आख़िर क्यों बिहार के ग्रामीण कुंए की पानी की ओर लौट रहे हैं?

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Rahul Gaurav
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आख़िर क्यों बिहार के ग्रामीण कुंए की पानी की ओर लौट रहे हैं?

कई सालों से बिहार के 50% से ज़्यादा आम जनमानस आयरन, आर्सेनिक, फ्लोराइड और यूरेनियम युक्त जल पीने के लिए विवश हैं और कई तरह की बीमारियों का शिकार हो रहे हैं। इस दिशा में सरकार योजनाएं तो बना रही हैं लेकिन धरातल पर काम नहीं कर रही है। अब बिहार के कई गांव के लोग सामुहिक प्रयास से कुएं की तरफ़ लौट कर आर्सेनिक और आयरन को चुनौती देने के साथ सरकार को आईना दिखा रहे हैं। जहां पूर्णिया जिला के धरहारा चकला गांव में लोग जल जीवन हरियाली योजना के तहत वहीं खगड़िया जिले के मदारपुर गांव में सामूहिक प्रयास से कुंए का जीर्णोद्धार किया जा रहा है।

पहले लोग डायरिया और चेचक से मरते थें। लेकिन 2005 के बाद लीवर, किडनी और फेफड़े की बीमारी क्षेत्रों के लोगों के लिए आम हो गई। गांव में डॉक्टर और सरकारी टीम आई थी। उन्होंने बताया कि पानी में उपस्थित आर्सेनिक और फ्लोराइड की वजह से किडनी और लिवर पेशेंट की संख्या बढ़ रही है। जिसके बाद बढ़ते मामलों को देखते हुए 2012 के बाद गैर सरकारी संस्था मेघ पाइन अभियान और समता की मदद से गांव में पुराने कुएं को जीर्णोद्धार किया गया। गांव में पीने के पानी के लिए अधिकांश लोग कुएं का पानी का उपयोग करने लगे। जिसके बाद गांवों में लिवर और किडनी पेशेंट की संख्या कम हो गई है।


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बिहार के खगड़िया जिले के गोगरी प्रखंड के मदारपुर गांव के रहने वाले 44 वर्षीय सुजीत मंडल फोन पर बताते है।

वहीं मदारपुर गांव के ही 56 वर्षीय माधव शर्मा को खुद आर्सेनिक की वजह से सांस लेने की बीमारी हो गई थी। वो बताते हैं कि

डॉक्टर के कहने पर घर में खरीद कर पानी आने लगा। लेकिन एक मजदूर आदमी के लिए खरीद कर पानी पीना दुर्लभ है। सिर्फ पानी के पीने में ₹600/महीना खर्च होता था और शादी करने के लिए मुझे तीन बेटियां थीं उस वक्त। दो की शादी उसमें हो चुकी है। घर के नजदीक ही कुएं के जीर्णोद्धार होने से पानी में भी पैसा नहीं लग रहा है और स्वास्थ्य भी पहले से बेहतर है।

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दरअसल 5-6 साल पहले उनके घर के पास सामुदायिक मदद से एक मृतप्राय कुएं को पुनर्जीवित कर दिया गया।  माधव के आस पड़ोस के 30-40 परिवार अभी भी इस कुएं के पानी का इस्तेमाल कर रहे हैं।

2010 से 2012 के बीच मुरादपुर गांव के 25 से ज़्यादा लोगों की मृत्यु लीवर और किडनी की समस्या से हुई। जब गांव डॉक्टर साहब आए तो उन्होंने बताया कि पानी में मौजूद आर्सेनिक और आइरन की वजह से ऐसा हो रहा है। बढ़ते मामलों को देखते हुए 2012 के बाद गैर सरकारी संस्था मेघ पाइन अभियान और समता की मदद से गांव में पुराने कुएं को जीर्णोद्धार किया गया। गांव में पीने के पानी के लिए अधिकांश लोग कुएं का पानी का उपयोग करने लगे। जिसके बाद गांवों में लिवर और किडनी पेशेंट की संख्या कम हो गई है।

गांव के 67 वर्षीय संजय जी बताते है।

मदारपुर गांव के लोगों के मुताबिक, 2012-2013 के बाद गांव के अधिकांश लोग पीने के पानी में कुएं का उपयोग करते हैं। मदारपुर गांव में कुल पांच कुएं के जीर्णोद्धार पर काम किया गया था। अभी उनमें से चार कुंआ पीने योग्य पानी की ज़रूरतों के लिए उपयोग किए जाते हैं जबकि पांचवें कुएं को अभी तक पुनर्जीवित नहीं किया गया है।

कुंए का जीर्णोद्धार कैसे किया जाता है?

