9 साल की शराबबंदी: सुधार की कोशिश या राजनीतिक दिखावा?

मद्य निषेध, उत्पाद एवं निबंधन विभाग के आंकड़ों के अनुसार, शराबबंदी लागू होने के बाद से अब तक 3.86 करोड़ लीटर शराब जब्त की जा चुकी है, जिसमें से 3.77 करोड़ लीटर यानी लगभग 97 प्रतिशत को नष्ट कर दिया गया है.

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नाजिश महताब
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शराबबंदी के 9 साल: आंकड़ों की बाजीगरी या असफल प्रयोग? 

बिहार में शराबबंदी को लागू हुए 9 साल पूरे हो चुके हैं. 5 अप्रैल 2016 को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पूर्ण शराबबंदी की घोषणा की थी, जिसे सामाजिक सुधार की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम माना गया. लेकिन नौ वर्षों बाद, आंकड़े और ज़मीनी हकीकत यह सवाल खड़ा कर रही है कि क्या यह फैसला वास्तव में कारगर रहा है, या फिर यह केवल एक राजनीतिक दिखावा बनकर रह गया है.

आंकड़ों की हकीकत: 

मद्य निषेध, उत्पाद एवं निबंधन विभाग के आंकड़ों के अनुसार, शराबबंदी लागू होने के बाद से अब तक 3.86 करोड़ लीटर शराब जब्त की जा चुकी है, जिसमें से 3.77 करोड़ लीटर यानी लगभग 97 प्रतिशत को नष्ट कर दिया गया है. 

अब तक कुल 14.32 लाख आरोपियों को गिरफ्तार किया गया है और 1,40,279 वाहनों को जब्त किया गया, जिनमें से 74,725 की नीलामी हो चुकी है. इन गिरफ्तारियों और जब्ती की संख्या दिखाती है कि राज्य में शराब की खपत और तस्करी पर अंकुश लगाने की जितनी कोशिशें की गईं, उतनी ही विफलताएं भी सामने आईं.

राजेश जो गया के निवासी हैं वो बताते हैं कि “ हमारा एक दुकान है. उस दुकान में हर दिन एक न एक ग्राहक ऐसा आता ही है जिसने शराब पी रखी है. ये सरकार का धोखा है बस शराब आज भी इतनी आसानी से मिल जाती है जिसका कोई ठिकाना न हो. आप चाहो तो घर बैठे भी शराब मंगवा सकते हो अब तो होम डिलीवरी होती है शराब की.”

जब्ती के बाद भी तस्करी जारी: पुलिस की कार्रवाई पर सवाल

विभाग की मानें तो उत्पाद विभाग से कहीं अधिक जब्ती पुलिस विभाग द्वारा की गई है. लेकिन यदि इतनी कड़ी कार्रवाई के बावजूद शराब की उपलब्धता बनी हुई है, तो यह प्रशासन की कार्यकुशलता पर सवाल उठाता है. अब भी जो शराब पुलिस के पास है, उसे कोर्ट की मंजूरी के बाद नष्ट किया जाएगा. यह दर्शाता है कि न्यायिक प्रक्रिया की धीमी गति भी कानून को प्रभावी ढंग से लागू करने में बाधा बन रही है.

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 शराबबंदी की असली कीमत: ज़हरीली शराब से 190 मौतें

सरकारी रिकॉर्ड के अनुसार, शराबबंदी के बाद से अब तक केवल 6 जिलों से मिली रिपोर्ट के मुताबिक 190 लोग ज़हरीली शराब की चपेट में आकर जान गंवा चुके हैं. वहीं एनसीआरबी की रिपोर्ट कुछ और ही कहानी कहती है—साल 2016 में सिर्फ 9 मौतों का जिक्र है, जबकि उसी वर्ष अगस्त में गोपालगंज के खजूरबानी में अकेले 19 लोगों की मौत हुई थी. कोर्ट ने भी इन मौतों की पुष्टि की थी, लेकिन ये आंकड़े सरकारी रिपोर्टिंग से नदारद रहे.यह साफ दर्शाता है कि ज़मीनी सच्चाई को आंकड़ों की आड़ में छिपाने की कोशिश की जा रही है.

 एनएफएचएस की चौंकाने वाली रिपोर्ट

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5) की रिपोर्ट बताती है कि बिहार के शहरी इलाकों में 15.5% पुरुष शराब का सेवन करते हैं, जबकि महाराष्ट्र जैसे राज्य में यह आंकड़ा 13.9% है. यानी शराबबंदी के बावजूद बिहार में खपत महाराष्ट्र से अधिक है.

गया के पंचान पुर हमें एक इंसान मिला जिसने शराब पी रखी थी. जब हमने उनसे बात की तो उन्होंने बताया कि “शराब तो बड़े आराम से हमें मिल जाता है. दिन भर के थके हुए रहते हैं तो रात में पी लेते हैं. सरकार ने शराब बंदी तो बस पेपर पर किया है हक़ीक़त में तो अब पहले से ज़्यादा शराब मिलता है.”

यह आंकड़ा इस बात का प्रमाण है कि शराब की उपलब्धता पर पूरी तरह से अंकुश नहीं लगाया जा सका है, और कानून केवल कागज़ों पर रह गया है.

