Employment

तसर सिल्क के लिए मशहूर नेपुरा के बुनकर खोज रहे काम का सही दाम

राजगीर से 6 किलोमीटर दूर तसर सिल्क और बावनबूटी साड़ी बनाने के लिए विख्यात गांव है नेपुरा. यहां का तसर सिल्क भारत में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी मशहूर है. नेपुरा गांव तक पहुंचने का अनुभव हमारी टीम के लिए विस्मयकारी रहा. बौद्ध धर्म के आस्था और आकर्षण के दो बड़े केंद्र नालंदा और राजगीर नेपुरा गांव के नजदीक में ही हैं. इसलिए यहां देशी के साथ-साथ विदेशी सैलानियों का तांता लगा रहता है.

इस छोटे से गांव में बुनकर कई पीढ़ियों से सिल्क कि साड़ी के बुनाई का काम कर रहे हैं. ज़्यादातर तांती समुदाय के लोग इस काम में जुटे हैं. बुनकर बुनाई में इस्तमाल होने वाले सिल्क को एक विशेष प्रकार के कोकून से बनाते है. ये कोकून साल और अर्जुन के पेड़ से उतारे जाते हैं. यहां का तसर सिल्क अपनी बनावट और शुद्धता के लिए जाना जाता है.  यूं तों भागलपुर सिल्क सिटी के नाम से मशहूर है लेकिन यहां के सिल्क की बात अलग है क्योकि यहां करीगर इसे हाथ से बुनते हैं.

लेकिन आज भी यहां का बुनकर समाज जीवनयापन की मुलभूत सुविधाओं से वंचित है. सिल्क पहने किसी भी व्यक्ति को देखकर हमारे मन एक ही बात आता है कि ये समृद्ध परिवार से आता होगा. समाज में सिल्क की पहचान उस कीमती वस्तु की तरह है, जिसकी पहुंच आम और निम्न आय वर्ग के लोगों तक नहीं है. लेकिन उसी सिल्क को बनाने और उससे कपड़े तैयार करने वाले कारीगरों की आर्थिक स्थिति उस उंचाई तक नहीं पहुंच सका है जहां वो अपने बच्चों को अच्छी और उच्च शिक्षा दिला सकें.

जबकि पर्यटन मंत्रालय ने साल 2009 में ‘अतुल्य भारत ब्रांड’ के तहत ग्रामीण पर्यटन योजना की शुरुआत किया था ताकि उस ग्रामीण इलाके और वहां के ग्रामीणों के जीवन का विकास हो. इसके तहत 2011 तक विभिन्न राज्यों के कुल 172 ग्रामों को पर्यटन ग्राम का दर्जा दिया गया था.  इसके अलावा 52 कमीशंड साइट्स को भी चिह्नित कर योजना का हिस्सा बनाया गया था.  ग्रामीण पर्यटन विकास योजना के तहत चयनित 52 गांवों में बिहार का पर्यटन ग्राम नेपुरा भी शामिल है. नेपुरा को सिल्क नगरी के रुप में भी जाना जाता है.

केंद्र सरकार ने ग्रामीण पर्यटन को बढ़ावा देने और वहां पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर इस योजना को लाया गया था. योजन के 11 साल बीतने के बाद भी बुनकरों की स्थिति बिहार के इस गांव में अच्छी नहीं है.

यहीं के निवासी पिंटू कुमार का कहना है कि

हमारे बाप-दादा सब यही काम करते थे, मैं  भी करता हूं. लेकिन आज तक सरकारी सुविधा और सहायता बस कागजों पर है. हमारे बच्चों के लिए आजतक यहां उच्च विद्यालय भी नहीं बना है. कितनी ही लड़कियों की हाई स्कूल की पढ़ाई इस कारण से छूट रही है. 

नालंदा जिले के सिलाव प्रखंड का नेपुरा गांव जो सिल्क नगरी के रूप में जाना जाता है. नालंदा की ऐतिहासिक विरासतों और राजगीर की खूबसूरत पहाड़ियों में घूमने के लिए यहां साल भर पर्यटकों का तांता लगा रहता है. ज़ाहिर है इससे यहां के आस-पास के शहरों और गांवों को आर्थिक रूप से फ़ायदा ही होता. यहां आने वाले पर्यटक नेपुरा के बुनकरों के लिए अच्छा बाज़ार बन सकते थे. लेकिन सरकार की उदासीनता का आलम यह है कि नेपुरा में पर्यटकों के खाने और ठहरने के अच्छे इंतजाम नहीं होने के कारण पर्यटक जल्द से जल्द यहां से लौटना चाहते हैं.