खगड़िया जिले के मदारपुर गांव की तरह ही बिहार के पूर्णिया जिला के बनमनखी प्रखंड के घरहारा चकला के वार्ड नंबर 13 के लोगों के द्वारा तत्कालीन डीएम राहुल कुमार के पास शिकायत करने के बाद जल नल परियोजना के द्वारा उनके वार्ड में कुएं का जीर्णोद्धार हुआ। वार्ड सदस्य नंदलाल शर्मा बताते हैं कि,

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यहां के जल में आयरन और आर्सेनिक बहुत मात्रा में पाया जा रहा है। समता स्वयंसेवी संगठन के द्वारा जब इस विषय पर जागरूक कराया गया, तब लगभग गांव के 80% से ज्यादा आदमी खरीद कर पानी पीने लगे। लेकिन गांव के अधिकांश परिवार किसान के हैं तो पानी खरीदना भी महंगा पड़ रहा था। फिर सामूहिक प्रयास से हमने प्रशासन के सामने गुजारिश की। फिर उनकी मदद से हम लोगों के गांव में तीन कुंए का जीर्णोद्धार किया गया।

पोखर का जीर्णोद्धार कैसे किया जाता हैं? इस सवाल पर वार्ड सदस्य बताते हैं कि

सबसे पहले कुएं के चारों तरफ साफ़ सफ़ाई कर दिया जाता है। कुंए के आस-पड़ोस कहीं भी पानी जमा नहीं हो। आसपास गंदे पानी के जमा होने की वजह से संक्रमण फैल जाता है। फिर कुंए के बाहर और अंदर के दीवारों की मरम्मत कर दी जाती है। कुआं के बगल में सोखता का निर्माण किया गया है। साथ ही चेन पुली लगया गया है। कुएं के पानी में भारी मात्रा में चुने को डाला जाता है। जालीदार ढक्कन लगाने की भी योजना है। जालीदार इसलिए ताकि उसमें हवा और सूरज की रोशनी पहुंच सके। साथ ही कुंए की नियमित सफ़ाई होनी चाहिए। जो सबसे महत्वपूर्ण है। एक कुएं के जीर्णोद्धार करने में बमुश्किल 50-80 हजार रुपये की लागत आती है।

कुओं की तरफ लौट रहें ग्रामीण

बिहार में ख़तरनाक प्रदूषकों जैसे आर्सेनिक, लोहा और यहां तक ​​कि यूरेनियम के साथ भूजल के दूषित होने पर चिंता बढ़ रही है, जो मानकों से कहीं अधिक है। इससे खगड़िया और पूर्णिया जिला भी अछूता नहीं है। लोक स्वास्थ्य प्रमंडल खगड़िया के आंकड़ा के मुताबिक जिले में आर्सेनिक की मात्रा 100 पीपीबी और आयरन की मात्रा 4.6 पीपीएम तक पाया गया है।

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खगड़िया में समता स्वयंसेवी संगठन और मेघ-पाइन अभियान ने आर्सेनिक और आयरन से मुक्ति पाने के लिए परंपरागत जल विज्ञान का सहारा लिया है। अभी तक जिले में 40 से ज्यादा कुओं का जीर्णोद्धार हुआ है। जिसमें सर्वाधिक गोगरी प्रखंड के मदारपुर गांव में चार कुओं का जीर्णोद्धार किया गया है। वहीं पूर्णिया जिला में स्थानीय कलेक्टर राहुल कुमार के नेतृत्व में जल जीवन हरियाली योजना के तहत 20 से 25 ऐंसे कुंए का जीर्णोद्धार किया गया है जहां लोग पानी पी रहे हैं।

मदारपुर गांव से करीब 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित गोगरी प्रखंड मुख्यालय के रेफरल अस्पताल में काम कर रहे डॉ अरविंद कुमार सिन्हा के मुताबिक और जगह की तुलना में मदारपुर गांव पसराहा गांव और परबत्ता पंचायत के आस पड़ोस इलाके से लिवर और किडनी संक्रमण पेशेंट की संख्या कम हुई है।

34 वर्षीय आभा बताती हैं,

पानी लाने में थोड़ी दिक्कत का सामना करना पड़ रहा है। लेकिन इस बात की संतुष्टि हैं कि शुद्ध पानी पी रहीं हूं। मेरे जेठ का इसी दुषित पानी के वजह से मृत्यु हुई है। इसलिए हम लोग सजग हो गए हैं।

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कुंए का पानी क्यों जरूरी?

