मुंबई के महिला सभा को संबोधित करते हुए डॉ भीमराव आंबेडकर ने कहा था “नारी राष्ट्र की निर्मात्री है, हर नागरिक उसकी गोद में पलकर बढ़ता है, नारी को जागृत किये बिना राष्ट्र का विकास संभव नहीं है.” भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति पर अपने विचार व्यक्त करने वाले भीमराव आंबेडकर शायद पहले ऐसे सामाजिक चिंतक थे, जो महिलाओं की समस्या को लिंगीय दृष्टिकोण से समझने का प्रयास कर रहे थे. उनके नारीवादी दृष्टिकोण के केंद्र में भारतीय समाज की सभी महिलाएं थी.
डॉ आंबेडकर के नारीवादी दृष्टिकोण के वैचारिकी में ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक व्यवस्था और समाज में व्याप्त परंपरागत, धार्मिक एवं सांस्कृतिक मान्यताएं भी थी. वर्ष 1916 में डॉ आंबेडकर ने मानव विज्ञानी अलेक्जेंडर गोल्डनवाइज़र द्वारा कोलंबियन विश्वविद्यालय, यू.एस.ए. में आयोजित सेमिनार में ‘कास्ट इन इंडिया: देयर मैकेनिज्म, जेनेसिस एंड डेवलपेमंट’ शीर्षक पत्र पढ़ा जो जाति और लिंग के बीच अंतरसंबंधों की समझ पर आधारित था.
महिला शिक्षा
डॉ आंबेडकर महिलाओं को सामाजिक, शैक्षणिक और राजनीतिक स्तर पर समानता का अधिकार दिलाना चाहते थें. आंबेडकर शिक्षा के महत्व को बखूबी जानते थे इस कारण वे महिला और पुरुष दोनों को समान रूप से शिक्षित होने का अवसर देना चाहते थे. 1913 में न्यूयार्क में दिए एक भाषण में डॉ आंबेडकर ने कहा था “मां-बाप बच्चों को जन्म देते हैं, कर्म नहीं. मां अपने बच्चे के जीवन को उचित मोड़ दे सकती है. यह बात अपने मन पर अंकित कर यदि हम लड़कों के साथ अपने लड़कियों को भी शिक्षित करें तो हमारे समाज की उन्नति और तेज होगी.”
वहीं अमेरिका में पढ़ाई के दौरान अपने पिता के करीबी दोस्त को लिखे पत्र में आंबेडकर ने महिला शिक्षा को इंगित करते हुए लिखा था “बहुत जल्द भारत प्रगति की दिशा तय करेगा, लेकिन इस चुनौती को पूरा करने से पहले हमें भारतीय स्त्रियों की शिक्षा की दिशा में सकारात्मक कदम उठाने होंगे.” आंबेडकर का यह कथन आज के समय में काफ़ी प्रासंगिक हो चुका है.
महिला शिक्षा के दिशा में समाज ने तरक्की की है. पढ़ाई के अवसर मिलने पर महिलाएं आज उच्च शिक्षा प्राप्त कर, पुरुषों के लिए आरक्षित किसी भी काम में समान रूप से भागीदारी निभा रही हैं. आंबेडकर समाज की प्रगति का आकलन महिलाओं की प्रगति से करते थे. महिलाओं के महत्व को इंगित करते हुए बाबा साहब कहते हैं “मैं किसी समाज के प्रगति का अनुमान इस बात से लगाता हूं कि उस समाज की महिलाओं की प्रगति कितनी हुई है."
महिलाओं को दिया समानता और स्वतंत्रता का अधिकार
बाबा साहब महिलाओं को समाज में पुरुषों के समान अधिकार देने के पक्षधर थे. डॉ आंबेडकर संविधान में लिखते हैं “किसी महिला को सिर्फ महिला होने की वजह से किसी अवसर से वंचित नहीं किया जा सकता है और ना ही उसके साथ लिंग के आधार पर कोई भेदभाव किया जा सकता है.”
डॉ आंबेडकर ने महिलाओं को समानता और स्वतंत्रता की आवाज को मुखर करने के लिए वर्ष 1920 में 'मूकनायक' और वर्ष 1927 में 'बहिष्कृत भारत' जैसे समाचार पत्रों का प्रकाशन शुरू किया था. इन समाचारपत्रों के माध्यम से आंबेडकर हिंदू समाज में व्याप्त लिंगी असमानता और सामाजिक स्तर पर महिलाओं के साथ हो रहें भेदभाव को समाज के सामने ररखते थे.
भारतीय संविधान में राज्य द्वारा निर्मित किसी भी संस्थान में लिंग आधारित भेदभाव या प्रताड़ना के विरुद्ध कठोर दंडात्मक व्यवस्था के प्रावधान डॉ आंबेडकर ने ही किये थे. संविधान का अनुच्छेद 14 जहां सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्रों में समान अधिकारों और अवसरों की व्यवस्था करता है. वहीं अनुच्छेद 15 लिंग आधारित भेदभाव के निषेध को निर्देशित करते हुए राज्य सरकार को स्त्रियों के लिए अवसरों के स्तर पर विशेष प्रावधानों की व्यवस्था करने का निर्देश देता है.
