बिहार के गन्ना किसान को कब मिलेगा, फसल का उचित दाम और चीनी मिल का साथ

बिहार आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट 2023-24 के अनुसार, साल 2022-23 में राज्य में 214.76 लाख मीट्रिक टन गन्ने का उत्पादन हुआ, जबकि 62.74 लाख क्विंटल चीनी का उत्पादन हुआ है. वहीं साल 2021-22 में 42.6 लाख क्विंटल चीनी का उत्पादन हुआ था.

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बंद चीनी मील

बिहार की बंद हुई चीनी मिलों की मिठास कब लौटेगी? बंद हुई चीनी मिलों में काम कर चुके हज़ारों मज़दूरों और किसानों को उनका बकाया पैसा कब मिलेगा? और कब नए सिरे से शुरू हुई मिलों से बिहार के लोगों को रोज़गार मिलेगा? इन सब सवालों का जवाब शायद सरकार के पास नहीं हैं. तभी तो चुनाव के समय वोट के लिए मुद्दे उठाये जाते हैं और फिर मुद्दा ठंडे बसते में चले जाते हैं.

चीनी उद्योग मुख्य तौर पर भारत के दो प्रमुख क्षेत्रों (उत्तर, दक्षिण) में बंटा है. उत्तर में यूपी के बाद, बिहार, हरियाणा और पंजाब का स्थान आता है. वहीं दक्षिण में महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु और आंध्रप्रदेश में इसका विस्तार है.

आजादी से पहले बिहार में 35 चीनी मिल हुआ करती थी. उस समय बिहार देश के कुल चीनी उत्पादन में 40 फ़ीसदी का योगदान हुआ करता था. लेकिन 90 के दशक में हालात बदले और चीनी मिले बंद होने लगी. बिहार गन्ना विभाग के अनुसार राज्य में अब 11 चीनी मिल हैं. लेकिन साल 2023-24 में राज्य में नौ मिल ही कार्यरत थीं. मिल की संख्या में गिरावट के कारण देश के कुल चीनी उत्पादन में बिहार का योगदान घटकर लभभग 2.5 फ़ीसद रह गया है.

गन्ना और चीनी का उत्पादन बढ़ा

गन्ना बिहार में प्रमुख व्यावसायिक फसल है, जो राज्य में कृषि प्रसंस्करण उद्योगों को कच्चा माल और श्रमिकों को रोजगार उपलब्ध कराती है. बिहार आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट 2023-24 के अनुसार, साल 2022-23 में राज्य में 214.76 लाख मीट्रिक टन गन्ने का उत्पादन हुआ, जबकि 62.74 लाख क्विंटल चीनी का उत्पादन हुआ है. वहीं साल 2021-22 में 42.6 लाख क्विंटल चीनी का उत्पादन हुआ था.

गन्ना उद्योग विभाग के अनुसार वर्ष 2022-23 में राज्य में गन्ना की औसत उपज 98.73 प्रति हेक्टेयर थी. वहीं सबसे ज्यादा उत्पादन पश्चिम चंपारण (138.61 लाख टन) जिले में हुआ. जिसका राज्य के कुल उत्पादन में 64.54% से भी अधिक योगदान था. इसके बाद पूर्वी चंपारण में 15.63 लाख टन, गोपालगंज में 13.78 लाख टन, समस्तीपुर में 13.20 और बेगूसराय में 11.51  लाख टन गन्ने का उत्पादन हुआ था.

रिपोर्ट का कहना है की चीनी के उत्पादन में वृद्धि हुई है जबकि अगर साल 2018-19 के आंकड़ों से इसकी तुलना की जाए तो गन्ने का उत्पादन ज्यादा होने के बावजूद चीनी का उत्पादन कम हुआ है. साल 2018-19 में राज्य में 182.85 लाख मीट्रिक टन गन्ने का उत्पादन हुआ था जबकि चीनी का उत्पादन 84.02 लाख क्विंटल हुआ था, जो 2022-23 के उत्पादन से 21.28 लाख टन ज्यादा थी.

साल 2018-19 के बाद चीनी के उत्पादन में गिरावट का कारण शायद दो चीनी मिलों का बंद होना रहा हो. दरअसल, साल 2020 में सीतामढ़ी स्थित रीगा चीनी मिल के घाटे में जाने के बाद मिल मालिक ओमप्रकाश धनुका ने मिल को बंद कर दिया. मिल पर 25 हजार किसानों और 1200 कर्मचारियों के करोड़ो रूपए का भुगतान बकाया है.

