क्या भारत से टीबी को दो सालों में ख़त्म कर पाएगी सरकार?

केंद्र सरकार साल 2025 तक भारत से टीबी को समाप्त करने लक्ष्य तय किया है. जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने पूरे विश्व से टीबी के खात्मे

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पल्लवी कुमारी
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क्या भारत से टीबी को दो सालों में ख़त्म कर पाएगी सरकार?

केंद्र सरकार साल 2025 तक भारत से टीबी को समाप्त करने लक्ष्य तय किया है. जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने पूरे विश्व से टीबी के खात्मे के लिए 2030 की समय सीमा तय की है. WHO के मुताबिक दुनिया भर में साल 2018 में इस बीमारी की वजह से 15 लाख लोगों की मौत हुई थी.

बांका जिले के भैरोगंज कटोरिया के रहने वाले दिनेश कुमार दास दैनिक मज़दूर हैं. दिनेश एमटीबी डीटेक्टेड टीबी मरीज़ है. उनको अपने बीमारी का पता पिछले एक महीने पहले ही चला है. दैनिक मज़दूर होने के कारण उन्हें रोज़ाना शारीरिक परिश्रम वाले काम करना पड़ता है. लेकिन इधर कुछ महीनों से कमज़ोरी होने के कारण वो नियमित तौर पर काम नहीं कर पाते हैं. 

भारत से टीबी

दिनेश कुमार दास बताते हैं

लगातार खांसी के साथ सीने में दर्द था और कमज़ोरी भी रह रही थी. जब जांच कराएं तो पता चला टीबी है. डर लग रहा है पर डॉक्टर बोले हैं छह महीने लगातार दवा खायेंगे तो ठीक हो जाएंगे.

जिला टीबी सेंटर बांका के सीनियर ट्यूबरकुलोसिस सुपरवाइजर शिवरंजन बताते हैं, “दिनेश एमटीबी डिटेक्टेड मरीज है और इन्होंने कभी टीबी की दवा नहीं खाई है. इसलिए ये नए मरीज है और इनको फर्स्टलाइन की दवा दी जाएगी. अगर अभी यह लगातार छह महीने दावा खा लेंगे तो स्वस्थ हो जाएंगे.”

देश में हर साल टीबी से 4 लाख से ज़्यादा मौत

टीबी एक ऐसी बीमारी है जो पूरी दुनिया में हर साल लाखों लोगों की जान ले लेती है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़ हर साल दुनिया में रिपोर्ट होने वाले ट्यूबरकुलोसिस के कुल मामलों में से एक-तिहाई भारत में होते हैं. देश में इस बीमारी से सालाना 4 लाख से ज़्यादा मौत होती हैं.  

वहीं पूरे भारत में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र और गुजरात के अलावा बिहार भी उन राज्यों में शामिल है. जहां ट्यूबरक्लोसिस से काफ़ी मामले रिपोर्ट होते हैं.

2025 तक टीबी का देश से ख़त्म करने का लक्ष्य

भारत सरकार साल 2025 तक टीबी को देश से ख़त्म करना चाहती है. जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने पूरे विश्व से टीबी के खात्मे के लिए 2030 की समय सीमा तय की है. WHO के मुताबिक दुनिया भर में साल 2018 में इस बीमारी की वजह से 15 लाख लोगों की मौत हुई थी.

भारत से टीबी - टीबी मरीज

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साल 2018 के मार्च महीने में कहा था,

भारत को 2025 तक टीबी से मुक्त करने का लक्ष्य कुछ लोगों को मुश्किल भले ही लग रहा हो. लेकिन ये असंभव नहीं है.

प्रधानमंत्री मोदी ने ये बात साल 2018 में कही थी लेकिन इसके बाद भारत ने कोरोना वायरस महामारी का कहर देखा है. कोरोना महामारी के दौरान टीबी के नये पेशेंट की जानकारी नहीं मिल पा रही थी. टीबी खत्म करने का ग्लोबल टार्गेट वर्ष 2030 है, लेकिन भारत वर्ष 2025 तक टीबी खत्म करने के लक्ष्य पर काम कर रहा है.

