“दोहरा अभिशाप” यह आत्मकथा डॉ. भीमराव आंबेडकर के विचारों से प्रभावित लेखिका कौशल्या बैसंत्री ने लिखी. उनका जन्म 8 सितंबर 1926 को महाराष्ट्र में हुआ. एक दलित बस्ती में जन्मी लेखिका कौशल्या ने बचपन से अपने आसपास महिलाओं के साथ हुए अत्याचारों को देखा और महसूस किया था. अपनी आत्मकथा में भी वह अपने जीवन में घटित कहानियों का ही जिक्र करती है.
कौशल्या बैसंत्री एक पढ़ी-लिखी दलित महिला थी. उनके माता-पिता बहुत मेहनती थे और वह भी बाबासाहेब के विचारों से काफी प्रभावित थे, जिसके परिणाम स्वरुप आर्थिक तंगी के बावजूद उन्होंने अपने बच्चों को शिक्षा के रास्ते ही बढ़ाते रहने का फैसला किया. पैसों की दिक्कत और दलित होने के कारण कई मौकों पर लेखिका के पिता को अपमानित भी होना पड़ा था. उनके माता-पिता दोनों ही नागपुर की इंप्रेस मिल में काम करते थे. पिता मशीनों में तेल डालते तो मां मिल में धागा विभाग में काम करती थी. इन दोनों को 10 बेटियां और 3 बेटे थे, मगर इनमें से 6 लड़कियां और एक लड़का ही बच सका था.
जिस समाज से कौशल्या आती थी वहां लड़कियों की शादी अमूमन जल्दी ही कर दी जाती थी. मगर थोड़ी शिक्षित होने के कारण उनकी शादी देरी से हुई. उन्होंने अंबेडकर आंदोलनों में सक्रिय रहने वाले देवेंद्र बैसंत्री से शादी की. मगर कुछ समय बाद ही दोनों के बीच आपसी मतभेद शुरू हो गए, इसमें कौशल्या कई बार मारपीट की भी शिकार हुई.
लेखिका कौशल्या की आत्मकथा से यह बात खुलती है कि एक पढ़ी-लिखी, स्वतंत्र महिला किस तरह से पति के पितृसत्तात्मक सोच की शिकार हो जाती है. हालांकि उन्होंने 40 साल तक इस सोच को झेला और उसके बाद अपने पति के खिलाफ पुलिस में शिकायत कर दी. उनका यह साहस प्रेरणादायक था, मगर समाज ने उनका साथ नहीं दिया. मगर इस दौरान उनकी बेटी सुजाता परमिता हर कदम पर मां के साथ रहीं.
कौशल्या बैसंत्री की आत्मकथा दोहरा अभिशाप में बस्तियों की महिलाओं की कहानी है. जिसमें से एक कहानी महिलाओं के प्रति पितृसत्तात्मक समाज को लेकर बहुत कुछ बयां करती है. उन्होंने लिखा है सखाराम की पत्नी दिन भर दिहाड़ी मजदूरी करती, सीमेंट ढोकर मिस्त्री को देती. वह देखने में सुंदर थी. मिस्त्री बदमाश स्वभाव का था और सखाराम की पत्नी को छेड़ा करता था. इस बात से परेशान उस महिला ने एक दिन मिस्त्री की छाती पर सीमेंट का गोला फेंक दिया और अपने पति को सारी बात बताई. मगर बीवी की मदद करने के बजाय सखाराम ने उसे खूब डांटा और उल्टा उस पर ही सवाल खड़ा किए. उसने वहां वहां और भी औरतें काम करती हैं, फिर वह तुम्हें ही क्यों छेड़ता है. उसने रात भर अपनी पत्नी को घर के बाहर रखा और सुबह उसे गधे पर बिठाया. इस घटना से आहत होकर महिला कुएं में कूद गई. अगले दिन महिला के माता-पिता ने कहा कि अच्छा हुआ कुल्टा मर गई.
इस एक कहानी से ही आत्मकथा “दोहरा अभिशाप” नाम बहुत कुछ समाहित करता है, जिसमें एक महिला बाहर शोषित होती है, घर पर भी शोषण होती है, मगर समाज उसके लिए आवाज उठाने और साथ देने वाला कोई नहीं.
अपनी आत्मकथा में वह लिखती है कि पुरुष प्रधान समाज औरतों का खुलापन बर्दाश्त नहीं कर पाता. पति भी इसी तक में रहता है कि पत्नी पर अपने पक्ष को उजागर करने के लिए चरित्रहीन का ठप्पा लगा दे.
उनकी आत्मकथा से दलित समाज के साथ भेदभाव-छुआछूत, पितृसत्तात्मक समाज की सोच, स्त्रियों पर दोहरा शोषण और एक स्वतंत्र विचारों वाली महिला का अपने लिए आवाज उठाना सब शामिल है. यह हिंदी की पहली दलित आत्मकथा है. अपने जीवन में तमाम संघर्षों को मजबूती से झेलते हुए 24 जून 2011 को कौशल्या बैसंत्री ने दुनिया को अलविदा कह दिया.