कोसी के कोख में बसे गांवों की कहानी: जहां हर सरकारी योजनाएं दम तोड़ देती हैं

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Rahul Gaurav
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कोसी के कोख में बसे गांवों की कहानी: जहां हर सरकारी योजनाएं दम तोड़ देती हैं

कोसी नदी! इलाके के लोग इसे मां भी कहते हैं और डायन भी। जनरल नॉलेज की किताब में इसे बिहार का शोक कहा गया है। सरकारी आंकड़े की मानें तो 1953 से अब तक कोसी में आने वाली बाढ़ के चलते 5 हजार से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है। हालांकि ये सरकारी आंकड़े हैं।

आज कहानी 380 गांवों की, जिसे हर वर्ष विध्वंस झेलना पड़ता हैं, कोसी की और दंश सरकारी योजनाओं की। अखबार के पन्ने पर भी जब इन गांवों की कहानियां आती हैं तो लोग यह कहते हुए पलटा देते हैं कि हर साल की यही कहानी है।

हर साल आने वाली बाढ़ से निपटने के लिए 1953-54 में कोसी प्रोजेक्ट की शुरुआत की गई थी। शुरुआत में लोगों ने इसकी पुरजोर मुखालिफत की। तब तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने कोसी क्षेत्र में सप्ताह भर बिताया और लोगों को बांध बनाने में सहयोग करने के लिए मनाया। तटबंध बनाने का मकसद था कि पानी एक सीमित धारा में ही सिमटा रहे और इससे होने वाले नुकसान को रोका जा सके। लेकिन इसके उलट तटबंध बनने के बाद आज कोसी बांध के भीतर बसे 380 गांवों की लाखों आबादी का जिंदगी गरीबी और बदहाली के कुचक्र में फंस के रह गया है।

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हमारी मोटरसाइकिल सुपौल जिले के पिपड़ा खुर्द गांव होते हुए गोनवा, गोपालपुर, सीमरहा गांव से गुजरते हुए मधुबनी जिला के सोनबरसा और मैरचा तक गया। हमें मोटरसाइकिल ‘गोनवा’ गांव में रखनी पड़ी। मैरचा तक जाने में चार बार नांव से नदी पार करनी पड़ी। लगभग हर नांव पर महिलाओं और लड़कियों को घास की गांठें नावों पर रखते हुए दूसरी और घर ले जाते हुए देखा जा सकता है। यह उनके लिए एक दैनिक गतिविधि है। किसी भी गांव में एक भी पक्के का मकान नहीं दिखेगा। देखेंगे तो रोटी के लिए जद्दोजहद करते लोग।

कहानी घरों में पानी घुस जाने की नहीं, सरकारों की आंखों का पानी सूख जाने की है

मधुबनी जिला के सोनबरसा गांव पार करते हुए जिस नांव पर हम बैठे हैं, उसपर चारा लिए 65 साल की बुधनी देवी भी बैठी हुई है। उनके चेहरे पर चिंता की मोटी लकीरें साफ नज़र आ रही है, जिंदगी के संघर्ष ने उन्हें उम्र से पहले ही बूढ़ा बना दिया है। वो बताती हैं कि,

खेत उस पार होने की वजह रोज ही नांव पार कर हम मवेशी के लिए चारा लाते हैं। नांव सामुदायिक रूप से दिया गया है। इसलिए पैसा नहीं देना पड़ता है। बाढ के वक्त कई पत्रकारों के अलावा नेता और एनजीओ के लोग आते हैं। ख़ाने और पहनने के लिए देकर फिर उसी हालत में छोड़ देते हैं। सरकार के द्वारा 2 साल से बाढ़ राहत कोष का रुपया नहीं दिया गया है। विस्थापन के लिए जमीन नहीं मिला है। बरसात के तीन चार महीने राहत शिविर में बिताना पड़ता है। बेटा नहीं है, बेटी की शादी हो गई है। पति बीमार रहता है। इतने साल गुजर गए तो और कुछ साल गुजर जाएंगे।

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कोसी नवनिर्माण मंच, कोसी नदी के तटबंध के भीतर रह रहे किसानों के लिए काम करती है। मंच के संस्थापक महेंद्र यादव कहते हैं,