14 लाख से अधिक मरीज़ों का इलाज जारी

देश में टीबी के रोकथाम के लिए कई प्रोग्राम चलाये जा रहे हैं. जिसमें इलाज से लेकर स्वास्थ्य और न्यूट्रिशन के लिए सरकारी मदद देना शामिल है. इसमें रोगियों के लिए निक्षय पोषण योजना (NPY), उपचार को प्रोत्साहन देना, आदिवासी क्षेत्रों में टीबी रोगियों के इलाज के लिए आने जाने में सहयोग करना, एनपीवाई के तहत सीधे बैंक खाते में धनराशि देना (DBT) जैसी योजनाएं चलाई जा रही है. टीबी पीड़ित मरीज को मुफ्त दवाओं के साथ हर महीने 500 रूपए पोषक आहार लेने के लिए दिए जाते हैं. 

केंद्र सरकार के निक्षय पोर्टल के अनुसार देश में 14,14,452 टीबी मरीज़ों का इलाज किया जा रहा है. जबकि 10,60,174 मरीजों ने टीबी के इलाज की सहमती दी है. जिसमें 13,27,399 मरीज व्यस्क और 87,143 मरीज 0-14 वर्ष के हैं.

पांच राज्यों में टीबी के 50 फ़ीसदी मरीज़  

‘इंडिया रिपोर्ट 2023’ के अनुसार देश में टीबी के सबसे ज़्यादा मामले उत्तरप्रदेश में सामने आये हैं. आंकड़ों के अनुसार उत्तरप्रदेश में 5,22,850 टीबी मरीज पाए गए हैं. इसके बाद महाराष्ट्र का नंबर आता है जहां 2,34,105 टीबी मरीज हैं. मध्य प्रदेश में 1,86,293, राजस्थान में 1,69,522 और बिहार में 1,61,165 मरीज पाए गये हैं. अकेले इन पांच राज्यों में ही देश के 50% से ज़्यादा टीबी मरीज़ हैं.

वहीं बिहार में 1,14,495 टीबी मरीज़ इलाजरत हैं. 84,909 मरीज़ों ने टीबी के इलाज की सहमती दी है. 1,03,565 टीबी मरीज़ों 14 वर्ष से ज़्यादा उम्र के जबकि 10,930 मरीज़ 0-14 वर्ष के उम्र के हैं.

पटना जिले में 13,431 टीबी मरीज़ हैं, जबकि 12,064 मरीज़ों ने टीबी के इलाज की स्वीकृति दी है. ट्यूबरकुलोसिस यानी टीबी एक ऐसी बीमारी है जो कि हर साल भारत में 4.80 लाख लोगों की जान लेती है.

भारत से टीबी - प्रधानमंत्री टीबी मुक्त भारत अभियान

बिहार में 4 हज़ार से अधिक लोगों की टीबी से मौत

‘इंडिया टीबी रिपोर्ट 2023’ के अनुसार देश में टीबी से मरने वालों की संख्या 88,060 है. वहीं बिहार में टीबी से 4,881 मरीजों की मौत हुई है. जिसमें महिलाओं की 3.2% और पुरुषों की 4% संख्या शामिल है. 

राज्य में टीबी मरीज़ों की जांच सरकारी और निजी अस्पतालों में किया जाता है. निजी अस्पताल में टीबी मरीज के इलाज में 20 हज़ार तक ख़र्च होते हैं, जबकि सरकारी अस्पताल में यह ख़र्च 7500 के लगभग होता है.

जिला टीबी सेंटर बांका के सीनियर ट्यूबरकुलोसिस सुपरवाइजर शिवरंजन बताते हैं

जो पेशेंट सरकारी अस्पताल के ओपीडी में टीबी सस्पेक्ट लगता है उनको टीबी जांच के लिए डीआरटीबी सेंटर भेजा जाता है. वहां सिबिनेट मशीन के द्वारा टीबी की जांच की जाती है. सिबिनेट मशीन बीमारी के साथ-साथ दवाई का रजिस्टेंस भी बताती है. इसलिए इस मशीन द्वारा किया गया जांच ज़्यादा सटीक होता है. सिबिनेट मशीन केवल सरकारी अस्पताल और मेडिकल कॉलेज अस्पताल में ही होता है.

इंडिया रिपोर्ट 2023 के अनुसार बिहार में सबसे ज़्यादा जांच माइक्रोस्कोप (2,77,032) और ट्रूनेट (58,657) के द्वारा होता है. जबकि सिबिनेट से मात्र 49,621 जांच ही की गई है.   

क्या भारत से 2025 तक टीबी का खात्मा हो पायेगा?