इसी तरह अनुच्छेद 39 समान कार्य के लिए समान वेतन की व्यवस्था करने की बात करता है. साथ ही राज्यों को महिलाओं और बच्चों के लिए राज्यों को विशेष कदम उठाने की इजाजत भी देता है.
महिलाओं को दिया मातृत्व अवकाश का लाभ
डॉ अंबेडकर अपने राजनीतिक जीवन में जिस भी पार्टी के साथ रहे, दलित अधिकारों के साथ-साथ महिला अधिकारों के लिए भी काम किया. साल 1942 में गवर्नर जनरल एग्जिक्यूटिव काउंसिल में श्रम मंत्री रहते हुए महिलाओं के लिए ‘मैटरनिटी बेनिफिटी बिल’ को मंजूरी दी थी.
संविधान का अनुच्छेद 41 ‘कार्य के दौरान सुगम परिस्थितियों की व्यवस्था’ की बात करता हैं जिसके तहत कामकाजी महिलाएं को 26 हफ़्तों का मातृत्व अवकाश दिया जाता है. साथ ही 1948 में लाए गये Employees’ state insurance Act के तहत भी कर्मचारियों को अवकाश लेने का नियम बनाया था. साथ ही महिला कर्मचारियों को उनके स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं जैसे पीरियड या मैटरनिटी लीव देने की व्यवस्था की गयी थी.
अमेरिका जैसे विकसित देशों में भी महिलाओं को मैटरनिटी लीव देने का रास्ता साल 1987 में कोर्ट के दखल के बाद मिला था. अमेरिका ने साल 1993 में फैमिली एंड मेडिकल लीव एक्ट बनाकर आधिकारिक रूप से कामकाजी महिलाओं को पेड लीव दिया जाने लगा.
हिन्दू कोड बिल लाकर महिलाओं दिया अधिकार
डॉ आंबेडकर यह जानते थे कि स्त्रियों के समाजिक स्थिति में सुधार केवल उपदेश देने से नहीं होगा, उसके लिए संवैधानिक और कानूनी व्यवस्था करनी आवश्यक है. इसी संदर्भ में महाराष्ट्रीयन दलित लेखक बाबुराव बागुल कहते हैं “हिन्दू कोड बिल महिला सशक्तिकरण का असली अविष्कार है. इसी कारण आंबेडकर ने ‘हिन्दू कोड बिल’ लाया था.
यह बिल हिन्दू स्त्रियों की उन्नति के लिए प्रस्तुत किया गया था. इसके तहत हिन्दू महिलाओं को तलाक लेने से लेकर पैतृक संपत्ति में अधिकार दिया गया. वहीं तलाक के बाद गुजारा भत्ता देने का भी प्रावधान बनाया गया था. बहुविवाह प्रथा को रोकने के लिए एकल विवाह का प्रावधान भी इस बिल में किया गया था. महिलाओं को बच्चा गोद लेने का अधिकार भी दिया गया.
पैतृक संपत्ति में मिला अधिकार
महिलाओं को आर्थिक समानता देने के लिए उन्हें पैतृक संपत्ति में अधिकार दिया गया. यानि पिता के संपत्ति में बेटियों को भी बेटों के समान अधिकार दिया गया. भारतीय सामाजिक परिवेश में पुत्रों को उत्तराधिकारी के तौर पर देखा जाता है. बेटियों के जन्म के बाद भी परिवार बेटों की चाह रखते हैं. इस सामाजिक कुरीति के खिलाफ़ काम करते हुए हिन्दू कोड बिल में महिलाओं को उत्तराधिकार का अधिकार दिया गया है.
डॉ आंबेडकर कहते थे “सही मायने में प्रजातंत्र तब आएगा जब महिलाओं को पिता की संपत्ति मिलेगा. उन्हें पुरुषों के समान अधिकार मिलेंगे. महिलाओं की उन्नति तभी होगी, जब उन्हें परिवार-समाज में बराबरी का दर्जा मिलेगा. शिक्षा और आर्थिक तरक्की उनकी इसमें मदद करेगी.”
हालांकि उस समय हिन्दू कोड बिल को पास नहीं किया जा सका, जिसके बाद आंबेडकर ने इस्तीफा दे दिया. बाद में 1955-56 में हिन्दू कोड बिल के प्रावधानों को अलग-अलग करके: हिन्दू विवाह अधिनियम, हिन्दू तलाक अधिनियम, हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम और हिन्दू दत्तकग्रहण अधिनियम के रूप में पास किया गया.
25 दिसंबर 1927 को आंबेडकर द्वारा ‘मनुस्मृति’ जलाये जाने का एक कारण महिला उत्थान की चेतना भी थी. आंबेडकर का यह विचार कि “मैं नहीं जनता कि इस दुनिया का क्या होगा जब बेटियों का जन्म ही नहीं होगा.” उनके दूरदर्शी और महिलाओं के प्रति समानता की सोच को प्रदर्शित करता है.