वो मैरून रंग की भागलपुरी सिल्क मेरी मां की आखिरी निशानी है. आज भी उस साड़ी को पहनकर मैं उनको अपने साथ महसूस करती हूं. मेरी शादी के वक्त मां ने मुझे वो साड़ी दी थी.” ये कहना है स्कूल शिक्षिका अनीता कुमारी का.
अनीता कहती हैं “आज भी साड़ी का रंग और चमक वैसे ही बनी हुई है. जबकि इसे लगभग 50 साल हो गये हैं. पिछले ही साल अपने बेटे की शादी पर मैंने इसे पहना था. ऐसे भी स्कूल के फंक्शन में कभी-कभी पहनती हूं. आज भी इसके सामने बाकि साड़ियां फीकीं पड़ जाती हैं.”
भारतीय महिलाओं के पहनावे में साड़ियां खास स्थान रखती हैं. किसी भी खास अवसर पर महिलाएं साड़ी पहनना पसंद करती हैं. खासकर शादियों में साड़ी पहनने और देने का रिवाज रहा है. आज भी बिहार में शादी के अवसर पर लड़कियों को बनारसी और सिल्क की साड़ियां दी जाती हैं. एक समय था जब बिहार में सिल्क (silk in Bihar) साड़ियों में भागलपुरी सिल्क (Bhagalpur silk) का खास स्थान हुआ करता था. लोग इसकी खरीदारी करने दूर-दूर से भागलपुर तक जाया करते थें.
लेकिन भागलपुरी सिल्क के उत्पादन में लगे बुनकरों को बाजार और उनके मेहनत का सही दाम नहीं मिलने के कारण यहां का कारोबार मंदा होता जा रहा है. सिल्क बुनकर के रूप में काम करने वाले कारीगरों की आर्थिक स्थिति खराब हो रही है. वे अपने पुरखों का काम छोड़कर अब बड़े शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं.
सरकार की उदासीनता बुनकरों को ना काम का उचित दाम दे रही है और ना स्थायी रोजगार दे रही है.
भागलपुरी सिल्क की विश्वस्तरीय पहचान हो रहा धूमिल
भागलपुर में नाथनगर, चंपानगर, हसनाबाद, नरता, गढ़कछारी खंजरपुर, मुजाहिदपुर, लोदीपुर जैसे इलाकों में सिल्क उद्योग फैला हुआ है.
जिससे 25 हजार से ज्यादा बुनकर परिवार जुड़ा हुआ है. भागलपुरी सिल्क की खासियत है कि वो आधुनिकता के साथ-साथ अपनी पुरानी सभ्यता को भी अपने में समेटे हुए है. यहां के बुनकर सिल्क के कपड़े से साड़ियों के साथ-साथ, दुपट्टा, सूट-सलवार, कुर्ता, शॉल यहां तक की चादर का कपड़ा हाथ से बुनकर तैयार करते हैं. भागलपुरी सिल्क बहुत ही हल्की, मुलायम और आरामदायक होती है. अपने बुनावट और गुणवत्ता के कारण इसकी मांग देश में हीं नहीं विदेशों में भी है.
सिल्क कपड़ों, खासकर सिल्क से बनी साड़ियों का कारोबार करने वाली शिखा एमजे कहती हैं “जो रेशम के धागे आज से पांच साल पहले तीन हजार रुपए किलो मिलते थे वो आज नौ हजार रुपए किलो हो गए हैं. जब कच्चे माल का रेट बढ़ता है तो जाहिर है उससे बनने वाले प्रोडक्ट (उत्पाद) का दाम भी बढ़ेगा. लेकिन भागलपुर के बुनकरों या व्यवसायियों के साथ मजबूरी है कि हमें आज भी पुराने रेट पर सामान बेचना पड़ रहा है. सरकार ने आज तक यहां मार्केट या ऐसा कोई प्लेटफार्म नहीं बनाया जहां हम अपना प्रोडक्ट बेच सके.”
शिखा आगे कहती हैं “सरकार ना बुनकरों की मदद कर रही है और ना हम जैसे व्यवसायियों की जो स्थानीय कला को बचाने के लिए प्रयास कर रहे हैं.”
‘कच्चा माल आपूर्ति योजना’ का नहीं मिला लाभ
बुनकरों को रेशम का धागा मुहैया करने के लिए ‘धागा आपूर्ति योजना’(YSS) की शुरुआत की गयी थी. लेकिन सच्चाई यह है कि आज भी छोटे बुनकरों और कारोबारियों को इसका लाभ नहीं मिला है. बुनकर आज भी बाजार दर पर ही धागा खरीद रहे जिसपर ना तो उन्हें सब्सिडी मिलता है और ना ही कोई छूट.
साल 2021-22 में सरकार ने यार्न आपूर्ति योजना का नाम बदलकर कच्चा माल आपूर्ति योजना कर दिया है. इस योजना के तहत बुनकरों को 15% सब्सिडी पर कच्चा माल आपूर्ति किया जाना है. साथ ही खुले बाजार में धागे की गुणवत्ता और कीमत की निगरानी भी करना है. इस योजना का कार्यान्वयन 2025-26 तक किया जाना है.
