केंद्र सरकार के लेबर ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि देश में पिछले आठ सालों में कृषि श्रमिकों की वास्तविक मज़दूरी मात्र प्रति वर्ष 0.8% बढ़ी है. जबकि गैर कृषि मज़दूरों की मात्र 0.2% की बढ़ोतरी हुई. वहीं निर्माण कार्य में लगे मज़दूरों की आय कोरोना आने से पहले प्रति वर्ष 0.53% और कोरोना के बाद 0.2% के दर से घटी है. ऑक्सफ़ेम इंटरनेशनल की इस वर्ष की रिपोर्ट बताती है कि इन्हीं आठ वर्षों में देश के 1% ऊपरी वर्ग की संपत्ति में 10 गुना का इजाफ़ा हुआ है.
अधिकांश श्रमिक असंगठित क्षेत्र में कार्यरत
भारत में करीब 90 फ़ीसदी श्रमिक असंगठित क्षेत्रों में काम करते हैं. जहां उन्हें नौकरी की सुरक्षा, पर्याप्त वेतन और अन्य ज़रूरी योजनाओं का लाभ नहीं मिलता है. इसके बावजूद बड़ी संख्या में लोग काम की कमी या अपर्याप्त अवसरों के कारण इन क्षेत्रों में काम करने को मजबूर हैं.
श्रम एवं रोज़गार मंत्रालय, भारत सरकार के वेबसाइट पर उपलब्ध आंकड़े के अनुसार देश में 28.51 करोड़ मज़दूर निबंधित हैं. जिनमें 15.02 करोड़ (52.81%) महिलाएं हैं और 13.45 करोड़ (47.19%) पुरुष हैं. भारत में उत्तरप्रदेश के बाद बिहार दूसरा सबसे ज़्यादा मज़दूरों वाला राज्य है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार बिहार में 2.85 करोड़ मज़दूर निबंधित हैं.
जिनमें महिला कामगारों की संख्या 1.59 करोड़ (55.99%) और पुरुष कामगारों की संख्या 1.25 करोड़ (44.01%) है. राज्य में सबसे ज़्यादा 1.41 करोड़ (1,41,33,487) मज़दूर कृषि कार्य से जुड़े हुए हैं.
गांव में नहीं मिल रहा 100 दिन का पक्का रोज़गार
अररिया जिले के पलासी गांव के रहने मोहम्मद अयूब दिहाड़ी मज़दूर हैं. अयूब सामाजिक संगठन ‘जन जागरण शक्ति संगठन’ से जुड़े हुए हैं. उनके परिवार में नौ लोग है जिनके भरण पोषण की ज़िम्मेदारी उनकी है. लेकिन गांव में निश्चित रोज़गार नहीं मिलने के कारण उन्हें परिवार चलाने में काफ़ी परेशानी आ रही है.
डेमोक्रेटिक चरखा से बातचीत अयूब कहते हैं
मनरेगा में घोटाला हो जाने के कारण यहां काम बंद हैं. मनरेगा के तहत निश्चित 100 दिन का रोजगार देने का नियम है. लेकिन हमारे पंचायत में पिछले एक साल से किसी को 100 दिन का रोज़गार नहीं मिला है. ऐसे में मेरे पास पैसा का कोई निश्चित साधन नहीं है. गांव में ही कभी-कभी किसी खेत में काम मिल जाता है तो कर लेते हैं.
साल 2006 में मनरेगा की शुरुआत यूपीए (UPA) के शासन काल में किया गया था. इस योजना के तहत एक परिवार को न्यूनतम 100 दिनों का रोज़गार देने का वादा किया गया है. लेकिन मनरेगा में अनियमितता और घोटालों के कारण मजदूरों को इसका लाभ नहीं मिल पा रहा है.
अयूब बताते हैं गांव में चल रहे मनरेगा प्रोज़ेक्ट में करोड़ों का घोटाला हुआ है जिसके कारण यहां काम बंद है. जबकि दूसरे पंचायत में काम चल रहा है लेकिन हम संगठन से जुड़े हैं इसलिए गांव से बाहर दूसरे पंचायत में काम करने नहीं जा सकते. संगठन का कहना है कि आप जिस जगह रहते हैं वहीं पर सारी सरकारी सुविधाएं लेने का प्रयास करें.
बिहारी बाहर जाने को मजबूर किये जाते हैं
बिहारियों के पलायन पर अयूब आगे कहते हैं
लेकिन काम नहीं मिलने और पैसे की कमी के कारण मेरा बेटा दिल्ली में कमाने चला गया है. वहां बैग बनाने की फैक्ट्री में काम करता है. जहां उसे खाना के साथ 12 हज़ार महीने का मिल जाता है. अभी गांव के बहुत सारे पुरुष पंजाब कमाने चले गये हैं. वहां उनकों 20 से 25 दिन में 20 हज़ार हो जाता है.