कोसी तटबंध के भीतर के जनमानस के साथ अब तक अन्याय ही होता आया है। आजादी के बाद ही कोसी के दोनों ओर तटबंध बना दिया गया, लेकिन किसानों को कोई मुआवजा नहीं मिला। इसके बावजूद वे किसी तरह तटबंधों के भीतर जी रहे हैं। तटबंध के भीतर न स्कूल की व्यवस्था है, न अस्पताल और न ही सड़क और पुलिया की लेकिन किसान किसी तरह हर साल सरकार को शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क व कृषि टैक्स चुकाते हैं।

सरकारी योजनाएं दम तोड़ देती हैं

सुपौल जिले के पिपड़ा खुर्द, गोनवा, गोपालपुर, सीमरहा और मधुबनी जिला के सोनबरसा और मैरचा गांव में शिक्षालय के नाम पर सिर्फ दो स्कूल दिखा और छह आंगनबाड़ी केंद्र। जहां न बैठने की व्यवस्था थी ना ही शौचालय की।

सुपौल जिले के मैरचा गांव के स्कूल का एक घर टूटा हुआ था। दूसरे घर में लगभग 80-85 विद्यार्थियों को दो मैडम पढ़ा रही थी। मैडम किरण देवी बताती है कि

यहां आने के लिए नाव टपना पड़ता है। स्कूल बनाया गया था वह बाढ़ में क्षतिग्रस्त हो गया है। अधिकांश छात्र माध्यमिक भोजन की वजह से आते हैं। ऐसे में इस क्षेत्र में पढ़ाई कैसे संभव है?

जो ग्रामीण पढ़ाई का महत्व समझने लगे हैं वह अपने बच्चों को रिश्तेदारों के पास भेजते हैं ताकि वे अपनी पढ़ाई अच्छे से करें।”

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सुपौल जिला के गोपालपुर गांव के छोटू महतो बताते हैं कि

गांवों में सड़कें अगर बनती भी हैं तो एक बरसात में ही उजड़ जाती है। सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा के नाम पर कुछ भी नहीं है। मेडिकल इमरजेंसी होती है तो मरीज गांव में ही मर जाता है। नजदीक के अस्पताल में भी पहुंचने में 3-4 घंटे लग जाते हैं।

बिहार सरकार के द्वारा बाढ़ पीड़ितों को प्रत्येक महीने ₹6000 की राशि दी जाती है। सुपौल जिले के पिपड़ा खुर्द और गोनवा गांव में पिछले 7 महीने में किसी को भी राशि नहीं मिला है। जबकि  40% आबादी को 1 साल से ज्यादा वक्त से कोई राशि नहीं मिला है। वे अभी भी प्रतीक्षा कर रहे हैं।

पुनर्वास के नाम पर घोटाला

मधुबनी जिला के सोनबरसा गांव के सिर्फ 60% लोगों को विस्थापन के रूप में जमीन मिला है। इसके बावजूद भी वह सोनबरसा गांव में ही रहते हैं। बाकी 40% ग्रामीण इसलिए जमीन की मांग कर रहे हैं कि बरसात के मौसम में उन्हें राहत शिविर में नहीं रहना पड़े। सोनबरसा गांव के जगदीश मंडल बताते हैं कि

15 धुर जमीन तो मिल गई है रहने के लिए, लेकिन सारा खेत अभी भी इसी गांव में है। इसलिए यहीं रह कर जीवन यापन कर रहा हूं। वैसे भी लोग वहीं रहना चुनते हैं जहां वे जीविकोपार्जन कर सकते हैं। बस बाढ़ के वक्त विस्थापन वाले जमीन पर जाकर रहना पड़ता है।

वहीं सोनबरसा गांव के ही शिवनाथ शाह को विस्थापन वाली जमीन नहीं मिली है। इसके लिए वह अक्सर सरकारी कार्यालय का चक्कर लगाते हैं। शिवनाथ बताते हैं कि

चुनाव के वक्त नेता पुनर्वास के लिए भूमि, मवेशी खरीदने के लिए सरकारी धन, और चारा का वादा करते हैं। एक बार चुनाव खत्म हो जाने के बाद, वे फिर कभी अपना चेहरा नहीं दिखाते हैं।

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दबंगों का बोलबाला

चुनाव के वक्त को छोड़ दिया जाए तो शायद ही इस इलाके में पुलिस और प्रशासन आती है। कोसी नदी के बार-बार जगह बदलने की वजह से जमीन का मामला पंचायत के द्वारा ही सुलझाना पड़ता है। इस वजह से दबंगों और बदमाशों का बोलबाला रहता है। कोसी इलाके के बदमाश छुपने के लिए भी इसी गांव का सहारा लेते हैं।

सुपौल जिला के गोपालपुर के रहने वाले एक वृद्ध ने नाम न छापने की शर्त पर बताया। कोसी आईजी शिवदीप लांडे ने जब टॉप 10 अपराधियों का नाम पब्लिक किया था तो सुपौल जिला के सात अपराधी कोशी तटबंध के भीतर के ही थे।

वहीं गोपालपुर के छोटू महतो बताते हैं कि

तटबंध के भीतर का तो छोड़ ही दीजिए। सरकार के द्वारा जो हमें जमीन आवंटित हुआ है, वह भी दबंगों के कब्जे में है। पुलिस प्रशासन कोई कुछ नहीं कर पा रहा है।

सहरसा के उत्तरी महिषी पंचायत के ललन ठाकुर (लगभग 82 वर्ष) बताते हैं कि

तटबंध बनने के बाद ही पुनर्वास की सुविधा दी जा रही थी लेकिन खेत तटबंध के भीतर ही छूट रहे थे। ऐसे में कोई भी गांव वाला आवंटित जमीनों पर जाकर नहीं बस सका। कुछ लोगों को जहां जमीन मिली, वहां से रोज यहां आकर खेती करना संभव नहीं था। साथ ही पुनर्वास के लिए जमीन आवंटन में भी अनियमितता रही। जिसका नतीजा है कि अधिकांश जमीनों पर वाजिब व्यक्तियों का कब्जा न होकर अन्य लोगों का है जिसके चलते तटबंध के भीतर आए दिन विवाद की स्थिति बनी रहती है।

कोसी तटबंध के भीतर भूमि सर्वेक्षण का विरोध

एक तो लगभग एक फसल(रबी या खरीफ) बाढ की भेंट चढ़ जाती हैं। बाढ के बाद कई जमीन विवादों में फंसा रहता है। कटाव की समस्या किसानों को बर्बाद ही कर देती है। इस सबके बाद अब सरकार के नए भूमि सर्वेक्षण कानून के बाद बाकी जमीन भी सरकार की ही हो जाएगी।

मधुबनी जिले के सोनारबासा गांव के मंटू यादव कहते है।

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भूमि सर्वेक्षण के ‘विवादास्पद’ नियम

सुपौल स्थित बंदोबस्त अधिकारी भारत भूषण सूचना के अधिकार (RTI) याचिका का जवाब देते हुए भूमि बंदोबस्त के नियमों के बारे में बताते हैं कि

2011 के नियमों के अनुसार नदी के बहाव और तटबंधों के बीच की जमीन राज्य सरकार की है। इसके अलावा अगर नदी खेत से होकर बह रही है, तो खेत की भूमि कानूनी रूप से राज्य सरकार के कब्जे में होगी। इसके अलावा भूमि के वे हिस्से जो भूकर सर्वेक्षण में नदी में डूब गए थे, लेकिन बाद में उन्हें कृषि भूमि में बदल दिया गया था, वे भी सरकार के हो जाएंगे।

कोसी नवनिर्माण मंच के सदस्य रंजीत यादव बताते हैं कि, “सर्वेक्षण नियम के मुताबिक तो बांध के भीतर की पूरी की पूरी जमीन राज्य सरकार की हो जाएगी। नदी की धारा वाले हिस्से को आज सरकारी बना देगी, लेकिन कल को नदी धारा बदल लेगी, तो क्या होगा?  मैं खुद जमीन के नदी में डूब जाने के बावजूद सरकार को जमीन का टैक्स चुका रहा हूं। इस उम्मीद से कि आज नहीं तो कल जमीन बाहर आ जाएगा” 

