साल 2015 के अपने आखिरी ‘मन की बात’ कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिव्यांगजनों के संबंध में एक बात कही थी
परमात्मा ने जिसको शरीर में कुछ कमी दी है, हम उसे विकलांग कहते हैं। कभी-कभी हम जब उनसे मिलते हैं तो पता चलता है कि हमें आंखों से उनकी यह कमी दिखती है, लेकिन ईश्वर ने उन्हें कुछ एक्स्ट्रा पावर दिया होता है। एक अलग शक्ति का उनके अंदर परमात्मा ने निरूपण किया होता है। मेरे मन में विचार आया कि क्यों ना हम देश में विकलांग की जगह पर दिव्यांग शब्द का प्रयोग करें। ये वो लोग हैं, जिनके पास एक ऐसा अंग है या एक से अधिक अंग है, जिसमें दिव्यता है।
प्रधानमंत्री ने एक दिव्यांग शब्द इस्तेमाल करने पर ज़ोर दिया लेकिन बिहार और पूरे देश में दिव्यांगजनों की स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया है। दिव्यांगों के संदर्भ में देखा जाये तो अभी भी हमारे देश में जागरूकता, देखभाल, शिक्षा व्यवस्था, अच्छी और सुलभ चिकित्सा सुविधाओं की भी भारी कमी है।ये सारी कमियां दिव्यांगजनों के विकास में बाधक बनी हुई है।
वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में दिव्यांग लोगों की आबादी लगभग 26.8 मिलियन यानि 2.68 करोड़ थी, जो देश की कुल आबादी का 2.23 प्रतिशत है। इसी जनगणना रिपोर्ट से यह भी पता चलता है कि देश में दिव्यांगजनों की कुल आबादी का 69 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करता हैं।
सेन्सस ऑफ़ इंडिया (2011) की रिपोर्ट के मुताबिक बिहार में कुल दिव्यांगजनों का 8.69 प्रतिशत रहते हैं. सरकारी तंत्र के उदासीन रवैये के कारण दिव्यांगजनों के लिए योजनाओं का निर्धारण करने में थोड़ी समस्याएं होती है। कागज पर बड़ी योजनाओं का दावा किया जाता है पर धरातल पर स्थिति ठीक उलट नजर आती है।
केंद्र सरकार के समावेशी शिक्षा के तहत स्कूल में दिव्यांग बच्चो का नामांकन होना हैं। इन बच्चों के नामांकन में उत्तरप्रदेश ,महाराष्ट्र के बाद बिहार का नंबर आता है यानि बिहार पूरे देश में ऐसे बच्चो के नामांकन में तीसरे स्थान पर है। यू डायस की रिपोर्ट के अनुसार बिहार में अभी 1 लाख 41 हजार 67 बच्चे नामांकित हैं। जो 2020 -21 के मुकाबले 25 हजार ज़्यादा है लेकिन ये आंकड़ें सिर्फ पढ़ने में अच्छे लगते हिं क्योंकि इसकी जमीनी हकीकत इससे उलट है। बिहार शिक्षा परियोजना परिषद की यू-डायस रिपोर्ट से पता चलता है कि नामांकन तो बढ़ा है लेकिन जैसे-जैसे बच्चे आगे की कक्षाओं में जाते हैं नामांकन दर कम होती जाती है। कक्षा एक से पांचवी तक 89 हजार 269 विद्यार्थी नामांकित हैं, वही कक्षा छठीं से आठवीं में 43 हजार 754 बच्चो ने नामांकन लिया। कक्षा नौवीं से दसवीं में यह संख्या 6316 हो गयी। वही 11 वीं से 12 वीं में 1728 बच्चें ही नामांकन ले पाते हैं. इन आंकड़ों से साफ़ पता चलता है कि ज्यादातर बच्चे आगे की कक्षाओं में जानें से पहले ही ड्रॉपआउट हो जाते हैं।
बात अगर बच्चो की प्राथमिक शिक्षा की जाए तो बिहार में एक भी अत्याधुनिक दिव्यांगजनों के लिए स्कूल सरकार द्वारा नहीं चलाये जा रहे है।जो स्कूल चल भी रहे हैं वहां शिक्षक तथा अन्य मूलभूत सुविधाओं की भारी कमी है।अगर दिव्यांग स्कूल की बात की जाए तो पूरे बिहार में केवल सात से आठ स्कूल हैं। जिसमे से केवल तीन विद्यालय ही पूर्णतया दृष्टिबाधित बच्चों के लिए है जो दरभंगा, भागलपुर और पटना में चलाए जा रहे हैं।