गन्ना की खेती

वहीं 2021 में सासामुसा चीनी मिल भी बंद पड़ी है.

किसान नेता अशोक प्रसाद गन्ना किसानों का मिल के ऊपर करोड़ो रुपए  बकाया होने पर किसान की मज़बूरी और सरकार की विफलता को दोष देते हैं. उनका कहना है, अगर सरकार नियमित भुगतान की निगरानी करती तो किसानों को करोड़ों का नुकसान नहीं होता.

अशोक प्रसाद कहते हैं “बिहार में किसानों के नगदी आमदनी का साधन पशुपालन और गन्ना था. गन्ना का फसल नगदी फसल है. इसको उपजाकर घर में नहीं रखा जा सकता है. मिल वाले इसका फायदा उठाते हैं. इसलिए पैसा नहीं मिलने पर भी किसान हाथ-पैर जोड़कर फसल मिल को दे देता हैं. इस उम्मीद पर की आज नहीं तो कल पैसा मिल जायेगा. अगर किसान नवम्बर में फसल देना शुरू करता है तो मिल वाले पिछले मूल्य पर ही भुगतान करते हैं या पर्ची (रशीद) देकर छोड़ देते हैं.”

यहां सरकार का भी दोष है. सरकार को पेराई शुरू होने के पहले न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करना चाहिए. सरकार मूल्य तय करती है मार्च महीने में और मिल नए मूल्य का भुगतान करती हैं अप्रैल-मई महीने में, इस दौरान किसानों के करोड़ो रुपये से मिल को ब्याज मिलता है.

गन्ना किसानों की मज़बूरी

राज्य सरकार गन्ना उत्पादन में लगे किसानों को सहूलियत पहुंचाने का दावा करती है. सरकार का दावा है कि वह किसानों को सिंचाई के साधन उपलब्ध कराकर, अनुदान पर बीज उपलब्ध कराकर और प्रशिक्षण कार्यकर्मों के माध्यम से सशक्त बना रही है.

लेकिन सहरसा जिले के नरियार ब्लाक के किसान इसतरह की किसी भी सुविधा से इंकार करते हैं. यहां के किसानों की गन्ना फसल पानी के अभाव में बर्बाद हो गयी. सिंचाई का साधन नहीं होने के कारण किसानों ने निजी बोरिंग के माध्यम से फसल बचाने का प्रयास किया. लेकिन मंहगे पटवन लागत के कारण किसान एक से ज्यादा बार फसल को पानी नहीं दे सके.

किसान छोटे लाल दास ने एक बीघे में गन्ना का फसल लगाया था लेकिन पानी के आभाव में फसल सूख गया. छोटे लाल कहते हैं “यहां ना तो फसल बचाने के लिए पानी का व्यवस्था है और न ही बेचने के लिए नजदीक में कोई मिल. इस साल एक बीघा में गन्ना लगाए थे सब सूख गया.” 

छोटे लाल के अलावा, सुरेंद्र दास, धर्मेंद्र दास, रिंकू देवी और किसन दास की भी गन्ना फसल सूख चुकी है. इन सभी किसानों ने आगे गन्ना लगाने से इंकार किया है.

मुख्यमंत्री गन्ना विकास योजना के तहत पंचायती राज्य संस्थाओं के जरिए चुनिंदा किसानों को सब्सिडी दर पर प्रमाणित बीज उपलब्ध कराया जाता है. किसानों को अधिकतम 2.5 एकड़ जमीन के लिए प्रमाणित ईख बीज की खरीद पर 210 रुपए प्रति क्विंटल और अनुसूचित जाति,  अनुसूचित जनजाति के लिए 240 रुपए प्रति क्विंटल सब्सिडी दी जाती है.

गन्ना की खेती में सिचाई की समस्या

आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार साल 2022-23 में बीज उत्पादन, वितरण और कृषक प्रशिक्षण कार्यक्रमों के लिए 1275.62 लाख रुपए खर्च किए गए थे. वहीं 2.9 लाख टन बीज बांटे गये थे.

