पटना में स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट के इंटीग्रेटेड ट्रेफिक मैनेजमेंट सिस्टम के तहत 30 स्थानों पर मॉडर्न ट्रैफिक लाइट लगने जा रही है. इस ट्रैफिक टेक्निक की सबसे ख़ास बात यह है कि इसमें नियम को तोड़ने पर चालान स्वत: ही जनरेट हो जाएगा. लेकिन बिना सही ट्रैफिक आंकलन, विश्लेषण और मूल्यांकन के किसी भी तकनीक में सरकार द्वारा पैसे क्यों खर्च कर दिए जाते हैं जबकि फिर इसे बदलना ही पड़ जाता है.
बिहार सरकार हमेशा अपने निर्णय की वजह से चर्चा में रहती है. मामला चाहे शराबबंदी का हो या फिर BPSC में होने वाले त्वरित बदलाव का. इस प्रकार के निर्णय लेने के पश्चात् बिहार सरकार पर सदैव सवाल उठते रहे हैं. एक ऐसा ही मामला पटना में लगे ट्रैफिक सिग्नल को लेकर लिए गए निर्णय पर देखने को मिल रहा है. बिहार सरकार पटना में लगे ट्रैफिक सिग्नल टेक्नोलॉजी को फिर से बदलने जा रही है. पटना में पहले से जितने भी चौक-चौराहे हैं वहां के सिग्नल पर लगी लाइट्स फिर से बदली जाएंगी.
शहर की ट्रैफिक स्थिति जाने बिना क्यों खर्च कर दिए जाते हैं पैसे
सरकार अपनी इस परियोजना को एक उपलब्धि के तौर पर भले देख ले लेकिन कुल मिलाकर इससे सरकार को नुकसान ही हुआ है. आपको बता दें कि 2015 में 79 चौक चौराहों पर करीबन ₹67 करोड़ रुपये खर्च करके नीदरलैंड की हाईटेक टेक्नोलॉजी वाली ट्रैफिक लाइट लगाई गई थी. इस तकनीक की सबसे ख़ास बात यह थी कि इसमें लाइट वाहनों की संख्या के हिसाब से रेड और ग्रीन हो जाया करती थी. फिर 2017 में इसे बदल दिया गया और टाइमर वाली ट्रैफिक लाइट लगा दी गई. इस तकनीक से भी ट्रैफिक संचालन में समस्या पैदा हुई और इसे भी बदलना पड़ रहा है.
बिना सही आंकलन और रणनीति के क्यों खर्च कर दिए जाते हैं पैसे
यह सवाल इसलिए भी उठना ज़रूरी है कि सरकार जब भी अपने बजट का कोई हिस्सा किसी परियोजना के ऊपर ख़र्च करती है तो उससे पहले एक पूर्व आंकलन बेहद ज़रूरी हो जाता है. अगर बिहार सरकार ने इस पूर्व आंकलन रणनीति को अपनाया होता तो ट्रैफिक लाइट को लेकर पिछले 7 सालों में तीन बदलाव नहीं करने पड़े होते. सरकार को चाहिए था कि वह शहर की ट्रैफिक व्यवस्था को लेकर पहले बात करें और उसके हिसाब से फ़िट बैठने वाले ट्रैफिक तकनीक को लगाने में पैसे ख़र्च करें.
इससे पहले वाली तकनीक में भी ख़र्च किए गए थे 75 लाख
अब लगने जा रही ट्रैफिक टेक्निक से पहले जिसका इस्तेमाल बिहार सरकार कर रही थी वह है टाइमर वाली ट्रैफिक लाइट. इसको लेकर भी कई समस्याएं पैदा हुई हैं. इसे लेकर कहा गया है कि यह सिस्टम लोगों को समझ में नहीं आ पा रहा है. लेकिन सवाल ये उठता है कि इस तकनीक को लगाने में भी बिहार सरकार ने 75 लाख रूपये ख़र्च किए हैं जबकि इससे 2 साल ठीक पहले 2015 में 67 करोड़ रुपये ट्रैफिक लाइट्स पर खर्च किए गए थे.
आख़िर कब तक जनता के टैक्स का इस्तेमाल करके ख़र्च किया जाने वाला पैसा यूं ही इस प्रकार के कार्यों में बर्बाद किया जाता रहेगा?
कई जगह पर ट्रैफिक लाइट्स बंद और कहीं यूं ही व्यर्थ लगी हुई
पटना के कई स्थानों पर ट्रैफिक लाइट बेवजह लगा दी गई हैं और कहीं-कहीं पर तो लाइट्स होते हुए भी यूं ही बंद हैं. बंद पड़ी ट्रैफिक लाइट्स में कारगिल चौक गोलंबर, एयरपोर्ट गोलंबर, अनिसाबाद गोलंबर, इनकम टैक्स गोलंबर, राजेंद्र नगर गोलंबर, दिनकर गोलंबर शामिल हैं. इन स्थानों पर ट्रैफिक लाइट्स तो है लेकिन बंद पड़ी है. जानकारी के मुताबिक 2014 में ट्रैफिक लाइट लगाने के लिए जो टेंडर निकला था उसमें 94 स्थानों का चयन किया गया था.