संगठन कोसी नवनिर्माण मंच के अगुवाई में बांध के भीतर के लोग भूमि सर्वेक्षण का विरोध कर रहे हैं। जिसके बाद कोसी के तटबंधों के बीच भूमि सर्वेक्षण को स्थगित कर दिया गया है। कोसी के दोनों तटबंधों के बीच लगभग 358302.803 एकड़ लाख जमीन है और दोनो तटबंधों के भीतर करीब दो लाख लोग रहते हैं।

बाढ़ की तबाही और बंधुआ मजदूरी

बिहार खासकर कोसी इलाके में बाढ़ के बाद मानव तस्करी की घटनाएं ज्यादा होने लगती है। एक गरीब परिवार बाढ़ राहत शिविरों में कई महीने बिताते हैं। यहां उनके बेटे को नौकरी और बेटी को शादी के लिए फुसलाया जाता है।

गैर लाभकारी संस्था ग्राम विकास परिषद 2008 की विनाशकारी कोसी बाढ़ त्रासदी के बाद मानव तस्करी, बाल श्रम और बाल विवाह के विरोध में बेहतरीन काम किया था। इस संस्था की अध्यक्ष हेमलता पांडे बताती हैं कि

बिहार के कोसी क्षेत्र में सिर्फ बाल श्रम ही नहीं, मानव अंगों का व्यापार और यौन तस्करी भी बड़े पैमाने पर हो रही है। भारत और नेपाल सीमा पर स्थित गांव मुख्य रूप से इसके ‘हॉटस्पॉट’ हैं। बड़ी आसानी से तटबंध के भीतर रह रहे लोग इनके निशाने पर आ जाते हैं। रुपए के लोभ में दलाल के साथ ही बेटे को नौकरी पर बेटी को शादी के लिए भेज देते हैं।

सुपौल जिला के पकड़ी गांव के 18 वर्षीय हिमांशु जुलाई 2018 में बाढ़ आने के बाद मैं कोसी नदी के किनारे सरकारी राहत कैंप में अपने परिवार के साथ रह रहा था। जहां से उसे कुछ एजेंट लुधियाना में कपड़े के कारखाने पर काम करने के लिए ले गए। हिमांशु बताता है कि,

शुरुआत में जब मां ने कहा कि शहर में जाकर नौकरी करना है तो खुशी हुई। लेकिन वहां गया तो मुझसे दिन में कई घंटे काम करवाया जाता था और बदले में सिर्फ खाना और रहने की जगह दी जाती थी। मां को ₹3500 भेज दिया जाता था। घर भी जल्दी बात करने नहीं दिया जाता था। हमने जब खूब विरोध किया तो अक्टूबर 2020 में हमें घर वापस भेज दिया गया। अभी घर पर ही सब्जी बेचता हूं।

इस दुर्गम क्षेत्र में न सड़के हैं न तय रास्ते

आईटी मुंबई से इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर राहुल यादुका लगभग 2 सालों से कोसी नदी पर शोध कर रहे हैं। वो बताते हैं कि

कोसी की यात्रा सिर्फ इरादा करने से नहीं हो सकती हैं।  इस दुर्गम क्षेत्र में न सड़के हैं न तय रास्ते, जहाँ न दिशा का ज्ञान होता है न भोजन का प्रबंध, वहां बस प्रेम से संजोये गए मानव सम्बन्ध ही आपका सम्बल होते हैं।इतने समय में जो कुछ मैंने देखा कि तटबंध के अंदर रहने वाले अधिकांश लोग नाव खेना जानते हैं – औरत, मर्द, बूढ़े, बच्चे सब। आमधारणा के विपरीत कोसी में रहने वाले मर्द अच्छा खाना बनाना जानते हैं और बनाते भी हैं। शोध के क्रम में किसी के दरवाज़े पर 5 मिनट से अधिक खड़े रहने पर खाना खाने का आग्रह मिलना स्वाभाविक है। साथ ही गांव में अभी तक के भ्रमण में मैंने एक भी मोटा व्यक्ति नहीं देखा।