‘सेम सेक्स मैरेज’ को कानूनी मान्यता देने की मांग पर अपना फ़ैसला सुनाते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने कानून बनाने से इंकार कर दिया है. चीफ जस्टिस (CJI) डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि सेम सेक्स मैरिज को कानूनी मान्यता देना संसद का काम है. अदालत कानून नहीं बना सकता, केवल कानून की व्याख्या कर सकता है. ‘स्पेशल मैरिज’ एक्ट में किसी तरह के बदलाव से कोर्ट ने इंकार कर दिया है.
हालांकि सीजेआई ने कहा कि समलैंगिक लोगों को शादी का अधिकार मिलना चाहिए, जो बाकी हेट्रोसेक्शुअल (महिला और पुरुष) लोगों को मिलता है. जस्टिस चंद्रचूड़ के अनुसार, अगर LGBTQ+ को यह अधिकार नहीं मिलता है तो यह उनके मौलिक अधिकारों का हनन है.
अनुच्छेद 21 देता है व्यैक्तिक स्वतंत्रता का अधिकार
समलैंगिक विवाह को मान्यता नहीं मिलने से दुखी पटना में रहने वाली समलैंगिक जोड़ी राइडर और तुलसी बताती हैं “सुप्रीम कोर्ट से हमें बहुत उम्मीद थी. जिस तरह से शुरूआती समय में कोर्ट ने इस मुद्दे पर सुनवाई की थी हमें उम्मीद था कि शादी को कानूनी मान्यता मिल जाएगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ. कोर्ट ने कहा ट्रांसजेंडर प्रोटेक्शन राइट एक्ट के तहत शादी कर सकते हैं. लेकिन यह कानून तो पहले से ही हैं. हमें इस कानून से कोई फ़ायदा नहीं है.”
डेमोक्रेटिक चरखा से बात करते हुए तुलसी कहती हैं “ट्रांसजेंडर प्रोटेक्शन राइट एक्ट के तहत शादी करने के लिए एक पार्टनर को ट्रांसमैन या ट्रांसवीमेन होना ज़रूरी है. लेकिन हम जैसे लोगों को फैमिली सपोर्ट नहीं मिलता है. हमारे पास फाइनेंसियल स्टेबिलिटी (स्थिरता) नहीं रहती है. ऐसे में हार्मोनल थेरेपी करने का ख़र्च कैसे उठा सकते हैं.”
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर हाईकोर्ट के वकील विशाल कुमार कहते हैं “सुप्रीम कोर्ट ने विवाह संबंधी कानून पर गेंद केंद्र सरकार के पाले में डाल दिया है और उनसे कमेटी बनाने को कहा है. ट्रांसजेंडर को विवाह का अधिकार दिया गया है. इसलिए वह पहले जैसा ही बना रहेगा. समलैंगिक और ट्रांसजेंडर जोड़ों को गोद लेने का अधिकार नहीं मिला हैं. हालांकि इस फैसले में अच्छी बात यह है कि शादी के बाद मिलने वाले कई अधिकार अभी से ऐसे जोड़ों को मिलने लगेंगे.”
कोर्ट में फैसले के दौरान जस्टिस एस आर भट्ट ने कहा कि अनुच्छेद 21 के तहत समलैंगिक जोड़े को अपने मर्जी से जीवन जीने का अधिकार है. इसके तहत समलैंगिकों को साथी चुनने और संबंध बनाने का अधिकार है. जस्टिस भट्ट ने कहा कि सभी नागरिकों की तरह उन्हें भी बिना किसी बाधा के अपने अधिकार लेने का हक़ है.
'क्वीयर समुदाय' के हितों के लिए कमिटी बनाये सरकार
चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि केंद्र सरकार और राज्य सरकारें क्वीयर समुदाय के लोगों को एक साथ रहने और सरकार की तरफ से मिलने वाले लाभों को देने में भेदभाव नहीं करें. सीजेआई ने सरकार को कमिटी की याद दिलाते हुए कहा, “सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने आश्वासन दिया था कि एक कमिटी बनाई जाएगी. कमिटी को क्वीयर कपल के अधिकारों को लेकर समुदाय से सुझाव लेने चाहिए. इसमें क्वीयर कपल के राशन कार्ड, जॉइंट बैंक अकाउंट, पेंशन, ग्रैचुइटी आदि अधिकारों पर विचार करना चाहिए.”
इससे पहले 3 मई को सुप्रीम कोर्ट में सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सरकार का पक्ष रखते हुए बताया था कि “सेम सेक्स कपल को सामाजिक लाभ देने को लेकर कोर्ट ने जो सवाल उठाए हैं, उस पर सरकार सकारात्मक सोच रखती है. केंद्र सरकार कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता में एक कमिटी गठित करेगी जो क्वीर समुदाय से जुड़ी समस्याओं का समाधान करेगी.
वहीं सीजेआई चंद्रचूड़ ने सरकार के उस तर्क को ख़ारिज किया कि समलैंगिकता सिर्फ एक शहरी अवधारणा है. उन्होंने कहा कि “इसे सिर्फ एलीट या शहरी लोगों के साथ जोड़ना गलत होगा. यह उन लोगों में भी है जो देश के अलग-अलग शहर-गांव में रहते हैं. एक अंग्रेज़ी बोलने और कॉरपोरेट ऑफिस में काम करने वाला भी क्वीर हो सकता है और खेत में काम करने वाली महिला भी क्वीर हो सकती है.”
