2005 में बिहार के मुख्यमंत्री बनने के एक साल बाद ही नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने राज्य की पंचायतों में महिलाओं के लिए 50% आरक्षण की शुरुआत की थी, ताकि अधिक से अधिक महिलाएं मुख्यधारा की राजनीति में शामिल हो सकें। इस तरह की आरक्षण की शुरुआत करने वाला बिहार पहला राज्य था। इस आरक्षण के लागू होने के 15 साल के बाद महिला मुखिया कैसे निर्णायक की भूमिका में काम कर रही है। महिला प्रतिनिधि अपने क्षेत्र और अधिकार को लेकर कितनी जागरूक है?एक सफल महिला जनप्रतिनिधि का संघर्ष पुरुष की अपेक्षा कितना ज्यादा है? डेमोक्रेटिक चरखा इन सारे सवालों की पड़ताल की है।
बिहार में 2021 में 11 चरण में हुए पंचायत चुनाव में 8,072 मुखिया पदों में 3,585 सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित थीं। जिसमें अनुसूचित जाति की महिलाओं के लिए 90 सीट और पिछड़ा वर्ग के लिए 1,357 सीट थीं। इसके बावजूद बावजूद बिहार की राजनीति में उन्हें बराबरी की हिस्सेदारी नहीं मिली हैं।
महिला मुखिया रबड़ स्टांप के अलावा कुछ भी नहीं
बिहार के दरभंगा जिला के कठरा पंचायत से इस बार कुमकुम देवी विजयी हुई है। कठरा पंचायत के ही एक युवा नाम न बताने की शर्त पर डेमोक्रेटिक चरखा को बताते हैं कि, “चुनाव से पहले सोशल मीडिया पर वोट फॉर कुमकुम देवी नहीं बल्कि वोट फॉर राज कुमार झा लिखा जा रहा था। राजकुमार झा पंचायत के पूर्व मुखिया भी रह चुके हैं। महिला सीट होने की वजह से अपनी पत्नी को मुखिया सीट पर उतारना उनकी मजबूरी थी। सच तो यह हैं कि गांव के 99% लोगों के नजर में कुमकुम देवी नहीं बल्कि राजकुमार झा मुखिया हैं।”
वही मधुबनी जिला के रैयाम पश्चमी पंचायत से इस बार चुनाव जीती राम सुंदरा देवी को अपने पंचायत के बारे में भी पूरी जानकारी नहीं है। राम सुंदरा देवी फेसबुक पर है। लेकिन उन्हें मोबाइल से फोन लगाने और काटने के अलावा कुछ भी नहीं आता है। पंचायत के लोग मुखिया राम सुंदरा देवी से फरियाद मांगने की बजाय उनके पति भगवान ठाकुर से मिलते है। कितने लोगों को इंदिरा आवास मिला है? पंचायत की कितनी जनसंख्या है? कितने लोगों को राशन कार्ड मिला है? इन सवालों से अनजान राम सुंदरा देवी बताती हैं कि, “परिवार के कहने पर मुखिया चुनाव में खड़े हुए थे। पति भगवान ठाकुर ग्राम राजनीति से जुड़े हुए हैं इसलिए उनकी इच्छा थी।”
उनकी जीत उनके पति की वजह से हुई हैं
वही मोतिहारी जिला के ग्राम पंचायत राज उत्तरी बरियारिया की नवनिर्वाचित मुखिया संध्या देवी मानती हैं कि उनकी जीत उनके पति की वजह से हुई है। साथ ही सरकारी योजनाओं की जानकारी उनके पति को उनसे ज़्यादा है। संध्या देवी बताती हैं कि, “चुनाव के दौरान वो बस अंतिम 4 दिनों में पंचायत के प्रत्येक घर घूमी थी। बाकी पूरा प्रचार-प्रसार का जिम्मेदारी उनके पति पप्पू महतो पर था। पति समाजसेवी और राजनीति से दिलचस्पी रखते है। महिला सीट होने की वजह से मुझे खड़ा किया गया, नहीं तो वह खुद खड़ा होते।”
साल 2019 के जेंडर कार्ड में प्रकाशित हुई सेंटर फॉर केटेलाइज़िंग चेंज की एक स्टडी के अनुसार महिला पंचायत प्रतिनिधियों में से 77% को लगता था कि उनके मतदान क्षेत्र में कुछ ख़ास बदलाव करने में वे सक्षम नहीं हैं।
दलित महिला प्रतिनिधि कठपुतली महिलाएं से भी बढ़कर
इस बार अनुसूचित जाति की महिलाओं के लिए 90 सीट रिजर्व थीं। जेंडर रिपोर्ट के अनुसार बिहार में अनुसूचित जाति की महिलाओं की साक्षरता दर 15.91% है, जबकि
साल 2011 की जनगणना के मुताबिक बिहार राज्य में अनुसूचित जाति जनसंख्या में तीसरे स्थान पर है।
बिहार की पंचायत राजनीति को इंडिया टुडे की तरफ से कवर करने वाले मंजीत ठाकुर बताते हैं कि, “यूं तो बिहार में सभी महिला प्रतिनिधि को पारिवारिक पुरुषों ने कठपुतली या रबड़ स्टांप बनाकर यूज़ किया है। लेकिन अनारक्षित सीट की स्थिति और भी बद से बदतर रहती है।
क्योंकि आज भी कई जगह दलित वर्ग को चुनाव लड़ने के लिए आर्थिक क्षमता और समाजिक मोटिवेशन की जरूरत है। जिसका फायदा गांव का कोई अमीर व्यक्ति उठाता है।
दलित महिला को आगे कर देता है। वो अनपढ़ है। चुनाव में खर्च करके उसको जीत दिलाता हैं फिर चंद कमीशन देकर उसके नाम पर राज करता है। उस पंचायत की स्थिति ऐसी होती हैं कि हार-जीत मुखिया प्रत्याशी की नहीं उन्हें चुनाव में उतारने वाले ‘निवेदक’ की होती है।”
इस कमज़ोर तस्वीर की वजहें क्या हैं?
इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली की 2011 की रिपोर्ट भी इस विषय पर चिंता जता चुकी है। रिपोर्ट के मुताबिक भारतीय राजनीति का पुरुषवादी होना राजनीति में महिलाओं की कमज़ोर स्थिति के प्रमुख कारण रहे हैं।
आईटी कानपुर और आई आई एम लखनऊ से पढ़ चुकी पूर्णिया की जया झा, गूगल में भी काम कर चुकी है। जया बताती हैं कि, “अशिक्षा, कम उम्र में विवाह और वित्तीय असुरक्षा के चलते निर्वाचित होने के बावजूद भी महिलाएं सार्वजनिक जीवन में काम करने का आत्मविश्वास नहीं जुटा पाती हैं। सरकार के द्वारा जीती गई मुखिया को बेहतरीन ट्रेनिंग दिया जाए तो वे अच्छा काम कर लेगी।”
साल 2019 के जेंडर कार्ड के अनुसार बिहार में महिलाओं की साक्षरता दर राष्ट्रीय स्तर के 64.6% के मुकाबले 51.5% है। वहीं इक्विटी फाउंडेशन द्वारा किशनगंज, मधुबनी, वैशाली और पूर्वी चंपारण जिले में की गई रिसर्च के अनुसार 15-19 साल की 46% महिलाएं शादी कर चुकी हैं। वहीं सिर्फ 20% महिलाओं को घर से बाहर बाज़ार या किसी रिश्तेदार के यहां जाने के लिए अपने पति की अनुमति नहीं लेनी पड़ती।
पूर्वी चंपारण के अरेराज अनुमंडल क्षेत्र के बभनौली पंचायत के पूर्व मुखिया अमित उपाध्याय बताते हैं कि, ” बिहार की जो ग्रामीण संस्कृति है उसमें औरत क्षेत्र में घूमना नहीं चाहती है। हमलोग भी मजबूरी वश महिलाओं को खड़ा करते हैं। कल को कोई ऊंच नीच हुआ तो पूरा परिवार बदनाम होता है।”
कुछ सफल उदाहरण
जहां ज्यादातर महिला प्रतिनिधि सिर्फ नाम के लिए इन पदों पर हैं। न तो अपने क्षेत्र के लिए स्वयं काम कर पाती हैं और न ही उन्हें इन पंचायतों का मुखिया माना जाता है। वहीं सीतामढ़ी की सिंहवाहिनी पंचायत की मुखिया रहीं ऋतू जायसवाल और पालिगंज भाग -15 , जिला परिषद क्षेत्र से
लगातार चौथी बार जितने वाली श्वेता विश्वास बिहार में महिला पंचायत प्रतिनिधि के रूप में एक मिसाल कायम कर रही है।
ऋतू जयसवाल एक आईएस की पत्नी है। जो 2016 में सिंहवाहिनी पंचायत की मुखिया बनी थीं। उन्हें पंचायत में किए गए काम के वजह से 2019 में चैंपियंस ऑफ चेंज अवार्ड से सम्मानित किया। 2020 के विधानसभा चुनाव में ऋतु जयसवाल राजद के सीट से विधानसभा चुनाव लड़ी थी। जिस वजह से इस बार उसी पंचायत से उनके पति अरुण कुमार मुखिया बने हैं। वहीं श्वेता विश्वास जदयू की एक बेहतरीन नैत्री के रूप में बिहार में उभर रही है। अभी श्वेता बिहार प्रदेश जदयू के महिला प्रकोष्ठ की अध्यक्ष है।
स्वेता बताती हैं कि, “यह बात एक दम सच हैं कि एक महिला प्रतिनिधि का इतना आगे जाना उसके परिवार की सहमति के बिना नामुमकिन है। बिहार में महिलाओं को लोग किचन तक ही सीमित रखना चाहते हैं। हालांकि धीरे-धीरे इस सोच में परिवर्तन हो रहा है। तभी तो हम लोगों को काम के बदौलत वोट मिलता है ना कि पति के नाम की वजह से।”
विधानसभा में भी दिनों-दिन कम होता जा रहा महिला प्रतिनिधित्व
1957, जब बिहार-झारखंड एक था, तब हुए चुनाव में 30 महिलाएं विधानसभा पहुंची थीं। 1962 में यह संख्या 25 और 1967 में 6 हो गई। फिर इसके बाद 2000 तक लगभग यह आंकड़ा 20 के आसपास ही रहा। फिर झारखंड अलग होने के बाद 2005 के चुनाव में मात्र तीन महिलाएं ही जीत सकीं। फिर 2010 में 25 और 2015 में 28 महिलाएं और 2020 में 26 विधायक बनने में सफल रहीं। जबकि दिनों दिन महिला मतदाताओं का भागीदारी बढ़ रहा है। 2010 में महिलाओं का वोटिंग प्रतिशत 54.49 था,जबकि पुरुषों का 51.12 रहा। इसी तरह 2015 में 60 फीसदी से ज्यादा महिलाओं ने वोटिंग में भाग लिया जबकि पुरुषों का मतदान प्रतिशत सिर्फ 53 रहा। फिर 2020 के हुए विधानसभा चुनाव में 59.7 फीसद महिला मतदाताओं ने वोट किया जबकि सिर्फ 54.7 फीसद पुरुष मतदाताओं ने ही मतदान किया था।
सरकार बन नहीं रही, लेकिन बना रही हैं
सुपौल में नारी सशक्तिकरण के लिए काम कर रही एनजीओ ‘ग्राम्यशील’ से जुड़ी रंजना पाठक बताती हैं कि, “बिहार में महिलाओं को सशक्त बनाने में सरकार का योजना काम कर रहा है। तभी तो पति जिस पार्टी को वोट देने कहता हैं, पत्नी मतदान केंद्र में उसे वोट नहीं दे रही है। मतलब सरकार बना रही हैं, धीरे-धीरे सरकार भी बन जाएगी। इसके लिए सबसे बड़ा बाधा पितृ सत्तात्मक समाज है। पुरुष इतनी आसानी से अपने हाथों से नियंत्रण जाने देना पसंद नहीं करेंगे। इसलिए वाजिब भागीदारी मिलने में कुछ समय तो लगेगा ही।”