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बिहार के बेगूसराय जिले के हजारों किसान भूमि अधिग्रहण के खिलाफ सड़क पर उतर आए हैं. किसानों का आरोप है कि सरकार उनकी भूमि हड़पने का प्रयास कर रही है. इसी क्रम में जिला प्रशासन ने किसानों के लगभग 700 एकड़ जमीन की जमाबंदी रद्द कर दी है. वहीं जमाबंदी रद्द करने से पूर्व किसानों को इसकी सूचना भी नहीं दी गई.
प्रशासन के इस कार्रवाई से आहत सैकड़ों किसानों ने रविवार 22 दिसंबर को मल्हीपुर चौक से सिमरिया धाम तक पैदल मार्च कर अपना विरोध दर्ज कराया. वहीं आगे आंदोलन तेज करने की चेतावनी दी है.
क्या है पूरा मामला?
जिला प्रशासन की और से सिमरिया गंगा घाट के आसपास औद्योगिक क्षेत्र विकसित करने के लिए मल्हीपुर मौजा के थाना नंबर 503, खाता संख्या 261 और खेसरा संख्या 890 व 891 को गैर मजरुआ खास भूमि घोषित करते हुए 700 एकड़ भूमि चिन्हित कर सैकड़ों किसानों की जमाबंदी एक साथ रद्द कर दी है. जबकि किसानों का कहना है कि वर्ष 1960 से इस वर्ष 25 नवंबर तक इन जमीनों की लगान रसीद सरकार द्वारा काटी गयी है.
किसानों का आरोप है कि उनके दादा-परदादा ही इस जमीन पर खेती करते आए हैं. चकिया गांव के रहने वाले 43 वर्षीय किसान मुकेश राय की 20 बीघा जमीन की जमाबंदी रद्द कर दी गई हैं. केवल चकिया गांव से लगभग 200 किसान परिवारों के जमीन की जमाबंदी रद्द की गई है.
विरोध प्रदर्शन में शामिल मुकेश राय बताते हैं “ये जमीन बंदोबस्त की है. वर्ष 1925 में इसे किसानों यानि रैयतों को दिया गया. तबसे 1953 तक किसान इसपर खेती करते रहे. 1953 के बाद गजट प्रकाशन के बाद जिस रजिस्टर 2 का निर्माण हुआ उसमें भी किसानों का नाम दर्ज है. सभी किसानों के नाम से जमाबंदी कायम कर लगान रशीद काटा गया. तब से लेकर इस वर्ष नवंबर तक लगान रशीद काटा गया. लेकिन नवंबर के बाद रशीद काटना बंद कर दिया क्योंकि एडीएम ने सारा जमाबंदी रद्द कर दिया.”
किसान बताते हैं कि सिमरिया गंगा को दोबारा 1953 में दे दी गयी थी. जिसके बाद 1960-61 में सभी किसानों ने केवाला भी बनाया है. राजेंद्र पुल और थर्मल (एनटीपीसी) के बीच कुल 1232 बीघा जमीन है. मुकेश राय आगे कहते हैं “हमारे दादा-परदादा इस जमीन पर खेती करते आए हैं. मैंने भी जबसे होश संभाला है उस जमीन पर खेलते-कूदते, खेती-बाड़ी करते बड़ा हुआ हैं. और सरकार को नियत समय पर लगान रशीद कटाए हैं और एकदिन अचानक सरकार कहती है कि यह हमारी जमीन नहीं है."
वहीं एडीएम का कहना है कि यह कार्रवाई अंचलाधिकारी (सीओ) के रिपोर्ट के आधार पर किया गया है जिसमें बताया गया है कि सभी जमीनें सरकारी यानी गैर मजरुआ आम है.
इस संबंध हमने अंचलाधिकारी से संपर्क करने का प्रयास किया. लेकिन वेबसाइट पर मौजूद नंबर उपलब्ध नहीं बता रहा है.
भूमि अधिग्रहण की लड़ाई काफ़ी पुरानी
इस क्षेत्र में किसानों और सरकार के बीच भूमि अधिग्रहण की लड़ाई नई नहीं है. राजेंद्र पुल निर्माण के समय जब किसानों की जमीन अधिग्रहित की गई थी उसका मुआवजा भी किसानों को अबतक नहीं मिला है. किसानों ने मुआवजे के लिए हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था. इस मामले में किसानों को जीत हुई थी.
मल्हीपुर बिशुनपुर गांव के रहने वाले रोहित कुमार की पांच बीघा जमीन घटनैस कार्रवाई के कारण गर मजरुआ घोषित कर दी गयी है. रोहित कुमार इस घटना पर कहते हैं “मुआवजे को लेकर हमने टाईटल सूट दायर किया था जिसमें हमें जीत मिली. यहां हाईकोर्ट बिहार सरकार को एक मौका देती है कि आप दो महीने में किसानों के साथ बैठकर जमीन के कागजों का निष्पादन करें. लेकिन इसपर सरकार ने एक दो नोटिस निकाला. लेकिन तारीख पर जाते हैं तो उस दिन एडीएम साहब बैठते ही नहीं थे.”
