बाल मजदूरी देश की बड़ी समस्याओं में से एक है. साल 2011 की जनगणना से पता चलता है कि देश में 5 से 14 वर्ष की आयु समूह के 43.53 लाख बच्चे बाल मज़दूर हैं. ये आंकड़े श्रम एवं रोजगार मंत्रालय की वेबसाइट पर मौजूद हैं. इससे पहले साल 2001 की जनगणना के अनुसार भारत में 5 से 14 वर्ष के 1.26 करोड़ बच्चे बाल मज़दूर के रूप में काम कर रहे थे.
2011 की जनगणना के अनुसार उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र के बाद बिहार तीसरा राज्य है. जहां बाल मज़दूरों की संख्या ज्यादा है. यूपी में 8.96 लाख, महाराष्ट्र में 4.96 लाख तो बिहार में 4.51 लाख बाल मज़दूर काम कर रहे थे. जबकि 2001 की जनगणना में बिहार में 11.17 लाख बाल मज़दूर थे.
ख़तरनाक कामों में बच्चों का इस्तेमाल
बाल मज़दूरी में लगे बच्चे ऐसे ख़तरनाक व्यवसायों और उद्योगों में काम कर रहे हैं, जो बालश्रम (निषेध एवं विनियमन) अधिनियम के तहत निषेध है. शहरी क्षेत्रों में उन बच्चों की संख्या अधिक है, जो कैंटीन, ढाबे, फुटपाथ पर सामान बेचने से लेकर कचरा बीनने तक का काम करते हैं.
हालांकि इन बच्चों से ज़्यादा वैसे बच्चों की जिंदगी जोखिम में होती है जो हानिकारक कल-कारख़ानों में मज़दूरी करते हैं. ख़तरनाक केमिकल, बारूद, धारदार मशीन, गर्म भट्टियों या छोटे से बिना हवादार कमरे में काम करने वाले ये बच्चे 8 घंटे से ज़्यादा एक ही जगह पर लगातार काम करते हैं. लगातार ख़तरनाक केमिकल कारख़ानों में काम करने से बच्चों को कई खतरनाक बीमारियां अपने चपेट में ले लेती हैं.
बिहार के गया जिले के खिजरसराय प्रखंड की रहने वाली सीमा कुमारी (बदला हुआ नाम) 10 वर्ष की है. इतनी कम उम्र में सीमा के ऊपर अपने दो भाई-बहनों के साथ ही अपने घर की ज़िम्मेदारी है. इसके साथ ही सीमा अपने माता पिता के खेती के काम में भी मदद करती है. सीमा बताती हैं
शुरू में मैं अपने माता-पिता के लिए दोपहर का भोजन ले जाती थी. मेरे माता-पिता खेती के काम में बुवाई, निराई और कटाई करते हैं. लेकिन धीरे-धीरे इस काम में मज़दूरी घटती गई और मेरे घर में पैसे की कमी होने लगी. घर का खर्च पूरा करने के लिए फिर मुझे मज़दूरी करनी पड़ी. मैं भी उनके साथ खेती के काम में बुवाई और फसलों के कटाई में लग गई हूं.
मौलिक अधिकारों का खुला हनन है बाल मजदूरी
बिहार में बालश्रम के प्रमुख कारणों में गरीबी, अशिक्षा और बेरोज़गारी है. जहां 40% से अधिक लोग गरीबी से जूझ रहे हैं. ऐसी स्थिति में बच्चे बालश्रम करके अपना और माता-पिता का पेट भरते हैं. भारत में जनसंख्या का एक बड़ा वर्ग अशिक्षित है. जिसके दृष्टिकोण में शिक्षा ग्रहण करने से अधिक आवश्यक है धन कमाना, जिससे बालश्रम को बढ़ावा मिलता है.
सरकार बालहिंसा, लैंगिक अपराध, बाल तस्करी और बालश्रम से जुड़े अपराध को रोकने के लिए कानून बनाती है. लेकिन प्रशासनिक लापरवाही के कारण उसपर सख्ती से अमल करने पर ज़ोर दिया जाता है.