राज्य या केंद्र सरकार की अपने ही राज्य में निश्चित रोजगार उपलब्ध ना करा सकने की विफलता कामगारों को दूसरे राज्यों में पलायन होने को विवश करती है.
बिहार के ग्रामीण इलाकों में नरेगा के अंतर्गत काम करने वालें मजदूरों के लिए काम करने वाले आशीष रंजन कहते हैं
ग्रामीण मज़दूरो की आय बढ़ नहीं रही है. क्योंकि ग्रामीण अर्थव्यवस्था का बुरा हाल है. गरीबी और अमीरी को पाटने के लिए ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करना ज़रूरी है. इसके लिए आवश्यक है कि सरकार ग्रामीण क्षेत्रों में पैसा लगाए, रोज़गार के अवसर बढ़ाए. जब ग्रामीण अर्थव्यवस्था बढ़ेगी तभी ग्रामीण मजदूरों की आय बढ़ेगी. सरकार अभी केवल शहरी विकास पर ध्यान दे रही है. सरकार को हर सेक्टर में न्यूनतम मज़दूरी बढ़ाना होगा. तभी मजदूरों का पलायन रुक सकता है.
बिहार में ही काम मिलेगा, बाहर जाने की ज़रूरत नहीं- नीतीश कुमार
कोरोना महामारी के समय बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बिहारी मज़दूरों को राज्य में ही रोज़गार देने का वादा किया था, जो लॉकडाउन खुलने के तुरंत बाद ही विफ़ल हो गया.
रोज़गार को बढ़ावा देने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जून 2020 में 50 हज़ार करोड़ रूपए के ‘प्रधानमंत्री ग़रीब रोज़गार अभियान’ का शुरुआत किया था. जिसके तहत 3 महीने के लिए रोज़गार देने का वादा किया गया था. इस योजना में 6 राज्यों का चयन किया गया था जिसमें बिहार भी एक राज्य था. बिहार के 32 जिले इस योजना के तहत आये थे.
प्रधानमंत्री मोदी ने 20 जून को इस योजना की घोषणा करते हुए वीडियो कांफ्रेंसिंग के ज़रिये कहा था कि जो मज़दूर अपने गांव वापस लौटे हैं उन्हें उन्हीं के गांव में काम दिया जाएगा. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हो सका, काम की कमी और निश्चित आमदनी नहीं होने के कारण मज़दूर आज भी पलायन को मजबूर है.
साल 2011 के जनगणना के आंकड़े बताते हैं साल 2001 से 2011 के बीच 93 लाख बिहारियों ने अपने राज्य को छोड़कर दूसरे राज्यों में पलायन किया था. देश की पलायन करने वाली कुल आबादी का 13% केवल बिहार से है. जो पूरे भारत में उत्तर प्रदेश के बाद सबसे ज़्यादा है.
रंजय पासवान अररिया के बैजनाथपुर गांव के रहने वाले है. रोज़गार और काम नहीं मिलने के कारण बाहर जाने का मन बना रहे रंजय पासवान कहते हैं
हम दिहाड़ी मज़दूर हैं. रोज काम पर जाते हैं तभी घर में पैसा आता है. अभी पिछले 10 दिन से घर में बैठे हैं क्योंकि काम बंद हैं. लेकिन पांच लोगों का पेट तो भरना ही है. हमारा गांव नगर परिषद में आता है. इसलिए यहां मनरेगा के तहत रोज़गार नहीं मिलता है. हमलोग राजमिश्त्री के साथ मकान बनाने वाला काम करते हैं. यहां रोज के हिसाब से भुगतान होता है. लेकिन जिस दिन काम बंद रहता है उस दिन कोई पैसा नहीं मिलता है.
आठ सालों में मजदूरों की आय नहीं बढ़ी
बिहार के गांवों और शहरों में कामगारों की संख्या ज़्यादा है. ये मज़दूर ज़्यादातर दिहाड़ी पर काम करते हैं. कुछ जगहों पर हर सप्ताह मज़दूरी मिलती है. जो दिहाड़ी मिलती है वह अमूमन काफ़ी कम होती है. इससे मज़दूरों का गुज़ारा बड़ी मुश्किल से और बचत ना के बराबर हो पाती है.
