बिहार में बीते साल कराए गए जातीय जनगणना से राजनीतिक तौर पर कई फायदे सरकार को मिले. जनगणना के आधार पर राज्य में आरक्षण भी लागू किया गया और 94 लाख गरीब परिवारों को जिनकी आय 6000 से कम थी, उनके लिए सीएम नीतीश कुमार ने उद्यमी योजना की भी शुरुआत की. लेकिन राज्य में हुए इस जाति आधारित सर्वेक्षण में नीतीश सरकार को अब भी राहत नहीं है, इस सर्वेक्षण के खिलाफ शीर्ष कोर्ट में मामला चल रहा है.
सोमवार को सुप्रीम कोर्ट ने जातीय सर्वेक्षण करने के बिहार सरकार के फैसले को बरकरार रखने के पटना हाई कोर्ट के आदेश को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई के लिए 16 अप्रैल की तारीख तय की है. जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस दीपंकर दत्ता की बेंच ने इस मामले पर सुनवाई करते हुए कहा कि इसपर विस्तृत सुनवाई की जरूरत है. इस मुद्दे पर दायर सभी हस्तक्षेप आवेदनों पर 16 अप्रैल को अंतिम सुनवाई की जाएगी.
इसके पहले शीर्ष अदालत ने 2 जनवरी को बिहार सरकार से जाति आधारित सर्वेक्षण का विवरण सार्वजनिक करने के लिए कहा था, ताकि जिन भी लोगों को जाति आधारित सर्वेक्षण के आंकड़ों से असंतुष्टि है वह निष्कर्ष को चुनौती दे सके. इसके बाद कई याचिकाएं कोर्ट में जाति आधारित सर्वेक्षण के खिलाफ दायर की गई हैं.
मालूम हो कि नीतीश सरकार ने 2 अक्टूबर 2023 को जातीय सर्वेक्षण के आंकड़ों को जारी किया था. जारी हुए आकड़ों पर राज्य की कई जातियों ने असंतुष्टि का दावा पेश किया था. विपक्ष की तरफ से यह आरोप लगाया गया था कि नीतीश कुमार ने लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए इन आंकड़ों को जारी किया है. आंकड़ों के मुताबिक राज्य में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और अत्यंत पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) की आबादी 63% है. राज्य की कुल जनसंख्या 13.07 करोड़ है, जिसमें सबसे ज्यादा पिछड़ा वर्ग 36 प्रतिशत है. इसके बाद 27.13 प्रतिशत अन्य पिछड़ा वर्ग की संख्या है.
जिस समय यह सर्वेक्षण कराया गया था उस समय बिहार में जदयू के साथ राजद-कांग्रेस की गठबंधन वाली सरकार चल रही थी . पिछले महीने ही 28 जनवरी को नीतीश कुमार ने राजद और कांग्रेस का साथ छोड़कर एनडीए के साथ मिलकर अपनी सरकार बनाई थी.