बीते 9 नवंबर को एडीएम ने यह कहते हुए किसानों की जमाबंदी रद्द कर दी कि कसन जमीन के कागजात नहीं जमा कर रहे हैं. जबकि किसनों का कहना है कि तारीख वाले दिन किसान कागजात के सहित उपस्थित तो हो रहे थे लेकिन सुनवाई के लिए एडीएम ही उपस्थित नहीं होते थे.
किसानों के इस आरोप पर हमने बरौनी अंचल के एडीएम से बात करने का प्रयास किया लेकिन उन्होंने हमारे कॉल का जवाब नहीं दिया.
किसानों का आरोप है कि पर्यटक स्थल सिमरिया धाम का निर्माण होने के बाद से ही सरकार की नजर शेष बची लगभग दो हजार बीघा जमीन पर हैं. सरकार चाहती है कि बिना मुआवजे का भुगतान किए ही जमीन सरकार को मिल जाए.
जमाबंदी रद्द होने से सात गांव प्रभावित
बेगूसराय जिले के बरौनी अंचल के अंतर्गत आने वाले सात गांवों- चकिया, मल्हीपुर, बिशनपुर, बिहट, सिमरिया, कसहा और बरियाही गांव के लगभग पांच हजार परिवार इस प्रशासनिक कार्रवाई से प्रभावित हुए हैं.
वहीं सिमरिया मौजा के खाता संख्या 458 के अंतर्गात आने वाले कई खेसरा के जमीन की रजिस्ट्री पिछले चार-पांच वर्षों से बंद कर दी गयी हैं. सिमरिया मौजा के अंतर्गत सिमरिया, कसहा, बरियाही, चानन, बिंदटोली, रूपनगर व सिमरिया घाट आते हैं. इन गांवों में रहने वाले लगभग 50 किसानों की करीब 100 बीघा जमीन प्रभावित हो गई है.
इससे पहले भी क्षेत्र की हजारों एकड़ जमीन औद्योगिक विकास के लिए सरकार द्वारा ली गयी है. राजेंद्र सेतू, एनटीपीसी थर्मल और फ़र्टिलाइज़र, आईओसीएल पाइपलाइन, बरौनी रिफाईनरी, एनएच निर्माण के समय भी किसानों की जमीन अधिग्रहित की गयी थी. इन सभी मामलों में किसानों को मुआवजा दिया गया है. इसके अलावे सिक्स लेन पुल के बगल अप्रोचिंग रोड निर्माण में भी कसानों की जमीन गई लेकिन इस मामले में मुआवजे के का भुगतान नहीं हुआ है.
मुकेश राय कहते हैं “जब आईओसीएल पाइपलाइन बिछाने का काम शुरू हुआ तो जिस भी किसान की जमीन प्रभावित हुई उसको मुआवजा मिला. आज भी जब साल-दो साल पर मरम्मती के लिए काम लगाया जाता है तो उक्त किसान को मुआवजा मिलता है. लेकिन अब सरकार कहती है कि वह हमारी जमीन नहीं है.”
किसान बताते हैं कि वे लोग लम्बे समय से इस क्षेत्र में जमीन की खरीद बिक्री भी कर रहे हैं. लेकिन इतने सालों में सरकार ने कभी उसपर रोक नहीं लगाया. कई लोगों ने उसपर घर का निर्माण भी कर लिया है.
मुकेश राय शिकायती लहजे में कहती है “मात्र दो फीसदी किसान ही आर्थिक तौर पर सक्षम है बाकि 98 फीसदी छोटे और गरीब किसान हैं. जिनके पास दो से तीन बीघा या 10 से 20 कट्ठा जमीन है. वे लोग किसी तरह जीवन यापन कर रहे हैं. जब थर्मल बन रहा तो कहा गया स्थानीय लोगों को रोजगार मिलेगा. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. उल्टा हमारा खेत उसके पानी, छाय (राख) और धूल से बर्बाद हो रहा है. लेकिन उसपर सरकार का कोई ध्यान नहीं है.”
“हमारे जीने का अंतिम विकल्प हमारा खेत हैं इसलिए जान दे देंगे, लेकिन जमीन नहीं देंगे.” यह नारा संयुक्त किसान संघर्ष समिति के सदस्यों का है. इस समिति से जुड़े सदस्यों ने सरकार को चेतावनी देते हुए कहा है कि अगर सरकार अपना फैसला वापस नहीं लेगी तो आंदोलन और तेज होगा जिसका नुकसान सरकार को उठाना पड़ेगा.