समाज अभी नारीवाद को समझने की कोशिश में है. समावेशी नारीवाद में कई तथ्य और विचार जुड़े हुए हैं, जिसमें दलित नारीवाद भी शामिल है. समाज में दलितों की आवाज (पुरुष हो या महिला) को सदियों से दबाया गया है. पुराने समय से ही दलितों को हमारे ही लोगों ने अलग-थलग रखना शुरू किया. इसे एक परंपरा की तरह समाज ने एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी तक पहुंचाने का काम किया. मगर आज के समय में जहां नारीवाद बुलंदी पर है तो वहीं दलित नारीवाद भी अलग ऊंचाइयों पर पहुंच रहा है. दलित नारीवाद में लेखन सबसे बड़ा हथियार बन रहा है.
दलित लेखन परंपरा के कुछ साक्ष्य 11वीं सदी में मिलते हैं. मगर इसके बाद 1960 के दशक में दलित साहित्य महाराष्ट्र में फलना-फूलना शुरू हुआ. मगर यह फिर भी केंद्रीय स्थान तक नहीं आ पाया. इतिहास गवाह है कि दलितों की आवाज को धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक स्वीकृति ने दबा कर रख दिया था. मगर इन सब से ऊपर उठकर कई दलित महिलाओं ने नारीवादी लेखन की अलख जगाई है.
इनमें से कई नारीवादी सोच की लेखिकाओं के बारे में आज इस लेख में जिक्र किया गया है. लेख में तमिल, मराठी, हिंदी बोली कि कई महिला लेखिकाओं के किताबों और कामों का जिक्र शामिल है.
कारूक्कु (1992)- तमिल लेखिका, शिक्षिका और नारीवादी बामा फाॅस्टिना द्वारा इस किताब को लिखा गया. दरअसल्ल यह किताब न होकर लेखिका की आत्मकथा थी, जो उनकी सफलता का कारक भी बनी. इस किताब में दलित महिला के रूप में वह अपने जीवन और उसके अनुभवों को साझा करती हैं. जिसमें जाति व्यवस्था के जीवन पर व्यापक प्रभाव का भी जिक्र किया गया है. जब उनकी इस किताब का विमोचन हुआ उस दौरान भी लेखिका बामा को बहिष्कार का सामना करना पड़ा था. किताब के विमोचन के बाद 7 महीने तक उन्हें गांव में जाने की अनुमति नहीं दी गई थी.
द इनर बर्स्ट (1981)- सामाजिक कार्यकर्ता और संस्कृत पंडित बनने वाली पहली महिला डॉ कुमुन्द पावडे द्वारा लिखी गई यह किताब उच्च शिक्षा और जातिवाद के बीच बने समाज पर सवाल उठाती है. माहर समुदाय से आने वाली पावडे ने छुआछूत की व्यापक प्रथा के बावजूद संस्कृत की पढ़ाई जारी रखी. अपनी इस किताब में उन्होंने दलित महिलाओं के ऊपर दोहरे शोषण की पड़ताल की, जिसमें उन्होंने बताया है कि कैसे वैदिक ज्ञान हासिल करने पर उच्च जाति के पुरुषों के एकाधिकार को उन्होंने अपने समय में चुनौती दी.
व्यू ऑफ़ माय लाइफ (2008)- सामाजिक कार्यकर्ता और लेखिका उर्मिला पवार द्वारा लिखी गई आत्मकथा उन्हीं के जीवन की यादों का वर्णन है. इसमें लेखिका ने अपने जीवन की यादों और स्कूल कॉलेज के दौरान आजीविका चलाने में मां के संघर्ष को बताया है. इस आत्मकथा में उन्होंने तीन पीढ़ियों से चल रहे दलित महिलाओं के संघर्ष का वर्णन किया है.
द प्रीजन्स वी ब्रेक/ जिना अमुचा (2008)- कार्यकर्ता और लेखिका बेबीताई काम्बले द्वारा लिखी गई यह पहली दलित महिला द्वारा लिखी गई आत्मकथा है. जिसमें दलित महिलाओं और दलित पुरुषों के ऊपर उच्च जाति के हिंदुओं द्वारा जातिगत और लैंगिक भेदभाव के कई अनुभवों को लिखा गया है. माहर समुदाय से ताल्लुक रखने वाली काम्बले डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के कामों से बहुत प्रेरित थी.
हाथियों के बीच चीटियां (2017)- सुजाता गिडला द्वारा लिखी गई यह किताब अछूत समुदाय के गरीबी, सामाजिक बहिष्कार से उबरने के संघर्ष का जिक्र करती है. भारतीय अमेरिकी लेखिका सुजाता आंध्र प्रदेश में हुआ, मगर 26 साल की उम्र में वह अमेरिका चली गई. किताब में लेखिका सुजाता ने बखूबी यह दर्शाया गया है कि कैसे ईसाई धर्म अपनाने के बावजूद समाज ने उनके जीवन को हमेशा प्रभावित किया.
कमिंग आउट एज ए दलित (2019)- इस किताब को पत्रकार और लेखिका यशिका दत्त ने लिखा है. किताब में उन्होंने अपने जाति छुपाने के फैसले के बारे में विस्तार से बताया है. लेखिका ने बताया कि किस तरह से एक दलित परिवार में पलने-बढ़ने के बाद उन्होंने अपनी पहचान को छुपाया. अपनी पहचान छुपाने के पीछे समाज के वह क्या कारण रहे.