संविधान के भाग 3 में अनुच्छेद 12 से 30 तक एवं 32 से 35 में मौलिक अधिकारों का वर्णण किया गया है. जो शोषण के विरूद्ध अधिकार, मानव तस्करी, बेगार एवं जबरन श्रमिकों का निषेध करता है. जबकि 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को खतरनाक काम-धंधों में लगाना तथा मज़दूरी कराने को अपराध की श्रेणी में रखता है.
वर्ष 1949 में सरकार द्वारा सरकारी विभागों के साथ निजी क्षेत्रों में भी श्रमिकों के कार्य करने की न्यूनतम आयु 14 वर्ष निर्धारित कर दी गयी.
भारत सरकार ने वर्ष 1979 में बाल श्रम समस्याओं से संबंधित अध्ययन हेतु गुरुपादस्वामी समिति का गठन किया. जिसके सुझाव पर बाल श्रम अधिनियम 1986 लागू किया गया. यह पहला विस्तृत कानून है, जो 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को व्यवस्थित उद्योगों एवं अन्य कठिन औद्योगिक व्यवसायों जैसे बीड़ी, कालीन, माचिस, आतिशबाजी आदि के निर्माण में रोजगार देने पर प्रतिबंध लगाता है.
बाल मजदूरी की एक प्रमुख वजह गरीबी
बावजूद इसके हमारे देश में बालश्रमिकों की संख्या आज भी करोड़ों में है. संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा निर्धारित सतत विकास लक्ष्य 8 के अंतर्गत 8.7 में भी 2025 तक बाल मज़दूरी को पूरी तरह से ख़त्म करने का संकल्प लिया गया है. बाल श्रम के प्रति विरोध एवं जागरूकता फैलाने के मकसद से हर साल 12 जून को बालश्रम निषेध दिवस भी मनाया जाता है. लेकिन इन सबके बावजूद सच्चाई यही है कि बाल श्रम निरंतर जारी है.
साल 2021 में नीति आयोग द्वारा जारी बहुआयामी गरीबी रिपोर्ट के अनुसार बिहार देश में सबसे गरीब राज्यों में से एक है. रिपोर्ट के अनुसार, बिहार की 51.91% जनसंख्या गरीब है.
किशनगंज बिहार का सबसे गरीब जिला है, जहां की 64.75% जनसंख्या गरीब है. वहीं अररिया की 64.65%, मधेपुरा की 64.35%, पूर्वी चंपारण की 64.13% एवं सुपौल की 64.10% आबादी गरीब है.
साल 2022-23 में बाल मज़दूरों से निकले गये बच्चों के ऊपर ख़र्च करने के लिए 20 करोड़ आवंटित किये गये थे. जिसमें से साल दिसंबर 2022 तक के अंत तक 15.40 करोड़ रूपए ख़र्च किये गये थें.
बाल मजदूरी रोकने के लिए शिक्षा पहुंचानी ज़रूरी
बिहार में बच्चों के हितों और सुरक्षा के लिए काम करने वाली संस्था Save The Children के असिस्टेंट मैनेजर पीयूष कुमार बताते हैं
बच्चे बाल मज़दूरी में इसलिए चले जा रहे हैं, क्योंकि उनके अभिभावक या माता पिता शिक्षा के महत्व को समझ नहीं पा रहे हैं. अभिभावक को लगता है कि अगर बच्चा काम करेगा तो आर्थिक स्थिति अच्छा हो जायेगी. अभिभावक ये समझ नहीं पा रहे हैं कि बच्चे को अगर शिक्षा मिल जायेगी तो बाल मज़दूरी के कुचक्र को तोड़ पाएंगे. दूसरी तरफ बच्चे मज़दूरी में इसलिए चले जा रहे हैं, क्योंकि उनके पास गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा की पहुंच नहीं है. जो बच्चे विद्यालय में होने चाहिए वो बाहर जा रहे हैं.
पूरे भारत में बाल श्रम और बाल व्यापार एक बड़ी समस्या बनी हुई है. गरीब परिवारों की आर्थिक तंगी उन घरों में पल रहे बच्चों को बाल मज़दूरी के लिए विवश करती है. यही कारण है कि बिहार, झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों से बाल तस्करी सबसे अधिक होती है.