अनुदान देने के नियम को किसान नेता अशोक प्रसाद सरकार का दिखावा बताते हैं. उनका कहना है “किसान तबाह है. गन्ना किसान को जो मूल्य मिलना चाहिए वह नहीं मिल रहा है. खाद, बीज, कीटनाशक, सिंचाई सबका दाम आसमान छू रहा है, जिसके कारण खेती का कुल लागत बढ़ गया है. लेकिन गन्ना का न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं बढ़ा है. गन्ना का रेट सरकार 300 से 400 रूपए प्रति क्विंटल तय की है. लेकिन हमारी मांग है कि सरकार इसे 600 रूपए प्रति क्विंटल करें.”

गन्ना का न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं बढ़ने पर अशोक प्रसाद कहते हैं “पहले गन्ना का रेट चीनी उत्पादन से तय होता था. अब गन्ना से इथेनॉल, बिजली, कागज सब बना रहा हैं. यानि अब गन्ना के हर भाग का उपयोग होता है तो गन्ना का रेट केवल चीनी से क्यों तय किया जा रहा है. किसानों को भी उसका पूरा लाभ मिलना चाहिए.

चीनी मिल मालिक करते हैं शोषण

किसान को सबसे जायदा नुकसान जिस चीज से है सरकार उसपर ध्यान ही नहीं देती है. फसल तैयार करने से लेकर उसको बाजार उपलब्ध कराने तक किसानों का शोषण होता है. उत्पादित फसल को बेचकर जब किसान बेचने जाते है वहां भी उन्हें नुकसान उठाना पड़ता है.

अशोक प्रसाद बताते हैं “किसानों का चीनी मिल वाले शोषण करते हैं. गन्ना लेते समय उनके साथ घटतौली (कम वजन मापना) करते है. किसान के पास अगर एक क्विंटल गन्ना है तो मिल में 80 किलो ही मापा जाता है. और यह कालाबाजारी सभी चीनी मिलों या वजन करने वाले स्थान पर होता है.”

अशोक प्रसाद यहां मिल संचालकों द्वारा संरक्षित क्षेत्र (reserve area) के किसानों के साथ भेदभाव का मुद्दा उठाते हैं. वे कहते हैं “हर चीनी मिल का अपना रिज़र्व एरिया है. उस रिज़र्व एरिया के किसान अपने गन्ने से गुड़ नहीं बना सकते हैं. उन्हें हर हाल में अपने इलाके के मिल को अपना गन्ना देना है. इसी बात का मिल वाले फायदा उठाते हैं. वह पहले इलाके के बाहर के किसानों से गन्ना खरीदते हैं. और जब सीजन समाप्त होने पर रहता है. जब उसको बाहर से गन्ना नहीं मिलता है तब वह अपने इलाके के किसान का गन्ना लेते हैं.”

बड़े किसानों को तो इससे नुकसान नहीं होता है लेकिन छोटे किसान जिनके पास दो-तीन बीघा खेत हैं उन्हें काफी नुकसान होता है. उदहारण के लिए 10 बीघा जमीन वाला किसान अगर पांच बीघा में गन्ना लगाएगा तो बाकि में तेलहन, दलहन या धान-गेंहू लगा लेगा. लेकिन दो बीघा जोत वाला किसान अगर एक बीघा में गन्ना लगाया है तो वह चाहेगा की फसल समय पर कटकर मिल पहुंच जाए ताकि वह दूसरी फसल लगा सके.

किसान नेता यहां सरकार से नियमों में बदलाव की मांग करते हैं. उनका कहना है “ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए की छोटे किसानों की फसल पहले खरीदी जाए. साथ ही फसल तौलते समय वजन में कटौती ना की जाए.”

बेगूसराय का छौडाही प्रखंड, गढ़पुरा और समस्तीपुर जिला का रोसरा, हसनपुर,  हसनपुर चीनी मिल का रिज़र्व एरिया है. इस इलाके के गन्ना किसान अपने गन्ने का गुड़ नही तैयार कर सकते. अगर इस क्षेत्र के किसान गुड़ तैयार करते हुए पकड़े जाते हैं तो उनपर क़ानूनी कार्रवाई की जाती है.