देश में न्यूनतम मज़दूरी के तौर पर श्रम एवं रोजगार मंत्रालय ने साल 2022 में सभी सेक्टर में काम करने वाले मजदूरों के लिए प्रतिदिन का 625.7 रूपए भुगतान तय किया हैं. वहीं वृक्षारोपण के लिए 230 रूपए, निर्माण क्षेत्र में 524.2 रूपए और खनन क्षेत्र के लिए 1591 रूपए तय किये हैं.
ये बढ़ोतरी छह सालों के बाद की गयी है. 2016 में सभी सेक्टर में काम करने वाले मजदूरों के लिए प्रतिदिन 493 रूपए का भुगतान तय था. वहीं वृक्षारोपण के लिए 169 रूपए, निर्माण क्षेत्र में 396.9 रूपए और खनन क्षेत्र के लिए 1377.8 रूपए तय थें. बीते छह सालों में निर्माण और कृषि कार्यों में काम करने वाले मजदूरों के न्यूनतम वेतन में 127 और 61 रूपए की बढ़ोतरी हुई है.
आशीष कहते हैं
गरीबी-अमीरी की खाई बढ़ रही है. इसका कारण है कि देश के जीडीपी में जो भी बढ़ोतरी हो रही है वो कुछ ही तबकों के पास पहुंच पा रही है. सरकार को बड़े पैमाने पर चाहिए कि जो न्यूनतम वेज तय किया गया है उसे हर संस्थान में सुनिश्चि किया जाए. साथ ही न्यूनतम मज़दूरी देने के लिए जो कानून बने हुए है उनका पालन किया जाए.
मनरेगा फ़ेल होने से मज़दूरों की रोज़ी-रोटी की दिक्कत
बिहार में एक बड़ा वर्ग खेतिहर और निर्माण मजदूरों का हैं. राज्य में भूमिहीन मज़दूरों की संख्या 88.61 लाख हैं. लेकिन रोज़गार मांगने के इच्छुक 90 हज़ार लोगों में 3.34% का ही जॉब कार्ड है. इनमें भी केवल 1% लोगों को ही 100 दिनों तक काम मिला है. मनरेगा के तहत 100 दिन काम देने की गारंटी होती है. लेकिन इनमें अधिकतर लोगों को 34 से 45 दिनों का ही रोज़गार मिल पता है. सरकार का तर्क है कि कृषि कार्यों में ज़्यादा मज़दूरी होने की वजह से मज़दूर मनरेगा में काम करने नहीं आते हैं.
श्रम एवं रोजगार मंत्रालय पर मौजूद आंकड़ों के अनुसार इस समय देश में 3.62 करोड़ परिवार मनरेगा का लाभ ले रहे हैं. वहीं बिहार में 28,16,590 परिवार इसका लाभ ले रहे हैं.
वहीं पूरे देश में 27.30 करोड़ मज़दूर मनरेगा के तहत निबंधित है. जिसमें बिहार में 2,21,11,351 (41.97%) मज़दूर मनरेगा के तहत निबंधित है जिसमें से 92,81,054 मज़दूर अभी योजना के तहत मजदूरी कर रहे हैं. बड़े राज्यों में बिहार इस योजना का लाभ लेनें में पांचवे स्थान पर है.
मज़दूरों के वेतन बढ़ाने में कटौती क्यों?
जनजागरण शक्ति संगठन के आशीष आगे बताते हैं
दूसरा जो न्यूनतम वेज तय किया गया है उसे बढ़ाये. जैसे सरकारी कर्मियों के लिए 6ठा और 7वां वेतन आयोग बैठता है, उसी तरह मज़दूरी बढ़ाने के लिए भी कुछ सालों के अंतराल में कमिटी बैठाया जाए. और केवल मंहगाई को पैमाना ना बनाकर बेस वेज (base wage) को भी बदला (revise) जाए.
मनरेगा के तहत पहले जहां प्रतिदिन 177 रुपये के हिसाब से मज़दूरी मिलती थी. उसे बढ़ाकर अब 210 रूपए कर दिया गया है. ऐसे में मनरेगा के तहत मज़दूरी करने वाले एक मजदूर को अगर महीने में 20 दिन काम मिलता है तो वह केवल 42,00 रुपए ही कमा सकता है. ऐसे में वह अपने परिवार का अच्छे से भरण पोषण करने में कैसे सक्षम हो सकता है?
अभी भी मनरेगा के तहत मिलने वाली मजदूरी इतनी पर्याप्त नहीं है की मजदूरों को पलायन से रोक सके. सरकार की आर्थिक नीतियां ऐसी रहीं हैं कि ‘गरीब और गरीब’ और ‘अमीर और अमीर’ हो रहे हैं.