बाल मज़दूरी और बाल तस्करी के शिकार हुए अधिकांश बच्चे बस्तियों में रहने वाले होते हैं. दलित, महादलित, आदिवासी और पिछड़े समुदाय से आने वाले इन बच्चों के घर में खाने के लाले पड़े होते हैं. काम की कमी, उचित मज़दूरी का अभाव और समय पर पैसा नहीं मिलने का सीधा असर ना परिवारों में रह रहे बच्चों के भविष्य पर पड़ता है.
बिहार और झारखण्ड के सूदूरवर्ती क्षेत्रों में मज़दूरी ना मिलने के मजदूरों को पलायन करना पड़ता है. जिसके कारण बड़ी संख्या में मज़दूर दिल्ली, कोलकाता और मुंबई जैसे बड़े महानगरों में पलायन करते हैं.
साथ ही व्यापारिक और औद्योगिक शहरों में आगरा, जयपुर, पंजाब, लखनऊ, कानपुर, मुरादाबाद, फ़रीदाबाद, बरेली और सूरत जैसे- शहरों में मज़दूरों का लगातार पलायन हो रहा है. इनमें काफी संख्या में बाल मज़दूर होते हैं. जिन्हें यहां की चूड़ी, बर्तन, कपड़े, चमड़े, बेकरी और केमिकल की फैक्टरियों और ढाबों में बंधुआ मजदूर के तौर पर लगाया जाता है.
"सिर्फ़ कानून बनाने से नहीं रुकेगी बाल श्रम"
पीयूष बाल श्रम को रोकने के लिए बने कानून पर बात करते हुए कहते हैं
हमारे यहां बाल श्रम को रोकने के लिए कानून या अधिनियम तो बनाए गए हैं, पर इसका सख्ती से पालन नहीं हो रहा है. अभिभावक या नियोजक के मन ये डर होना चाहिए की अगर हम बाल मजदूरी में बच्चे को लगाते हैं तो कल हमपर कार्यवाही हो सकती है. सरकार द्वारा बच्चों या उनके परिवार के पुनर्वास के लिए कई योजनाएं है. लेकिन जिन विभागों द्वारा उसका निष्पादन (इंप्लीमेंटेशन) होना चाहिए, उन विभागों में सामंजस्य नहीं है. कानून बनाकर अगर इसे रोका जा सकता तो 1986 में बने बाल श्रम निषेध कानून आने के बाद बाल मजदूरी बंद हो जाती.
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2021 तक दुनिया भर में बाल श्रमिकों की संख्या बढ़कर 16 करोड़ हो गई है. रिपोर्ट में कहा गया है कि कोरोना काल के लॉकडाउन के चलते बाल मज़दूरों की संख्या बढ़ी है.
भारत में बाल श्रम को लेकर काम कर रहे कैलाश सत्यार्थी चिल्ड्रन ऑर्गेनाइजेशन द्वारा प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, भारत में आने वाले सालों में बाल मज़दूरों की संख्या में कमी होगी. बाल मज़दूरों की संख्या 2021 में 81.2 लाख थी, इसके 2025 में घटकर 74.3 लाख होने की संभावना है.
लेकिन रिपोर्ट कहती है कि इस संख्या को केवल तभी कम किया जा सकता है. जब लगातार प्रयास न केवल बच्चों को बचाने पर केंद्रित हों, बल्कि उन्हें स्कूल भेजने और उन्हें काम पर लौटने से रोकने पर भी ध्यान दिया जाए.
पीयूष कहते हैं
बाल मज़दूरी के कारण ही बाल तस्करी जैसे अपराध बढ़ रहे हैं. ऐसे समूह बच्चों की अच्छी शिक्षा या अच्छे जगहों पर नौकरी दिलवाने का प्रलोभन अभिभावक को देते हैं. इसके बाद वो बच्चों को ले जाकर जबरन मज़दूरी में लगा देते हैं.
किसी भी प्रगतिशील समाज के लिए बाल मज़दूरी अभिशाप है. जब तक समाज में व्यावहारिक बदलाव नहीं आता बाल श्रम को नहीं रोका जा सकता.