किसान नेता कहते हैं “पहले क्षेत्र में सैकड़ों गुड़ तैयार करने की मशीने लगती थीं. लेकिन इस नियम के बाद एक भी नहीं है. जबकि होना चाहिए था अगर फसल किसान का है तो वह किसकों देगा, किसको नहीं देगा इसका फैसला वह खुद करता.”

चीनी मिल की संख्या नहीं बढ़ा सकी सरकार

बंद हुई चीनी मीलों को शुरू करने की मांग जनता लम्बे समय से कर रही है. 2005 के विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान नीतीश कुमार ने चीनी मिल का मुद्दा उठाया था. मोतीपुर चीनी मिल के मैदान में आयोजित जनसभा में मुख्यमंत्री प्रत्याशी नीतीश कुमार ने किसानों और चीनी मिल के मजदूरों से दुबारा मिल शुरू किए जाने का वादा किया था. लेकिन सरकार बनाने और लगभग 20 सालों से बिहार की सत्ता में काबिज नीतीश कुमार अपना वादा पूरा नहीं कर पाए.

वहीं समाधान यात्रा के दौरान सासामुसा चीनी मिल शुरू किए जाने का वादा भी नीतीश कुमार कर चुके हैं  

ऐसा नहीं है की मिल खोलने का वादा केवल नीतीश कुमार ने ही किया. बल्कि बिहार में नीतीश कुमार के सहारे सत्ता में आने वाली बीजेपी और 2014 के लोकसभा चुनाव में पीएम पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने भी बिहार की जनता को चीनी मिल का सपना दिखाया था.

अप्रैल 2014 में नवादा जिला मुख्यालय के आईटीआई ग्राउंड में चुनावी जनसभा को संबोधित करते हुए नरेंद्र मोदी ने जनता से पूछा था आखिर वारिसलीगंज चीनी मिल से दशकों से धुआं क्यों नहीं निकला है? इसे सुनकर जनता के मन में उम्मीद जगी की शायद पीएम बनने पर नरेंद्र मोदी मिल को चालू करवा देंगे. लेकिन नरेंद्र मोदी ने पीएम पद पर अपना दो कार्यकाल पूरा कर लिया लेकिन आज भी वारिसलीगंज चीनी मिल के ताले बंद है. बीते कुछ समय से उसकी जगह सीमेंट फैक्ट्री शुरू किये जाने की बात कही जा रही है. लेकिन स्थानीय लोग इस फैसले से सहमत नहीं है. 

इसके अलावा सीतामढ़ी स्थित रीगा चीनी मिल भी शुरू नहीं किया जा सका है. गृह मंत्री अमित साह ने 2024 के लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान सरकार बनने पर इसे शुरू करने का वादा किया था.

बंद चीनी मिल पार्ट 2

साल 2020 से बंद इस चीनी मिल के लिए बिहार सरकार ने तीन बार टेंडर निकाला है लेकिन किसी कंपनी ने इसमें रूचि नहीं दिखाई है. अब दो सितम्बर को चौथी बार नीलामी होगी. नीलामी प्रक्रिया में भाग लेने के लिए कंपनियों या उद्योगपतियों को 16 अगस्त तक 50 लाख रूपए जमा करने होंगे. वहीं 31 अगस्त तक 4.30 करोड़ रुपए जमा करने होंगे.

राज्य में अभी बगहा, हरिनगर, नरकटियागंज, मझौलिया, गोपालगंज, सिधवलिया, हसनपुर, लौरिया और सुगौली में चीनी मिल कार्यरत हैं.

बिहार औद्योगिक प्रोत्साहन नीति 2016 के तहत सितम्बर 2023 तक राज्य सरकार को विभिन्न उद्योग लगाने के लिए 1934 प्रस्ताव मिले थे जिसमें से प्रथम चरण में 1689 को मंजूरी दी गयी. इसमें पांच चीनी मिलों के विस्तार के लिए 1922.34 करोड़ रुपए का निवेश प्रस्तावित है. लेकिन अबतक इनपर कोई काम शुरू नहीं हो सका है.

बिहार में चीनी मिल शुरू किये जाने का वादा नेताओं के लिए 'सत्ता की चासनी' चखने का भर का रास्ता बनकर रह गया है. जो सरकार बनाने से पहले वादा तो करते हैं, पर सरकार बनते ही इसे अगले पांच सालों के लिए डब्बे में बंद कर देते हैं.  

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