खुद को पढ़ना-लिखना सिखाने वाली पहली बंगाली आत्मकथा लेखिका: राससुंदरी देवी

बंगाली साहित्य की सबसे शुरुआती महिला लेखिकाओं में से राससुंदरी देवी को गिना जाता है. उन्होंने 26 साल की उम्र में पढ़ना-लिखना सीखा और अपनी आत्मकथा लिख दी.

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राससुंदरी देवी

राससुंदरी देवी

जरा सोचिए कि आज के समय में आपको कोई लड़की या महिला पढ़ाई करते हुए नजर आए तो यह अजीब लगेगा! नहीं ना. मगर सन् 1800 में यह अजीब ही नहीं बल्कि एक अपराध हुआ करता था. उस समय महिलाओं के लिए पढ़ना-लिखना शापित समाज की कल्पना थी. अगर कोई महिला उस समय पढ़ाई करते हुए नजर आती तो उसे दंडित किया जाता था. मगर हर दौर में बंदिशें को तोड़ने वाली महिलाओं ने जन्म लिया है और समाज की चुनौतियों को पार करते हुए अपनी पहचान बनाई है. इस समय भी ऐसी ही एक महिला ने खुद पढ़ने-लिखने की ठानी और सब की नजरों से छुप-छुप कर रात के अंधेरे में पढ़ना-लिखना सीखा.

बंगाली साहित्य की सबसे शुरुआती महिला लेखिकाओं में से राससुंदरी देवी को गिना जाता है. उनकी आत्मकथा आमर जीवन बंगाली भाषा में पहली प्रकाशित आत्मकथा है. रससुंदरी देवी ने अपने पति और बच्चों की पहचान से अलग खुद को स्थापित किया था. उन्होंने 26 साल की उम्र में पढ़ना-लिखना सीखा और अपनी आत्मकथा लिख दी.

राससुंदरी देवी का जन्म 1809 में पाबना(पश्चिमी बांग्लादेश) के पोटाजिया के एक ग्रामीण जमींदार परिवार में हुआ था. बहुत कम उम्र में ही उनके सर से पिता पद्मलोचन राॅय का साया उठ गया. इसके बाद उनकी मां ने अकेले परवरिश की. बचपन में भी रससुंदरी देवी ने कभी औपचारिक शिक्षा हासिल नहीं की, मगर घर के पास ही लड़कों के साथ बैठकर मिशनरी महिला को पढ़ाते हुए देखा और सुना करती थीं. इस दौरान वह खुद बोर्ड पर लिखे अक्षरों को देखती, सुनती, दोहराती और सीखने की कोशिश करती थीं. बचपन की याददाश्त को उन्होंने सालों तक धुंधला नहीं होने दिया. उनका परिवार काफी धार्मिक था जहां से उन्हें हर स्थिति में भगवान को याद करना सिखाया गया था.

राससुंदरी देवी की शादी 12 साल की उम्र में फरीदपुर के एक संपन्न परिवार में हुई. उनके पति नीलमणि राॅय शादी के बाद उन्हें रामदिया गांव लेकर आ गए. ससुराल आने के बाद वह अपनी मां को काफी याद करती थी. मां की याद में वह पूरे-पूरे दिन रोती रह जाती थी. मगर ससुराल के लोग काफी भले थे, जिससे धीरे-धीरे वह ससुराल में ढल गई. उनकी सास की आंखों की रौशनी चली गई थी और वह बिस्तर पर थी. इस कारण सारा काम राससुंदरी को अकेले ही देखना पड़ता था. परिवार बड़ा था, नौकर भी काफी थे, मगर उन्हें घर के भीतरी परिसर में आने की इजाजत नहीं थी. 14 साल‌ की छोटी उम्र में ही उन्होंने पूरे घर की जिम्मेदारी संभाल ली. मगर कुछ अलग करने और साक्षर होने की इच्छा को उन्होंने अपने अंदर जगाए रखा.

शादी के 6 साल बाद 18 साल की उम्र में राससुंदरी मां बनी. मां बनने के साथ ही उनकी जिम्मेदारियां भी बढ़ गई. कुछ ही सालों में उन्होंने 12 बच्चों को जन्म दिया, मगर इनमें से सात की अकाल मृत्यु हो गई. बच्चों को संभालते हुए सालों तक समय बीत गया. मगर उन्हें फिर पढ़ने की इच्छा जागी. एक दिन पति के बाहर जाने पर उन्होंने हिम्मत जताते हुए ‘चैतन्य भागवत’ से एक पन्ना अलग कर रख लिया. अपने बच्चे के पास से ताड़ के पत्ते को चुरा लिया और किसी अपराधी की भांति इन सबको छिपा दिया.

वह अकेले छुप कर अक्षरों को फिर से पहचानने और बोलने का अभ्यास करने लगी. बचपन में सीखे हुए अक्षरों को उन्होंने किताबों से देखते हुए खुद को पढ़ना सिखाए. 26 साल की उम्र में वह पढ़ना लिखना सीख  गई. और काफी सालों बाद लिखना भी सीख गई.

59 साल की आयु में राससुंदरी देवी विधवा हो गई. पति की मृत्यु के कुछ महीनों बाद 1868 में उन्होंने अपनी पहली आत्मकथा का पहला संस्करण प्रकाशित किया. इसका आखिरी संस्करण 1897 में प्रकाशित हुआ. पहले संस्करण में 16 रचनाएं शामिल थी और दूसरे संस्करण में 15 रचनाएं थी. उन्होंने अपनी हर रचना में भक्ति गीत की कुछ पंक्तियां भी लिखी थी. अपनी आत्मकथा को उन्होंने दो तरीके से लिखा, जिसमें एक तरफ वह भगवान को अपनी साक्षरता के लिए धन्यवाद देती है. तो दूसरी ओर यह कहती हैं कि कैसे उन्होंने परिवार की अस्वीकृति और सामाजिक बहिष्कार के डर के बावजूद पढ़ाई की और अपने जीवन के फैसले खुद लिए.

शुद्ध बांग्ला में लिखी गई उनकी आत्मकथा को 19वीं सदी में महिलाओं के पढ़ने और साक्षर होने के संघर्षों को बताता है.

Rassundari Devi first Bengali autobiographer