आख़िर कहां उड़ गयी बिहार की राजकीय पक्षी 'गौरैया'?

छोटे आकार वाली खूबसूरत ‘गौरैया’ जो कि बिहार की राजकीय पक्षी भी है हमारे बचपन की यादों में हैं. कभी इनका बसेरा इंसानों के घर-आंगन

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नाजिश महताब
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आख़िर कहां उड़ गयी बिहार की राजकीय पक्षी 'गौरैया'?
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छोटे आकार वाली खूबसूरत ‘गौरैया’ जो कि बिहार की राजकीय पक्षी भी है हमारे बचपन की यादों में हैं. कभी इनका बसेरा इंसानों के घर-आंगन में हुआ करता था. एक वक्त था जब हर घर-आंगन में सूप से अनाज फटका जाता था. सूप फटकने के बाद गिरे अनाज को खाने, गौरैया फुर्र से आ जाती थी. बचपन में इसे पकड़ने की कोशिश करना हमारे खेल का हिस्सा हुआ करता था. लेकिन तेज़ी से होते शहरीकरण ने इसे नन्हें पक्षी को हमसे दूर कर दिया है.

बिहार की राजकीय पक्षी

इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर ने 2002 में इसे लुप्तप्राय प्रजातियों में शामिल कर दिया था. गौरैया, गिद्ध के बाद सबसे ज़्यादा संकट ग्रस्त पक्षी में से एक है. बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी से जुड़े प्रसिद्ध पर्यावरणविद मोहम्मद ई. दिलावर ने 2008 से गौरैया संरक्षण पर काम करना शुरु किया था. उन्हीं के प्रयासों के कारण 20 मार्च 2010 से ‘गौरैया दिवस’ मनाया जा रहा है.  

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राज्य में राजकीय पक्षी गौरैया की संख्या कितनी, सरकार के पास नहीं है कोई आंकड़ा

गौरैया की घटती आबादी पर्यावरण के लिए चिंताजनक है. गौरैया के संरक्षण और उसकी उपयोगिता को देखते हुए दिल्ली सरकार ने साल 2012 में गौरैया को राजकीय पक्षी घोषित किया था. इसके एक साल बाद साल 2013 में बिहार सरकार ने भी गौरैया को राजकीय पक्षी घोषित कर दिया.

हालांकि बिहार का राजकीय पक्षी होने के बावजूद सरकार ने इसके संरक्षण के लिए कोई विशेष पहल नहीं किया है. सरकारी पहल के नाम पर केवल दफ़्तरों में गौरैया के लिए घर लगाना और गौरैया दिवस पर नुक्कड़ नाटक या किसी कार्यक्रम का आयोजन कर देने भर से सरकार की ज़िम्मेदारी ख़त्म हो जाती है. 

राजकीय पक्षी घोषित करने के बाद भी बिहार सरकार गौरैया संरक्षण के लिए किसी कमिटी का निर्माण नहीं कर सकी है. राज्य में गौरैया की आबादी कितनी है इसका भी कोई आंकड़ा सरकार के पास नहीं है.

डेमोक्रेटिक चरखा ने पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन विभाग में एकोलॉजी के डायरेक्टर से गौरैया की मौजूदा संख्या पर जानकारी के लिए संपर्क किया. उन्होंने हमें बताया कि हमारे पास कोई डेटा मौजूद नहीं है. जब हमने उनसे पूछा कि सरकारी कार्यालय में कितने गौरैया घर बनें हैं तो इसपर भी उनके पास कोई जवाब नहीं मिला.

बिहार की राजकीय पक्षी

11 हज़ार साल पुराना रिश्ता फिर भी गौरैया उपेक्षित

आमतौर पर पूरी दुनिया मे गौरैया की 26 प्रजातियां पायी जाती हैं. जिसमें से भारत में इसकी 5 प्रजातियां मिलती हैं. हाउस स्पैरो प्रजाति को ही ‘घरेलू गौरैया’ कहा जाता है. यह गांव और शहरों में पाई जाती है.

आंकड़ें बताते हैं कि विश्व भर में घर-आंगन में चहकने और फूदकने वाली इस छोटी-सी चिड़िया की आबादी में काफ़ी कमी आई है. रॉयल सोसायटी ऑफ़ लंदन की 2018 की एक रिपोर्ट के अनुसार, इंसानों और गौरैयों के बीच का बंधन 11,000 साल पुराना है. घरेलू गौरैया के स्टार्च-फ्रेंडली होना उसके मानवीय परिवेश से जुड़े होने का ही सबूत है.

वैज्ञानिक अध्ययनों की बात करें तो यह प्रमाणित हुआ है कि घरों में रहने वाली गौरैया सभी जगहों पर इंसान का अनुसरण करती हैं, जहां इंसान नहीं रहते हैं, वे वहां पर नहीं रह सकती। बेथलहम की एक गुफ़ा से 4 लाख साल पुराने जीवाश्म के साक्ष्य से पता चलता है कि घरों में रहने वाली गौरैयों ने प्रारंभिक मनुष्यों के साथ अपना स्थान साझा किया था.

राजकीय पक्षी 'गौरैया' की घटती आबादी का कारण क्या है?

इसपर इनवायरमेंट वॉरियर के प्रेसिडेंट और गौरैया को बचाने के लिए काम कर रहे निशांत हमें बताते हैं

सिर्फ़ बिहार में ही नहीं पूरे देश में गौरैया की कमी देखी जा रही है. इनके कमी का मुख्य कारण है आहार की कमी. तत्काल में हम लोग जो खाना खाते हैं वो पॉलिश किया रहता है और गौरैया पॉलिश किया हुआ खाना पचा नहीं पाती है. इसी वजह से गौरैया की संख्या बिहार से कम होती जा रही है. साथ ही गौरैया बिहार से पलायन भी कर रही है.