भागलपुर में हैंडलूम कपड़ा के व्यवसाय से जुड़े जफर कहते हैं “सब्सिडी पर धागा कहां मिलता हैं किसी को पता नहीं है. ना मुझे और ना ही मेरे पहचान में काम करने वाले बुनकरों को कभी इसका लाभ मिला है. सरकार की किसी भी योजना का लाभ केवल बिचौलियों और दलालों को मिलता है. आम कारीगर को कभी इसका लाभ नहीं मिला है.”
भागलपुर के बुनकर 'यार्न बैंक' की मांग लंबे समय से कर रहे हैं. नेशनल हैंडलूम डेवलपमेंट कॉरपोरेशन ने लगभग 13 साल पहले यार्न बैंक बनाने की घोषणा किया था लेकिन आज तक इसका निर्माण नहीं हुआ है. कच्चे धागे के मूल्य वृद्धि का एक कारण यार्न बैंक का नहीं होना है.
भागलपुर में कच्चे धागे की आपूर्ति चेन्नई, कोलकाता, सूरत जैसे शहरों से होता है. वहीं कोकून झारखंड और उत्तराखंड से मंगाया जाता है. कुछ मात्रा में कोकून का उत्पादन बांका जिले में होता है. छोटे बुनकर आज भी व्यवसाइयों से धागा खरीदने को मजबूर हैं जो उनसे मनमाना मूल्य वसूलते हैं.
कोकून बैंक बनाने की बात अधूरी
वहीं कोकून बैंक (cocoon bank) की बात करते हुए जफर कहते हैं “बांका में कोकून बैंक बनाने की बात हुई थी. लेकिन कई बार कोई चीज बनने के बाद भी काम करेगी इसकी कोई गारंटी नहीं है. बांका में पहले उद्योग विभाग के पास कोकून बैंक बना था जिसे बाद में जीविका दीदी को दे दिया गया था. लेकिन आज वो काम कर रहा है या नहीं इसकी जानकारी सरकार को भी नहीं है.”
रेशम बुनकर खादी ग्रामोद्योग संघ के अध्यक्ष मो. परवेज कहते हैं “भागलपुर में हम लंबे समय से यार्न बैंक की मांग कर रहे हैं लेकिन सरकार ध्यान नहीं दे रही है. बुनकर स्थानीय दुकानदारों से मनमाने रेट पर धागा खरीदते हैं. अगर यहां कोई यार्न बैंक होता तो उन्हें कम कीमत पर धागा मिलता.”
बुनकरों को विकास योजनाओं का नहीं मिला लाभ
भागलपुर में हैंडलूम और पावरलूम से दो तरह के कपड़े तैयार होते हैं. इन कपड़ों पर हैंडब्लॉक, मंजूषा, मधुबनी और स्क्रीनप्रिंट से डिजाइन तैयार किया जाता है. हैंडलूम से तैयार होने वाले कपड़े थोड़े मंहगे होते हैं. जिसकी शुरूआती कीमत 2500 से 25,000 तक होती है लेकिन प्रतिस्पर्धा में बने रहने के लिए यहां कारीगरों को इसकी कीमत कम करनी पड़ती हैं.
बुनकर के तौर पर काम करने वाले कारीगर ज्यादातर 65 वर्ष से 55 वर्ष की उम्र के हैं. कम उम्र के युवा अब इस पारंपरिक काम को नहीं करना चाहते हैं क्योंकि यहां काम का उचित दाम नहीं मिल पता है.
शिखा कहती हैं “कम उम्र के कारीगर मशीन पर काम कर रहे हैं. लेकिन वह भी कुछ साल बाद बाहर काम करने चले जाते हैं. क्योंकि यहां रोजाना 300 से 400 रूपए की कमाई होती है जिससे बड़ा परिवार चलाना मुश्किल है.”
केंद्र सरकार बुनकरों के लिए राष्ट्रीय हथकरघा विकास कार्यक्रम (NHDP), क्लस्टर विकास योजना (CDP) और हथकरघा बुनकर व्यापक कल्याण योजना (HWCWS) चलाया जा रहा है लेकिन इसका लाभ बहुत ही सीमित संख्या के लोगों को मिला है.
जफर कहते हैं "बहुत बार सरकारी योजनाएं बनाने वाले को ही नहीं पता है कि हमें क्या चाहिए. आप बुनने वाले को क्या ट्रेनिंग देंगे? ट्रेनिंग और सर्टिफिकेट के नाम पर लाखों करोड़ों खर्च कर दिए जाते हैं. अगर इसी पैसे को मार्केट देने के लिए खर्च किया जाए, तो सही मायने में इसका फायदा लोगों को मिल सकता है.”
भागलपुर की साड़ियों और कपड़ों को जीतना सम्मान बाहर के राज्यों और देशों में मिला उतना बिहार में ही नहीं मिला. साथ ही हुनरमंद कारीगरों को उनके काम का सही सम्मान नहीं मिला.