डॉ शकील जनस्वास्थ्य के मुद्दों पर बिहार में लगातार काम कर रहे हैं. डॉ शकील पालीक्लिनिक में मरीज़ों का इलाज करते हैं. डॉ शकील कहते हैं

टीबी के कई प्रकार होते हैं. लेकिन इनमें से तीन-चार प्रकार की टीबी सबसे ज़्यादा होती है. गिल्टी यानि गर्दन की टीबी, पेट, फेफड़े और हड्डी की टीबी बहुत लोगों को ज़्यादा होती है. लेकिन व्यापक तौर पर जांच केवल फेफड़े वाले टीबी की होती है. जबकि शरीर के अन्य हिस्सों में होने वाले टीबी की भी जांच होनी चाहिए.

क्या भारत से टीबी को 2025 तक ख़त्म किया जा सकता है. इस पर डॉ शकील कहते हैं

कोविड ने दो सालों में हेल्थ सिस्टम के अन्य क्षेत्रों में कोई काम होने नहीं दिया. ऐसे में टीबी डिटेक्शन (पहचान) की योजना भी पीछे चली गई थी. देश में टीबी का एक्टिव नहीं बल्कि पैसिव सर्विलेंस (निगरानी) होता है. यानि जो रिपोर्ट सिस्टम तक पहुंच गया केवल उसी की पहचान हो पाती है. पोलियों की तरह खोज-खोज कर टीबी मरीजों की पहचान नहीं की जाती है. सरकार केवल पहचान करने के लिए कहती है लेकिन उसके लिए कोई परफॉर्मा नहीं है.

डॉ शकील आगे कहते हैं

टीबी मरीज़ों का एक बड़ा हिस्सा सरकारी अस्पतालों में जाता ही नहीं है. क्योंकि सिस्टम में जाने पर टाइम बहुत लगता है. सरकारी अस्पताल के कर्मचारियों का व्यव्हार फ्रेंडली नहीं होता है. वहीं अगर मरीज के खखार से टीबी की पुष्टि नहीं होती है तो डॉक्टर उन्हें दवा भी नही देते हैं.

हालांकि जिला टीबी सेंटर बांका के सीनियर ट्यूबरकुलोसिस सुपरवाइजर शिवरंजन इस बात से इंकार करते हैं. शिवरंजन बताते हैं

टीबी पेशेंट को खोजने के लिए हमलोग समय-समय पर दलित-महादलित टोले, शहरी स्लम बस्तियों, जेल या ईट-भट्टे जैसी जगहों पर कैंप लगाते हैं. टीबी पेशेंट पाए जाने पर उनका इलाज शुरू किया जाता है. मरीज़ के परिजन और उनके संपर्क में आए लोगों को भविष्य में टीबी से पीड़ित होने से बचाने के लिए टीपीटी प्रोग्राम भी चलाया जा रहा है.

टीपीटी (टीबी प्रीवेंटिव थेरेपी) के तहत मरीज के संपर्क में आए व्यक्तियों की जांच की जाती है. कीटाणु के कोई भी लक्षण दिखने पर वजन के अनुसार दवाई का डोज तय किया जाता है. 

टीबी के खात्में में सामाजिक डर बन रही बाधा

समाज में टीबी को छुआछूत की बीमारी माना जाता है. जिसके कारण बीमारी पहचान में आने के बाद भी लोग इसका नियमित इलाज नहीं करवाते हैं. जबकि टीबी का इलाज कराने वालों का ट्रीटमेंट अगर बीच में रुका तो बीमारी ठीक नहीं होती है, और उनकी जान जा सकती है.

डॉ शकील कहते हैं

समाज में टीबी और कुष्ठ जैसी बिमारियों को स्टिग्मा (कलंक) की तरह देखा जाता है. अगर किसी लड़की को टीबी हो गया तो मां-बाप उसका इलाज छुपकर करवाते हैं. उनको लगता है अगर किसी को पता लग गया तो उसकी शादी में दिक्कत होगा. अगर शादी हो गयी है तो उसको सबसे छुपकर दवा खाना पड़ता है. दवा खत्म होने के बाद भी वो किसी को बताती नहीं है. जबकि टीबी की दवा शुरू होने के बाद उसको बीच में नहीं छोड़ना चाहिए.

सरकार को अगर टीबी को जड़ से ख़त्म करना है तो सबसे पहले समाज में बैठी इस गलत धारणा को मिटाना होगा. जिससे लोग बीमारी को छुपाने के बजाए उसका इलाज कराएं. साथ ही सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं को मरीज़ों के लिए सुगम बनाया जाए ताकि लोग वहां जाने से घबराएं नहीं. 

भारत से 2025 तक टीबी का खात्मा