निशांत आगे बताते हैं कि

गौरैया का जीवनकाल 3 साल का होता है. शुरुआती महीनों यानी अपने ग्रोथ आयु में गौरैया केवल कीड़े मकौड़े ही खाती हैं. लेकिन फ़सलों उत्पादन में कीटनाशकों का इस्तेमाल किए जाने के कारण कीड़े मर जा रहे हैं. जिसके कारण गौरैया के बच्चों को पर्याप्त मात्रा में कीड़े नहीं मिल पाते हैं जिससे उनका विकास अधूरा रह जा रहा है.

बिहार की राजकीय पक्षी

गौरैया की संख्या में कमी के पीछे है कई कारण

गौरैया की संख्या में कमी के पीछे  कई कारण हैं जिन पर लगातार शोध हो रहे हैं. गौरैया की संख्या में कमी के पीछे  कई कारण बताए जाते हैं:-

  • आहार की कमी
  • आवासीय संकट
  • खेतों में कीटनाशक का व्यापक प्रयोग
  • जीवनशैली में बदलाव
  • जलवायु परिवर्तन
  • गौरैयों का शिकार
  • गौरैया को बीमारी
  • मोबाइल फ़ोन टावर से निकलने वाले रेडिएशन

तेज़ शहरीकरण ने गौरैया का घर किया तबाह

गौरैया को घोंसला बनाने, छोटे बच्चों को खाना खिलाने और बसेरा करने के लिए विशिष्ट प्रकार के परिवेश की आवश्यकता होती है. खपरैल के घरों का तेज़ी से कंक्रीट के जंगलों में तब्दील होने से इनके आवास का संकट बढ़ गया है.

'ओ रे गौरैया' किताब के लेखक संजय कुमार जो पिछले कई सालों से बिहार में गौरैया के संरक्षण के लिए काम कर रहे हैं वो बताते हैं कि

2002 में गौरैया को लुप्तप्राय प्रजातियों में शामिल किया गया था, लेकिन अब ऐसा नहीं है. धीरे-धीरे गौरैया की संख्या बढ़ रही है. लेकिन बिहार से गौरैया पलायन कर रही है क्योंकि यहां अब उनके अनुकूल वातावरण नहीं है. जिसके वजह से बिहार में गौरैया की संख्या कम होती जा रही है.

बिहार की राजकीय पक्षी

संजय कुमार आगे बताते हैं कि

 बिहार सरकार द्वारा केवल कार्यक्रम किया जाता है. संरक्षण के नाम पेड़ों पर गौरैया का घर बनाया जा रहा है लेकिन गौरैया पेड़ पर बने घोसलों में नहीं रहती है. अगर बिहार सरकार गौरैया को वापस बुलाना चाहती है या यहां रोकना चाहती है तो उसके लिए ठोस कदम उठाने होंगे.

शहरों में इनके प्रजनन के लिए अनुकूल आवास ना के बराबर हैं. यही वजह है कि एक ही शहर के कुछ इलाकों में ये दिखती है तो कुछ में नहीं. लेकिन गौरैया संरक्षण में जुड़े लोग कृत्रिम घर बना कर गौरैया को प्रजनन के लिए आवास देने कि पहल चला रहे हैं. जिसमें गौरैया अंडे देने के लिए आ भी रही है.

गांव में अधिक संरक्षित हैं गौरैया

हालांकि गांव में गौरैया संकट ज़्यादा नहीं है क्योंकि फूस और मिट्टी के आवास गांव में आज भी मिल जाते हैं. शहरीकरण, औद्योगिक विकास और कृषि कार्यों में आ रहे बदलाव गौरैया के आवासों और प्रजनन क्षमता को नुकसान पहुंचाया है. कीटनाशक का व्यापक प्रयोग गौरैया की आबादी में गिरावट के प्रमुख कारण है. कीटनाशक सीधे तौर पर गौरैया को ना मारकर, अप्रत्यक्ष रूप से उनके खाद्य स्रोतों की उपलब्धता को कम कर रहे हैं.

गौरैया अपने शिकार के माध्यम से कीटनाशकों के संपर्क में आ जाती हैं, जो उनके शरीर में जमा हो जाते हैं. जो उनके लिए गंभीर स्वास्थ्य समस्याएं पैदा कर सकते हैं. गौरैया की घटती आबादी का एक कारण  जलवायु परिवर्तन भी है. गौरैया तापमान परिवर्तन के प्रति संवेदनशील होती हैं. उनके प्रजनन और प्रवास की प्रक्रिया को चरम मौसम की घटनाओं से बाधित किया जा सकता है.

कलमगार फाउंडेशन के सुमन भी बिहार गौरैया संरक्षण पर काम करते हैं. सुमन बताते हैं

शहर में अब पक्के घर बन जाने की वजह से गौरैया यहां नहीं रहती है. वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में भी कीटनाशक का इस्तेमाल बढ़ने से उनके फूड चेन में भी बाधा आई है. कीड़े-मकौड़े की संख्या कम होने से गौरैया को प्रोटीन नहीं मिल पाता है. गौरैया के बच्चे शुरू में मांसाहारी होते हैं. गोबर के कीड़ों और खेत के कीड़ों से ही उनके बच्चों को प्रोटीन मिलता है जिससे उनका विकास होता है. लेकिन कीटनाशकों के इस्तेमाल के कारण गौरैया का विकास नहीं हो पाता है.

बिहार की राजकीय पक्षी - गौरैया को खाना खिलाते

अब सोचने वाली बात ये है कि आख़िर सरकार अपने राजकीय पक्षी के संरक्षण के लिए क्या किया है?