जबकि पर्यटन विभाग ने साल 2009 में गांवों में पर्यटन को बढ़ावा देने के उद्देश्य से ही अतुल्य भारत ब्रांड  योजना का आरंभ किया था. इस योजना के तहत विदेशी पर्यटकों को ग्रामीण परिवार में एक रात ठहरने और भोजन उपलब्ध कराने की व्यवस्था विकसित की जानी थी. नालंदा जिला मुख्यालय से महज 15 किमी दूर ग्रामीण पर्यटन विकास योजना में चयनित नेपुरा में न तो पर्यटकों के ठहरने की व्यवस्था हो पाई है, और ना ही यहां चौबीस घंटे बिजली आती है. सड़कें भी कामचलाऊ ही हैं.

वहीं ग्रामीण विजय कुमार का कहना है

हमारे गांव के 50 से 60 घर बुनाई के काम में लगे हैं. लेकिन बाजार नहीं मिलने के कारण हमे अच्छा आमदनी नहीं हो पता है. सरकार तो बहुत दावे करती है, लेकिन आप यहां की सड़क देखिये, इस रास्ते से भारी मात्रा में हम न कच्चा माल मंगा पाते है और न ही भेज पाते हैं. 2011 में बुनकर भवन बना था वो भी जर्जर हो गया है.

बुनकर बहुल इस गांव में विकास के नाम पर 2011  में 30 लाख की राशि से विशालकाय बुनकर भवन का निर्माण कराया गया तो लगा कि बुनकरों के दिन फिरेंगे, लेकिन आगे चलकर यह मवेशियों का तबेला बन कर रह गया है. हमारी टीम जब इस भवन में गयी उस वक्त वहां कुछ भी मौजूद नहीं था.

सरकार ने पिछले साल भी बुनकरों के उत्थान के नाम पर 2 करोड़ रूपए खर्च करने का घोषणा किया था. साथ ही ब्लॉक लेवल पर ‘नेपुरा सिल्क क्लस्टर’ बनाने के लिए मंजूरी भी दिया था. साथ ही बुनकरों को शेड बनाने के लिए 1 लाख 20 हजार देने का भी वादा किया गया है.

रीलिंग मशीन देने का वादा

रेशमी वस्त्र बनाने के लिए कोकून से रेशम निकाला जाता है. यह प्रक्रिया लंबी होती है. रीलिंग के लिए बुनकर पालथी मारकर बैठ जाते हैं तथा अपने टखने के बीच इसे फंसाकर इसकी रीलिग करते हैं. रेशम धागे को मैनुअल तरीके से रीलिंग किया जाना काफ़ी मुश्किल भरा काम है. इस दौरान कारीगर के जांघों में बड़े-बड़े जख्म हो जाया करते हैं. अभी जून महीने में बुनकरों को दर्द भरे इस तरीके से छुटकारा दिलाने के लिए सरकार ने कारीगरों को बुनियादी रीलिंग मशीन देने की घोषणा की है. यहां ज़्यादातर महिलाएं रेशम के धागे बनाने का काम करती हैं.

तसर और बावनबूटी साड़ी के बल पर पूरी दुनिया में खास पहचान बनाने वाले नेपुरा गांव के कारीगरों को हाइटेक बनाने के लिए उद्योग विभाग ने 48 लोगों को निःशुल्क रीलिंग मशिन देने का घोषणा किया है. वहीं चयनित करीगरों को मशीन चलाने का प्रशिक्षण भी दिया जाएगा.

क्यों है नाम बावनबूटी

यहां के बुनकर बताते हैं कि हम सादे कपड़ों पर हाथों से बुनकर धागे की महीन बूटी डालते हैं. इस कारीगरी में खास बात यह है कि इसमें एक ही बूटी का इस्तेमाल 52 बार किया जाता है. और इन्हीं 52 बूटियों के कारण इसे बावनबूटी कहा जाता हैं.

तसर सिल्क कि ही तरह बावनबूटी भी नेपुरा का पहचान है. सिलाव की खाजा मिठाई के बाद अब नालंदा के बुनकरों द्वारा बनायी जाने वाली बावनबूटी साड़ी को भी जीआई टैग मिलेगा. इसकी पहल नाबार्ड द्वारा शुरू कर दी गयी है. मज़दूरों का कहना है कि बावनबूटी साड़ी बनाने में जितना पूंजी और मेहनत लगता है, उतना कीमत नहीं मिल पाता है.

नालंदा जिला विकास प्रबंधक अमृत कुमार बरनवाल ने बताया कि

हमने 12 मई को बावनबूटी के जीआई टैग के लिए आवेदन दिया जिसे स्वीकार कर लिया गया है. टैग मिलने में डेढ़-दो साल का समय लगता है. पूरे नालंदा में 20-22 बुनकर समितियां काम कर रही हैं. हम उनके साथ समन्वय करके कारीगरों को बाजार मुहैया कराते रहते हैं. पटना के ज्ञान भवन के साथ-साथ हम उन्हें दिल्ली, अहमदाबाद और अन्य दूसरे राज्यों में भी ले जाते हैं.

उम्मीद है कि जीआई टैग के बाद नेपुरा के सिल्क बुनकरों की स्थिति में सुधार आएगा और सरकार की नज़र तांती समाज के काम पर भी जायेगी.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *