आज दुनिया भर में 8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जा रहा है। साल 1921 को पहली बार था जब 8 मार्च के दिन महिला दिवस मनाया गया था। महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए जरूरी है बराबर की भागीदारी दिलाना और यह बराबरी तभी सुनिश्चित हो पाएगी जब महिलाएं चारदीवारी से निकलकर विश्व भर में अपना परचम लहराए।
विश्व भर की बात तो दूर की है यदि भारत की ही बात करें तो भारत जैसे देश में आदिकाल से महिलाओं को एक तरफ देवी की तरह पूजा जाता है वही उनके खिलाफ आए दिन जघन्य अपराध कर दिए जाते हैं। लगातार यह दलीले दी जाती है कि अब स्थिति में परिवर्तन आ चुका है तथा वह शिक्षा, स्वास्थ्य, खेल, सुरक्षा और नौकरी के क्षेत्रों में आगे बढ़ रही है। लेकिन हम यह नहीं जानते कि इन क्षेत्रों में महिलाओं के बराबरी का आलम क्या है? कई महिलाओं को नौकरी मिलने के बाद भी उन्हें समान वेतन नहीं दिया जाता।
शिक्षा के क्षेत्र में अभी भी महिलाओं को लेकर रूढ़िवादिता जारी है। ऐसे में क्या वास्तव में हमारे देश में महिलाओं को लेकर उनके मान सम्मान और सुरक्षा को बिना लैंगिक भेदभाव के समानता का अधिकार प्राप्त हुआ है?
महिलाओं पर निर्णय थोपने की जगह उन्हें निर्णायक बनाने की जरूरत
सवाल यह उठता है कि महिलाओं की भागीदारी कैसे सुनिश्चित की जाए? यदि महिलाओं को सशक्त बनाना है तो इसके लिए सबसे सार्थक चीज है कि उनकी राजनीति में भागीदारी सुनिश्चित की जाए।
महिलाओं को राजनीति में कदम रखने के बाद भी कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। ज्यादातर मामलों में तो उन को विधायक या मंत्री के रूप में इसीलिए उतारा जाता है जिससे उन्हें एक चुनावी दाव बनाकर इस्तेमाल कर सकें। ज्यादातर दलित महिलाओं को तो धमकी तथा चुनाव से बाहर रहने पर मजबूर किया जाता है।
महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी इसलिए भी नहीं बन पाती क्योंकि देश में अधिकांश महिलाएं अशिक्षित है शिक्षा तक पहुंच ना होने की वजह से उन्हें राजनीति का ज्ञान प्राप्त नहीं है। आर्थिक समस्याएं तो पहले से ही विद्यमान है।
साल 1947 में भारत के आजादी के बाद पहला चुनाव 25 अक्टूबर 1951 को करवाया गया। लेकिन एक लोकतांत्रिक देश बनने के बाद भी आजादी के बाद से केवल भारत में एक ही महिला प्रधानमंत्री और एक ही महिला राष्ट्रपति बनी। यदि भारत के 31 राज्यों पर नजर डाले तो 18 राज्य में कोई महिला मुख्यमंत्री ही नहीं है।
संसद की बात करें तो लोकसभा में जहां 66 महिला सदस्य हैं वहीं राज्यसभा में सिर्फ 33 महिला विधायक हैं। यह आंकड़े बेहद चिंताजनक है लेकिन जब राजनीतिक भागीदारी की बात आती है तो महिलाओं के वोट देने के अधिकार भी उन पर भी बात करना जरूरी हो जाता है।
आपको बता दें साल 2014 के आम चुनाव में प्रस्तुत किए गए आंकड़ों के अनुसार बस 66% महिलाओं ने ही वोटिंग की कई बार महिलाओं की वोटिंग परिवार के सदस्य उनके पति के निर्णय पर आधारित होती हैं जहां वह किसे वोट डालना है यह खुद न तय करके परिवार तथा पुरुषों के दबाव में आकर वोट करती हैं। इससे साफ पता चलता है कि महिलाएं राजनीति में स्वच्छंद नहीं है। जब महिलाएं संसद तक अपनी पहुंच ही नहीं बना पाएंगी, निर्णायक की भूमिका ही नहीं निभा पाएंगी तो आखिर उनकी स्थिति में बदलाव कैसे आएगा।
देश लगातार प्रगति और विकास की राह पर आगे बढ़ रहा है। बदलाव हो रहे हैं लेकिन अभी भी स्थिति में कोई बदलाव नहीं है और ना ही उनकी स्थिति को बदलने के लिए किसी तरह के कदम उठाए जाते हैं क्योंकि ज्यादातर निर्णायक की भूमिका में पुरुष है और वह महिलाओं के खिलाफ पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं।
इसका सबसे प्रबल उदाहरण है महिलाओं के लिए लोकसभा और राज्यों के विधानसभा में 33 फीसदी आरक्षण का विधयेक जो कई सालों से लटका हुआ है। इसीलिए महिलाओं की स्थिति में परिवर्तन लाने के लिए सबसे जरूरी है कि उनके राजनीतिक भागीदारी सुनिश्चित की जाए जिससे वे भी अपने लिए फैसले ले सके।