लगातार आंदोलन कर रही आशा कार्यकर्ता की आवाज़ कब सुनेगी सरकार?

पटना के नौबतपुर इलाके की रहने वाली संध्या, जो की एक आशा कार्यकर्ता हैं, उनके दो  बेटे हैं. बड़ी कठिनाइयों के साथ वो अपने बच्चों की परवरिश कर

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नाजिश महताब
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लगातार आंदोलन कर रही आशा कार्यकर्ता की आवाज़ कब सुनेगी सरकार?
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पटना के नौबतपुर इलाके की रहने वाली संध्या, जो की एक आशा कार्यकर्ता हैं, उनके दो  बेटे हैं. बड़ी कठिनाइयों के साथ वो अपने बच्चों की परवरिश कर रहीं हैं. कई सालों से आशा कार्यकर्ता के तौर पर काम कर रहीं संध्या अपने जीवन से खुश नहीं हैं. क्योंकि उन्हें सरकार के तरफ़ से किसी भी तरह की सुविधा नहीं मिल रही है.

आशा कार्यकर्ता - आंदोलन पर बैठी

डेमोक्रेटिक चरखा से बात करते हुए संध्या बताती हैं कि

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हमने कई बार अपने मानदेय के लिए प्रदर्शन किया है. 2018 में हमें 1000 रुपए मानदेय के रूप में दिए जाने की बात कही गई लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ.

संध्या आगे बताती हैं कि

हमें महीने में मात्र 2800 रुपए ही मिलते हैं जबकि हमें 24 घंटे काम करना पड़ता हैं, इतने कम राशि होने के वजह से हम अपने बच्चों पर ध्यान नहीं दे पाते ना ही अपना घर ठीक से चला पाते हैं.

बिहार में आशा कार्यकर्ताओं का हाल

बिहार में अगर न्यूनतम मज़दूरी की बात करें तो अकुशल कामगारों को 388 रुपए, अर्द्ध कुशल के लिए 403 रूपए, कुशल के लिए 491 रूपए और अत्यधिक कुशल के लिए 600 रुपए की राशि तय की गई है. लेकिन बिहार सरकार ख़ुद अपने द्वारा तय किये गए न्यूनतम वेतनमान के नियम को लागू नहीं करती है. आशा कार्यकर्ताओं को काम के बदले एक दिन का 100 रूपए से भी कम दिया जाता है.

बिक्रम के पीएचसी (PHC) में 12 जुलाई से आशा वर्कर्स अपनी मांगों को लेकर धरना पर बैठी हैं. लेकिन अभी तक उनकी बात सुनने कोई सरकारी अधिकारी नहीं आए हैं. इससे पहले भी आशा कार्यकर्ताओं ने कई बार सरकार के समक्ष अपनी मांग को रखा है. लेकिन आश्वासन के सिवाए उन्हें कुछ नहीं मिला.

देश भर में लगभग 10.4 लाख आशा कार्यकर्ता हैं. अधिक आबादी वाले राज्यों में, उत्तर प्रदेश में सबसे बड़े कार्यबल के रूप में करीब 1.63 लाख आशा कार्यकर्ता हैं. बिहार में 89,437 और मध्य प्रदेश  में 77,531 आशा कार्यकर्ता काम कर रही हैं. राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन पर उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक गोवा एकमात्र ऐसा राज्य है जहां अभी तक एक भी आशा कार्यकर्ता नहीं है. 

आशा कार्यकर्ता

बड़े उल्लास के साथ शुरू हुई थी आशा कार्यक्रम

भारत में  2005-06 में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के हिस्से के रूप में आशा कार्यक्रम शुरू किया गया. 2013 में राष्ट्रीय शहरी स्वास्थ्य मिशन के शुभारंभ के साथ आशा कार्यक्रम को शहरी क्षेत्र तक भी विस्तारित किया गया था. आशा के रूप में कार्य करने वाली महिलाएं मुख्य रूप से वंचित समुदाय से आती हैं. जो औपचारिक तौर पर कक्षा 8 तक पढ़ीं होती है. वहीं  25-45 वर्ष की विवाहित, विधवा या तलाकशुदा महिलाएं ही आशा के तौर पर काम कर सकती हैं. 

एक आशा कार्यकर्ता उसी गांव से आती है जहां वह काम करती है. यह अपनेपन की भावना, बेहतर सामुदायिक जुड़ाव और स्वीकार्यता सुनिश्चित करता है. आमतौर पर प्रति 1000 जनसंख्या पर 1 आशा होती है. हालांकि, कार्यभार के आधार पर जनजातीय, पहाड़ी और रेगिस्तानी क्षेत्रों में इस मानदंड को प्रति बस्ती 1 आशा तक कम किया जा सकता है.