लेकिन स्थान चिन्हित नहीं किए जाने की वजह से यह केवल 57 जगहों पर ही लग सका जिसके बाद फिर 2018 में 22 जगहों पर और ट्रैफिक लाइट लगा दी गई. लेकिन फिर 7 महीने बाद इन्हें बंद कर दिया गया. हैरानी की बात तो यह है की राजधानी पटना की कई स्थानों पर ट्रैफिक लाइट बेवजह ही लगा दी गई हैं. यहां उनका कोई इस्तेमाल नहीं है.
कई स्थानों पर तो एक से ज़्यादा ट्रैफिक लाइट कतारबद्ध तरीके से लगाए गए हैं जिनका कोई इस्तेमाल ट्रैफिक नियंत्रण के लिए नहीं किया जाता. शहर पटना के अशोक सिनेमा के पास डिवाइडर पर लगा ट्रैफिक लाइट इसका ही उदाहरण है. इसके अलावा बोरिंग रोड चौराहा पर भी ऐसी सिग्नल लाइट्स लगी हैं जिसका कोई इस्तेमाल नहीं किया जाता. ऐसा इसलिए भी क्योंकि वहां से किसी प्रकार की गाड़ी का मुराव ही नहीं है. ऐसे में इन बेवजह लगी ट्रैफिक लाइट्स पर किए गए व्यर्थ निवेश पर सरकार क्या जवाब देगी?
जल्दबाज़ी में हर बार हो रही है गलती
इनकम टैक्स गोलंबर के पास बंद पड़े ट्रैफिक लाइट्स के विषय में हमने वहां के एक दुकान वाले से बात की जिसने हमें बताया कि
"यहां पर तो ट्रैफिक लाइट बहुत समय से खराब है. ट्रैफिक पुलिस वाले ही ट्रैफिक को देखते हैं."
इस विषय पर हमने बोरिंग रोड चौराहा स्थित एक ट्रैफिक पुलिस वाले से बात करने की कोशिश कि लेकिन उन्होंने इस विषय पर जवाब देने से मना कर दिया और कहा कि
"इस विषय पर हम लोगों से क्या पूछते हैं. हम तो केवल अपना काम कर रहे हैं."
यही हाल डाक बंगला चौराहा का भी है. यहां पर भी लगभग सारी ट्रैफिक लाइट्स बंद पड़ी हैं जो बिल्कुल काम नहीं करतीं. ट्रैफिक पुलिस वाले ही इसे नियंत्रित करते हैं. इस विषय पर हमने जानकारी लेने के लिए डाक बंगला चौराहा पर स्थित एक फ़ोटोकॉपी दुकानदार से बात की और हमने पूछा कि यह ट्रैफिक लाइट्स कब से बंद हैं. तो उसने बताया कि
"ट्रैफिक लाइट्स तो हमेशा बंद ही रहती हैं. मैंने शायद ही कभी इन ट्रैफिक लाइट्स को चालू देखा है. आमतौर पर रात के समय इन ट्रैफिक लाइट्स का इस्तेमाल किया जाता है. लेकिन यह कार्य भी पुलिस की उपस्थिति में ही होता है.
ट्रैफिक पुलिस की अनुपस्थिति में सिग्नल सिस्टम भी पड़ जाता है बेकार
यह बात सुनकर थोड़ी अटपटी लग सकती है लेकिन यह बिल्कुल सच है. हमने प्रदेश की राजधानी पटना के कई चौक-चौराहों पर सिग्नल होने के बावजूद भी ट्रैफिक पुलिस सिपाही को खड़ा देखा है जिनके हाथ में एक लाइटेड स्टिक होती है. इससे रेड और ग्रीन जैसी लाइट निकलती है और उसके द्वारा गाड़ियों को एक तरफ़ से रोका और दूसरी तरफ़ से आने दिया जाता है.
लेकिन यदि ट्रैफिक पुलिस अनुपस्थित हो तब नियम का पालन नहीं हो पाता. यह कई बार देखा गया है कि पटना में भीषण जाम की समस्या देखने को मिली है जो सिग्नल की आधुनिक तकनीक से भी नियंत्रित नहीं हो पा रही. बिना ट्रैफिक पुलिस की उपस्थिति के इसे सुचारु रूप से चला पाना असंभव हो जाता है. ऐसे में सरकार के लिए यह सोचने वाली बात है कि ट्रैफिक के नए सिस्टम लाने की आवश्यकता है या ट्रैफिक पुलिस में अधिक भर्तियों की?
तकनीक कोई भी हो शहर में जाम नियंत्रण करना सबसे बड़ी प्राथमिकता
सरकार को यह समझना होगा कि उसके शहर की पहली प्राथमिकता क्या है. चौक-चौराहों पर ट्रैफिक लाइट्स हाईटेक टेक्नोलॉजी की लगी हो या फिर टाइमर वाली इससे फ़र्क नहीं पड़ता.
फर्क इस बात से पड़ता है कि जो भी तकनीक लगाई जाए वह शहर के जाम को नियंत्रित कर सकने में सक्षम हो. राजधानी पटना में प्रतिदिन अलग-अलग इलाकों में काफ़ी जाम लगा रहता है जो ट्रैफिक पुलिस के द्वारा भी नियंत्रित नहीं हो पाता. ऐसे में अब यह जरूरी है कि कोई बाहरी तकनीक लाकर इस समस्या का समाधान किया जाए ताकि शहर में जाम की समस्या ना बने और आने-जाने वाले लोगों को इस दैनिक समस्या से निजात मिल सके.