बिहार राज्य सरकार के जल संसाधन विभाग के इंजीनियर राजेंद्र कुमार इस सवाल के जबाव पर बताते हैं कि

कुएं का पानी खुला होने की वजह से धूप और हवा के संपर्क में रहता है। दूसरी बात यह है कि कुएं के पानी में मौजूद आयरन के संपर्क में आकर आर्सेनिक नीचे चला जाता है। साथ ही भूजल के स्तर को बनाए रखने तथा जल क्षरण रोकने में कुआं काफ़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जब तक कुआं का अस्तित्व बरकरार रहा तब तक भूजल का स्तर नियंत्रण में रहा। अस्तित्व समाप्त होते ही भूजल स्तर नीचे की ओर भागने लगा।

बिहार में भूगर्भ पानी पर किए गए रिसर्च टीम का हिस्सा रहे डॉ अरुण कुमार, महावीर कैंसर संस्थान में ही वरिष्ठ वैज्ञानिक बताते हैं कि

किसी भी रिसर्च में खुले कुओं और सतह के पानी में आर्सेनिक का कोई निशान नहीं मिला है। वैसे भी बिहार में भूजल में आर्सेनिक फैक्ट्री प्रदूषकों या कीटनाशकों के कारण नहीं है। इसका वजह हैं, भूजल का अत्यधिक दोहन! और वर्षा के पानी को संचयन करने का  मुख्य साधन कुंआ को बनाया जा सकता है।

कुंए से बाल्टी के द्वारा निकाला गया पानी साफ होता है। एक बाल्टी से पानी को हिलाने से वातन (पानी के साथ हवा का मिश्रण) होता है, जिससे लोहे और आर्सेनिक जैसे तत्वों का ऑक्सीकरण होता है। ऑक्सीकरण के कारण घुलनशील आर्सेनिक अपनी अघुलनशील अवस्था में बदल जाता है और कुएं के तल पर जमा हो जाता है। इसलिए ग्रामीण क्षेत्रों में कुएं स्वच्छ पानी का सबसे अच्छा स्रोत हैं। इसी वजह से कई जल विशेषज्ञ कुओं से पानी के उपयोग को प्रोत्साहित करने के लिए जागरूकता अभियान चला रहे हैं।

जन स्वास्थ्य विभाग के रासायनिक वैज्ञानिक संजय पांडेय बताते है।

मेघ-पाइन अभियान का योगदान

मेघ पाईन अभियान एक प्रयास हैं, वर्षा के पानी के प्रासंगिकता को पहचानने व उसके संग्रहण को व्यापक स्तर पर फैलाने का। अभियान के जरिए उत्तर बिहार के ग्रामीण इलाके में स्थानीय जल प्रबंधन तकनीकों को प्रभावी तरीके से पूर्णजीवित व स्थापित कराया जाता है। मुख्य रूप से 2009-2012 के बीच गैर सरकारी संस्था मेघ पाइन अभियान ने बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल जैसे कई राज्यों में जल संकट के मुद्दे पर काम किया।

मेघ पाईन अभियान से जुड़े एकलव्य प्रसाद के मुताबिक सहरसा, सुपौल, मधुबनी और खगरिया में मेघ-पाइन अभियान की मदद से 64 से ज्यादा ऐसे कुंए का जीर्णोद्धार हो चुका है, जहां लोग पानी पी रहे हैं। मेघ-पाइन अभियान से जुड़े एकलव्य प्रसाद बताते हैं कि 

एक तो आर्सेनिक 40 फीट से अधिक गहराई वाले पानी में मिलता है। वहीं कुएं का पानी तो ज्यादातर 20 से 30 फीट में मिल जाता है। वहीं अगर कुएं के पानी को निकालने से पहले थोड़ा हिला दिया जाये तो आक्सीकरण की प्रक्रिया के जरिये वह पानी खुद-ब-खुद आर्सेनिक और आयरन रहित हो जाता है। कुओं को पुनर्जीवित करने से भी ज्यादा जरूरी हैं इसके लिए लोगों को भी जागरूक करना होगा कि कुएं उनके लिए क्यों फायदेमंद है। कुओं को गंदे पानी के तकनीकी समाधान के रूप में देखा जाना चाहिए। कुंए की तरफ लोगों को लाना आसान काम नहीं है।

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कैसे लोगों को जागरूक कराया जाता है?