कानून में बदलाव, पर सुधार नहीं

राज्य सरकार ने शराबबंदी कानून में समय-समय पर कई बदलाव किए. 2022 में पहली बार पकड़े जाने पर सजा की प्रक्रिया को आसान करते हुए एक्जिक्यूटिव मजिस्ट्रेट को केस की सुनवाई का अधिकार दिया गया. इसके साथ ही सजा को 10 साल से घटाकर 5 साल कर दिया गया.

2023 में भी इस कानून में बदलाव किए गए, लेकिन इन सभी प्रयासों के बावजूद शराब के मामलों में कमी नहीं आई. यह दर्शाता है कि नियमों में ढील देने या सख्ती करने से ज़्यादा ज़रूरी है उसके प्रभावी क्रियान्वयन की नीति.

मुकेश ( बदला हुआ नाम ) जिनके भाई की ज़हरीली शराब पीने से मौत हुई है. जब डेमोक्रेटिक चरखा ने उनसे बात की तो उन्होंने बताया कि “मेरे भाई काम करके घर आए , खाना खाया फिर टहलने बाहर निकल गए. जब वो वापस घर आए तो आकर सो गए, अचानक उनकी तबियत बिगड़ गई, उन्हें सांस लेने में तकलीफ़ हुई. जब हमें पता चला की उन्होंने शराब पिया है हमने तुरंत उनसे उल्टी करवाने की कोशिश की और थोड़ी उल्टी हुई भी. उसके तुरंत बाद हमने उन्हें डॉक्टर के पास भी ले गए लेकिन रास्ते में ही उनकी सांस बंद हो गई.”

भौगोलिक स्थिति बनी बड़ी चुनौती

बिहार की भौगोलिक स्थिति शराबबंदी की सबसे बड़ी दुश्मन बन गई है. राज्य की सीमाएं नेपाल, उत्तर प्रदेश, झारखंड और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों से लगती हैं, जहां शराबबंदी नहीं है. इन सीमावर्ती इलाकों से शराब की तस्करी बड़े पैमाने पर होती है, और प्रशासन की तमाम कोशिशों के बावजूद इसे रोक पाना लगभग असंभव साबित हुआ है. पश्चिम बंगाल और झारखंड में आबकारी राजस्व में लगातार वृद्धि इस बात का संकेत है कि वहां से शराब बिहार में पहुंच रही है.

मुकेश आगे बताते हैं कि “सरकार ने शराबबंदी तो लाई, लेकिन शराबबंदी विफल साबित हुई. आज बिहार में हर जगह शराब मिल रहा है ऊपर से ज़हरीली शराब ज़्यादा मिल रहा है जिसका सेवन करके लोग मौत को दावत दे रहें हैं. सरकार को या तो शराबबंदी हटा देनी चाहिए या फिर से शुरू कर देना चाहिए क्योंकि इस बंदी से सिर्फ़ लोगों की जान जा रही है.”

राजस्व का घाटा, फायदा कहीं नहीं

2015-16 में बिहार सरकार का आबकारी राजस्व 4,000 करोड़ रुपये तक पहुंच चुका था. लेकिन शराबबंदी लागू करने के बाद राज्य ने अनुमानित रूप से लगभग 40,000 करोड़ रुपये का नुकसान उठाया है.
एक आर्थिक रूप से पिछड़े राज्य के लिए यह घाटा अत्यंत घातक है. न तो इस नीति से सामाजिक सुधार दिखे, न ही अपराध में कमी आई, उल्टा सरकार ने एक बड़े राजस्व स्रोत से हाथ धो लिया.

एनसीआरबी बनाम जमीनी हकीकत

एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार, 2015 से 2021 के बीच बिहार में केवल 23 मौतें ज़हरीली शराब से हुईं. यह आंकड़े पुलिस रिकॉर्ड पर आधारित हैं. लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि कई मामले थाने से बाहर ही 'सेटल' कर लिए जाते हैं और वे रिकॉर्ड में नहीं आते.ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या सरकार और प्रशासन जानबूझकर वास्तविकता से मुंह मोड़ रहे हैं? 

2024 में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इस कानून को वापस लेने के मूड में नहीं हैं. बल्कि अब वह शराबबंदी की सफलता को लेकर सर्वेक्षण कराना चाहते हैं.
जेडीयू मंत्री सुनील कुमार ने जानकारी दी है कि एक टीम गठित की जाएगी, जो घर-घर जाकर शराबबंदी की सफलता पर रिपोर्ट तैयार करेगी. इसके लिए एक एजेंसी का चयन भी किया जाएगा.लेकिन सवाल यह है कि क्या यह सर्वे महज़ एक औपचारिकता बनकर रह जाएगा? या फिर यह सरकार की एक और कोशिश होगी अपने ही निर्णय को सही ठहराने की?

 नीति की नहीं, नियत की बात

बिहार में शराबबंदी का मकसद चाहे जितना भी पवित्र रहा हो, लेकिन उसका क्रियान्वयन उतना ही कमज़ोर साबित हुआ है. लाखों गिरफ्तारियां, करोड़ों लीटर शराब की जब्ती, और फिर भी ज़हरीली शराब से मौतें और बढ़ती ख़पत—यह सब इस कानून की विफलता को उजागर करता है.

सरकार को अब चाहिए कि वह ज़मीनी सच्चाई को स्वीकार करे और ऐसी नीति बनाए जो व्यवहारिक हो, न कि केवल दिखावटी. वरना शराबबंदी एक सामाजिक सुधार के बजाय एक राजनीतिक भूल बनकर इतिहास में दर्ज हो जाएगी.

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