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आदित्य ‘नेत्रहीन छात्र परिषद्’ के महासचिव हैं। आदित्य बताते हैं कि “भागलपुर का नेत्रहीन विद्यालय जो कि मिडिल स्कूल है, यहां पिछले तीन सालों से नामांकन पर रोक लगी हुई है। जिससे इस इलाके और इसके आस पास के इलाकों के दृष्टिबाधित बच्चों की प्राथमिक शिक्षा प्रभावित हो रही है। 25 बच्चों की क्षमता वाले इस आवासीय स्कूल में आज केवल 8 बच्चे रह रहे है। इन बच्चों को पढाने के लिए केवल एक शिक्षक सर्वशिक्षा परियोजना के तहत नियुक्त किया गया है। जिसके ऊपर स्कूल की कागजी प्रक्रिया से लेकर बच्चो को पढ़ाने तक की जिम्मेदारी सौप दी गयी है। वहां रह रहे बच्चें और उनके अभिभावक काखना है की यहां जरूरी सुविधाओं का भी बहुत अभाव है।
वही पटना के कदमकुआं स्थित राजकीय नेत्रहीन उच्च विद्यालय में भी आधुनिक सुविधाओं कीभारी कमी है। यहां नौवीं से दशवीं क्लास के बच्चो के लिए ब्रेल बुक भी उपलब्ध नहीं है। ट्रेलरफ्रेम, अबाकस, टाइप्स, इंटर प्वाइंट, वुर्डन स्लेट, नंबर प्लेट व अन्य अत्याधुनिक उपकरनों की भी कमी है। यहां लगभग 60 से 66 बच्चो के लिए सीटें है जिसपर केवल 12 शिक्षकों को नियुक्त किया गया है। और वो भी स्पेशल एजुकेशन में प्रशिक्षित नहीं है।
आदित्य आगे बतातें है कि
दरभंगा में संचालित नेत्रहीन विद्यालय की स्थिति भी इसी तरह की है। यहां 56 के आस पास बच्चो के लिए सीटें हैं, लेकिन अभी तीस से चालीस बच्चे यहां पढ़ रहे हैं और इन बच्चो को पढाने के लिए छह शिक्षको को नियुक्त किया गया है, जिसमे से केवल एक शिक्षक ही ब्रेल भाषा में पढ़ाने को प्रशिक्षित है।
गौर करने की बात है कि ये तीनों विद्यालय जो सरकार के द्वारा चलाये जा रहे है तीनों लड़को के लिए है। सरकार जो बेटियों की शिक्षा की बात करती है उन्हें पढ़ाने की बात करती है, उनके पास दिव्यांग छात्राओं के लिए एक भी सरकारी विद्यालय नहीं है। आजादी के 75 वर्ष पूरे होने वाले हैं और यह बिहार का दुर्भाग्य है की यहां आज भी बालिकाओं के लिए एक भी राजकीय उच्च नेत्रहीन विद्यालय नहीं है।
नेत्रहीन बच्चों को होने वाली परेशानियों के बारे जानने के लिए हमने पटना ट्रेंनिंग कॉलेज में पढ़ने वाले नेत्रहीन छात्र आफ़ताब से बात की तो उन्होंने बताया कि
हमारे जैसे बच्चों को तो जन्म के साथ ही परेशानियों का सामना करना पड़ता है। लेकिन जब हमारे शिक्षा की बात आती है तो समस्या और भी जटिल हो जाती है। प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक हमे समस्याओं का सामना करना पड़ता है। क्योंकि हमारे लिए सामान्य बच्चो की तरह स्कूल और कॉलेजों की संख्या उतनी नहीं है और जो है भी उनकी गुणवत्ता उतनी बेहतर नही है।
दृष्टिबाधित छात्राओं की पढ़ाई के लिए पटना के कदमकुआं में एक ट्रस्ट के ज़रिये स्कूल चलता है, जिसका नाम है अंतर्ज्योति बालिका विद्यालय। इस विद्यालय की शुरुआत मगध महिला कॉलेज की पूर्व प्रोफ़ेसर ने नवल किशोर ठाकुर के साथ मिल कर किया था।
विजय कुमार लम्बे समय से अंतर्ज्योति बालिका विद्यालय में कार्यरत हैं। अंतर्ज्योति बालिका विद्यालय में बच्चियों की पढ़ाई के बारे में विजय कुमार बताते हैं
यहां पर हमलोगों ने जनता के पैसों से बनाया है इसमें सरकार का कभी कोई योगदान रहा ही नहीं। इस वजह से हमलोग शायद बच्चियों को अधिक सुविधा दे पाने में सक्षम रहे हैं। हमलोगों ने सरकार को कई बार ज्ञापन देने का काम किया है लेकिन सरकार बच्चियों के स्कूल को लेकर सजग नहीं हो रही है।
आफ़ताब से जब हमने नेत्रहीन लड़कीयों के लिए स्कूल ना होने को लेकर पूछा तो उन्होंने बताया कि
उनकी स्थिति तो और भी ज्यादा खराब है क्योंकि लड़कों के लिए तो कुछ स्कूल हैं भी पर लड़कियों के लिए एक भी सरकारी स्कूल मौजूद नहीं है। इसकी वजह से गरीब बच्चियों की पढ़ाई रुक जाती है। क्योंकि उनका परिवार इतना सक्षम नही होता है कि उनकी पढ़ाई का खर्च उठा सकें।
सरकार की योजनायें और वादे ज़मीन पर कुछ और ही नज़र आते हैं। इस वजह से समाज के हाशिये पर खड़े लोगों के अधिकारों का हनन होता है।