लोगों को कुएं के तरफ जागरूक कैसे कराया जा रहा है? इस सवाल पर बिहार के जल पुरुष एमपी सिन्हा हंसते हुए फोन पर बताते हैं कि

मौत का डर सबको होता है। उत्तरी बिहार के उस इलाके में जा कर देखिए जहां गरीबी चरम पर है। जो ना पानी खरीद कर पी रहे हैं और ना ही कुएं के पानी का उपयोग कर रहे हैं। सरकार को उन इलाकों में लिवर, चर्मरोग, डायबिटीज, श्वसन और किडनी पेशेंट की संख्या की गिनती करवानी चाहिए। हालांकि किसी भी गांव में एक कुए को जीर्णोद्धार करने में कुछ आर्थिक मदद कर दी जाती है। उसके बाद ग्रामीण फायदा देखते ही अपने बूते दूसरे कुएं को पुनर्जीवित करते हैं। खासकर आर्सेनिक और आयरन के दुष्प्रभाव वाले क्षेत्रों में लोग ज्यादा प्रभावित होते हैं।

सरकारी महकमों का क्या कहना है

लोक स्वास्थ्य प्रमंडल, खगड़िया के रसायनज्ञ संजय पांडे बताते हैं कि

कुआं के पानी में आर्सेनिक और आयरन नहीं पाया जाता है। लेकिन, इसकी साफ-सफाई की ओर ध्यान देने की जरूरत है। जिस जगह कुएं का जीर्णोद्धार किया जा रहा है वहां जल्द ही जल नल योजना के तहत भी कुंए का जीर्णोद्धार किया जाएगा।

जल-जीवन-हरियाली मिशन के तहत कुंए का जीर्णोद्धार

बिहार सरकार ने 2019 में जल-जीवन-हरियाली मिशन शुरू किया है। इस मिशन के तहत तीन साल में 24 हजार 524 करोड़ रुपए खर्च किए जाएंगे। इसमें पेड़ पौधे लगाने के सात ही पोखर, छोटी नदियों व पुराने कुओं को पुनर्जीवित किया जाएगा।

जल-जीवन-हरियाली मिशन के निदेशक राहुल कुमार बताते हैं कि, “मिशन के तहत कुल 18,170 सार्वजनिक कुओं का जीर्णाद्धार किया गया। साथ ही सभी सार्वजनिक कुओं के पास सोख्ता का निर्माण भी कराया जा रहा है। हालांकि 30,425 सार्वजनिक कुओं के जीर्णाद्धार का लक्ष्य रखा गया है। इसमें से अधिकांश कुंए के पानी का उपयोग खेती में हो रहा है। पूर्णिया जिले के कुछ गांव में लोग पानी पीने के लिए भी इस्तेमाल कर रहे हैं।”

जल योद्धा व सचिव समत प्रेम वर्मा बताते है।

परंपरागत जल ज्ञान- विज्ञान को जिंदा करने की जरूरत है। समता ने इसकी शुरुआत कई वर्ष पूर्व ही की। समता  और जल नल मिलाकर अब तक 40 से ज्यादा कुओं का जीर्णोद्धार किया जा चुका है। यह काम सामाजिक सहयोग से हुआ है।

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बिहार में भूजल प्रदूषण संकट

6 अप्रैल, 2020 को इंटरनेशनल जर्नल ऑफ एनवायरनमेंटल रिसर्च एंड पब्लिक हेल्थ में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक पटना स्थित महावीर कैंसर संस्थान एवं अनुसंधान केंद्र और मैनचेस्टर विश्वविद्यालय द्वारा किया गए एक संयुक्त शोध में राज्य के कम से कम दस जिलों के भूजल में यूरेनियम का उच्च स्तर पाया गया। शोध के मुताबिक नालंदा, सुपौल सारण, पटना, नवादा, औरंगाबाद, गया और जहानाबाद ऐसे 10 जिले हैं जहां भूजल में यूरेनियम का उच्च स्तर पाया गया।

इस शोध-अनुसंधान टीम का नेतृत्व करने वाले प्रमुख वैज्ञानिक अशोक कुमार घोष कहते हैं कि, “भूजल में यूरेनियम का पाया जाना गंभीर चिंता का विषय है। भूजल का व्यापक उपयोग पीने के पानी के रूप में किया जाता है। पानी में मौजूद यूरेनियम में कार्सिनोजेनिक के साथ यह सम्मिश्रण स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है। इससे हड्डियों में विषाक्तता और गुर्दे की सक्रियता में खराबी और कैंसर के लिए बड़े खतरे का कारण बन सकता है।”

राज्य सरकार की वार्षिक बजट यानी बिहार आर्थिक सर्वेक्षण 2021-22 के अनुसार, बिहार राज्य के 38 जिलों में से 29 जिले में भूजल आर्सेनिक, फ्लोराइड या आयरन से दूषित है। वहीं कुल 114,691 ग्रामीण वार्डों में से 56,544 ग्रामीण वार्डों में पानी और स्वच्छता राज्य के जन स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग के दायरे में आता है।