आशा कार्यकर्ता

आशा कार्यकर्ता लोगों को पोषण, बुनियादी स्वच्छता, स्वस्थ रहने और काम करने की स्थिति आदि के बारे में जानकारी प्रदान करके स्वास्थ्य निर्धारकों के बारे में जागरूकता पैदा करती हैं. साथ ही महिलाओं को जन्म की तैयारी, सुरक्षित प्रसव के महत्व, स्तनपान, गर्भनिरोधक, टीकाकरण, बच्चे की देखभाल और प्रजनन पथ संक्रमण/यौन संचारित संक्रमण (आरटीआई/एसटीआई) की रोकथाम पर परामर्श देती हैं.  

ग्रामीण इलाके में स्वास्थ्य 'पुल' हैं आशा कार्यकर्ता

आशा कार्यकर्ता प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों, उप-केंद्रों और जिला अस्पतालों में मिलने वाली सुविधा को लोगों तक पहुंचाने वाली सेतु के रूप में काम करती हैं. लेकिन सरकार इन पुलों को मज़बूत करने के बाजए  खोखला कर रही है.

सरकार की लापरवाही से मायूस और निराश कविता डेमोक्रेटिक चरखा से बातचीत में बताती हैं

हमारी मांग हैं कि हमें 10,000 रुपए मानदेय दिया जाए. साथ ही साथ हमें सरकारी कर्मचारी का दर्जा दिया जाए. हमें वक्त पर पैसा नहीं मिलता जिसके वजह से हमें कभी-कभी भूखा सोना पड़ता है.

दिन भर मेहनत करके मुश्किल से दो  वक्त की रोटी कमा कर खाने वाली  आशा कार्यकर्ता कविता आगे बताती हैं कि

" हमने कोरोना काल में दिन रात मेहनत की और सरकार ने बस बधाई दी लेकिन हमें एक रूपया भी नहीं मिला. हमारी एक मांग ये भी है की हमें कोरोना काल में किए गए मेहनत का कोरोना भत्ता भी मिले. एक मज़दूर को दिन का 300 रूपया से ज़्यादा मिल जाता हैं लेकिन हमें क्या मिलता है?" 

आशा कार्यकर्ता द्वारा आंदोलन

सम्मान के बाद भी आशा कार्यकर्ता को मानदेय नहीं

भारत की लाखों महिला आशा कार्यकर्ताओं को विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की ओर से स्वास्थ्य के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए सम्मानित किया गया है. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने समुदाय को सरकार के स्वास्थ्य कार्यक्रमों से जोड़ने के प्रयासों के लिए देश की 10.4 लाख आशा कार्यकर्ताओं को 'ग्लोबल हेल्थ लीडर' के रूप में मान्यता दी है. वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और स्वास्थ्य मंत्री ने बधाई संदेश दिए हैं. 

देश में हेल्थ केयर वॉलेंटियर अधिक वेतन और  स्थाई नौकरियों के लिए संघर्ष कर रहे हैं. बिहार में आशा कार्यकर्ताओं ने अपनी मांगों को लेकर कई बार प्रदर्शन किया है. कई बार उनपर लाठीचार्ज भी हुआ लेकिन नतीजा आज तक नहीं निकल पाया है. 

हेल्थ लीडर का दर्जा लेकिन कोई मदद नहीं

गरीब परिवार से आने वालीं अनुराधा और उनका परिवार पूरी तरह से उनपर आश्रित हैं. अनुराधा एक आशा कार्यकर्ता हैं, जब हमने उनसे बात कि  तो उन्होंने बताया कि

सरकार एक तरफ़ हमें हेल्थ लीडर कहती है. हमसे दिन दिन भर काम कराती है. लेकिन हमारे लिए कुछ भी नहीं करती. हमारा जीवन पूरी तरह से बर्बाद हो गया है. हमें किसी तरह की सहायता नहीं मिलती है. बार-बार प्रदर्शन करके भी कुछ नहीं होता,सरकार के कान में जूं तक नहीं रेंगता.

जब हमने राज्य स्वास्थ्य समिति और राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन बिहार के डायरेक्टर से बात करने की कोशिश की तो हमारी उनसे बात नहीं हो पाई . हमने तीन दिनों तक प्रयास किया लेकिन उनका जवाब नहीं मिला.

 ग्रामीण क्षेत्रों में 3ए - आंगनबाड़ी कार्यकर्ता (AWW) , सहायक नर्स मिडवाइफ (ANM) और आशा में से केवल आशा ही ऐसी हैं जिनके पास कोई निश्चित वेतन नहीं है. उनके पास करियर में आगे बढ़ने के अवसर भी नहीं हैं. इन मुद्दों के परिणामस्वरूप बिहार में कई बार आशा कार्यकर्ताओं ने विरोध प्रदर्शन किए हैं. इसके बावजूद आशा कार्यकर्ताओं के लिए काम का बोझ  कम नहीं हुआ है. उन्हें सुबह से रात तक बिना आराम काम करना पड़ता है.