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि सभी राज्य और केंद्र सरकार ये तय करें कि समलैंगिक और क्वीर लोगों के साथ किसी भी तरह का भेदभाव ना हो.
बच्चा गोद नहीं ले सकते क्वीयर या समलैंगिक कपल
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में समलैंगिक कपल को बच्चा गोद लेने का अधिकार नहीं दिया है. हालांकि सीजेआई चंद्रचूड़ ने इसपर अपना पक्ष रखते हुए कहा कि “ऐसा कोई सबूत या डेटा नहीं है कि सिर्फ हेट्रोसेक्शुअल कपल ही बच्चों की अच्छी परवरिश कर सकते हैं.”
बच्चा गोद लेने के अधिकार से जुड़े मामले पर तीन जज सहमत नहीं दिखे इसलिए ये अधिकार 3-2 के बहुमत से ख़ारिज हो गया.
चीफ़ जस्टिस चंद्रचूड़, जस्टिस संजय किशन कौल ने बच्चा गोद लेने के अधिकार का समर्थन किया. वहीं जस्टिस रवींद्र भट्ट, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस हिमा कोहली ने इसका विरोध किया.
LGBTQ+ समुदाय बदलाव के लिए लड़ाई करता रहेगा ऐसा कहना हैं, दोस्ताना सफ़र की अध्यक्ष रेशमा प्रसाद का. रेशमा कहती हैं “कोर्ट ने ट्रांसजेंडर की शादी को माना है. पहले जब कोई ट्रांसवीमेन शादी करने जाती थी तो दिक्कत होती थी लेकिन अब कोर्ट ने कहा है कि वे ट्रांसजेंडर प्रोटेक्शन राइट एक्ट के तहत शादी कर सकते हैं. इससे पहले ट्रांसवीमेन साथियों को चेन्नई हाईकोर्ट ने कपल के तौर पर साथ रहने का अधिकार दिया था. लेकिन जब वे प्रॉपर तरीके से शादी करने जाती थी तो उन्हें समस्या आती थी. कोर्ट के इस फैसले ने रास्ता बनाने का काम किया है. हालांकि जब शादी का अधिकार मिल रहा है तो गोद लेने का अधिकार भी मिलना चाहिए."
समलैंगिक विवाह भारतीय समाज के विपरीत- सरकार
समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने की याचिका नवंबर 2022 में सुप्रियो चक्रबर्ती और अभय डांग ने दी थी. दोनों ने अपनी याचिका के साथ अन्य लोगों द्वारा डाली गयी याचिकाओं को भी शामिल किया था. जिसेक बाद सुप्रीम कोर्ट ने विभिन्न हाईकोर्ट में लंबित याचिकाओं को अपने पास स्थानांतरित कर लिया था.
चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली तीन न्यायधीशों की पीठ ने इसे संविधान पीठ को भेज दिया. जिसपर सुनवाई के लिए पांच जजों की बेंच का गठन किया गया. इस संवैधानिक बेंच में जस्टिस संजय किशन कौल, एस रवींद्र भट, हिमा कोहली और पीएस नरसिम्हा शामिल थे. 18 अप्रैल को कोर्ट ने इन याचिकाओं पर सुनवाई शुरू किया था. कोर्ट ने इसपर 11 मई को अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था.
समलैंगिक विवाह को मान्यता देने वाली याचिका पर सुनवाई करने के फैसले का केंद्र सरकार ने विरोध किया था.
केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका पर सुनवाई से पहले हलफनामा दाखिल किया था. इसमें समलैंगिक विवाह को मंजूरी नहीं दिए जाने के कारणों को बताया गया था. केंद्र का कहना था कि समलैंगिक शादी भारतीय समाज में रह रहे परिवारों की अवधारणा के ख़िलाफ़ है. शादी की अवधारणा शुरुआत से ही दो विपरीत लिंगों के मध्य माना जाता है. सामाजिक, सांस्कृतिक और कानूनी तौर पर विवाह के विचार और अवधारणा में यही परिभाषा शामिल है. इससे कोई छेड़छाड़ नहीं की जानी चाहिए.
केंद्र सरकार ने कहा था कि अगर समलैंगिक विवाह को मान्यता दी जाती है तो संविधान के 158 प्रावधानों, भारतीय दंड संहिता (IPC), आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CrPC) और 28 अन्य कानूनों में बदलाव करना होगा.
सरकार ने हलफनामे में समाज, कानूनी प्रावधानों और धार्मिक रीति-रिवाजों का हवाला देते हुए कहा था कि “कानून में पति और पत्नी की परिभाषा जैविक तौर पर दी गई है. उसी के अनुसार दोनों को कानूनी अधिकार भी मिले हैं. केंद्र ने कहा कि किसी भी पर्सनल लॉ या संवैधानिक कानून में भी एक ही लिंग के दो व्यक्तियों के बीच विवाह की मान्यता और स्वीकृति नहीं दी गयी है. हमारे देश में शादी को एक संस्कार माना जाता है. यहां शादी सदियों पुराने रीति-रिवाजों, प्रथाओं और सामाजिक मूल्यों पर निर्भर करती है.”
अपने हलफनामें में केंद्र ने आगे कहा कि धारा-377 के ख़त्म होने के बाद समलैंगिक संबंध अपराध की श्रेणी से बाहर हो गये हैं लेकिन इसके बाद भी देश के कानून के तहत समलैंगिक विवाह को मान्यता देने के लिए मौलिक अधिकारों का दावा नहीं कर सकते.