कैसे संभालती होगी. लेकिन मैं गर्व से कहतीं हूं कि मैं सिंगल मदर हूं.
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सिंगल मां की कहानी जो बताती है समाज के तानों की परवाह नहीं
सिंगल मदर बनने की राह में मुश्किलें बहुत हैं, लेकिन अपने बच्चे के लिए सुनहरे भविष्य की चाह रखने वाली मां तमाम मुश्किलों को पीछे छोड़ते हुए अपना और अपने बच्चे का जीवन संवारने में सफ़ल रहीं हैं. समाज के ताने उनके लिए अपने को मजबूत बनाने का साधन मात्र हैं.
फ़ातिमा कहतीं हैं
मैंने अपने दो बेटों को 400 रुपए महीने के तनख्वाह में पाला है. मेरे साथ काम करने वाली एक महिला अक्सर मेरे अकेले होने पर तंज कसती थीं. मुझे बुरा भी लगता था. लेकिन मेरी मां ने मुझे हिम्मत दी. मेरा मानना है, कि किसी भी महिला को अगर उनके रिश्ते में अपमान और प्रताड़ना मिल रहा है. तो उन्हें उससे बाहर निकल कर केवल अपने बच्चे के भविष्य को संवारना चाहिए.
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समाज की बेड़ियों को हर दिन तोड़ रहीं सिंगल मां
सिंगल मदर को घर और बाहर दोनों जगह खुद ही संभालना पड़ता है. ऐसे में हर कदम पर समाज के चुभती नज़रों और सवालों का जवाब देना उनके लिए मुश्किल भरा होता है. समाज में आज भी पिता का नाम, पति का 'संरक्षण', इसे अधिक महत्ता दी जाती है. लेकिन अब ज़रूरत है, कि इस मानसिकता को तोड़ा जाए.
ऐसे में ‘इंटरनेशनल मदर्स डे’ के अवसर पर हम सिंगल मां के हिम्मत और साहस की सराहना करते हैं. उन्हें सलाम करते हैं.