बिहार में मछली उत्पादन की बदलती तस्वीर ज़मीन पर कितनी सही?

“मैंने 12 कट्ठा में तालाब बनवाया है. पहले सरकारी मदद के लिए कई बार कार्यालय गया. लेकिन वहां एक बार सीधे-सीधे नहीं बताया गया कि आपको कौन-कौन सा कागज़ लाना है."

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मछ्ली

कुछ वर्षों पहले तक मछली पालन का व्यवसाय एक विशेष जाति का काम माना जाता था. लेकिन बढ़ती मंहगाई और रोज़गार के वैकल्पिक क्षेत्रों की तलाश में काफ़ी संख्या में पारंपरिक खेती करने वाले किसानों ने भी मछली पालन करना शुरू कर दिया.

इससे किसानों को परंपरागत    के जोखिमों से थोड़ी राहत और नगदी आय का का दूसरा साधन मिल जाता है. केंद्र और राज्य सरकार भी किसानों को प्रोत्साहित करने के लिए कई तरह की योजनायें चला रही हैं, जो उन्हें व्यवसाय शुरू करने में मदद करती है.

यही कारण रहा है कि भारत मछली उत्पादन के मामले में विश्व में तीसरा और जलीय कृषि उत्पादक क्षेत्र में विश्व में दूसरा स्थान रखता है. मछली पालन भारत का सबसे बड़ा कृषि निर्यात है, जो पिछले पांच वर्षों में छह से 10 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है. मछली उत्पादन भारत के सकल मूल्य वर्धन (GVA) में 1.09% का योगदान दे रहा है, जबकि कृषि क्षेत्र के जीवीए में इसका योगदान लगभग सात फीसदी रहा है.

बिहार में वर्ष 2022-23 में 8 लाख 46 हजार टन मछली का उत्पादन हुआ जो राज्य के सालाना खपत 8.02 लाख टन से अधिक था. यानी राज्य पहली बार मछली उत्पादन में आत्मनिर्भर बन गया है. ऐसे में यह प्रश्न उठता है कि क्या मछली उत्पादन में लगे किसान भी आत्मनिर्भर और आर्थिक रूप से सशक्त बन गये हैं?

मिथिला क्षेत्र के अलावा किस हाल में हैं मछली किसान?

डिपार्टमेंट ऑफ फिशरीज़ के अनुसार बिहार में कुल 60,27,375 मछली पालक किसान हैं. रिपोर्ट के अनुसार राज्य के प्रत्येक जिले से 1,58,615 लोग मछली पालन से जुड़े हुए हैं. हाल ही में जारी हुए बिहार आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट 2023-24 में मछली पालन क्षेत्र में राज्य को मिली उपलब्धि का उल्लेख किया गया है.

मछली उत्पादन के क्षेत्र में मिली सफ़लता में तीन जिलों का मुख्य स्थान रहा. मधुबनी (0.89 लाख टन), दरभंगा (0.83 लाख टन) और पूर्वी चंपारण (0.71 लाख टन). इनका राज्य के कुल मछली उत्पादन में संयुक्त रूप से 28.7 फ़ीसदी का योगदान रहा.

भौगोलिक रूप से भी यह तीनों जिलों मछली पालन और और उसके सेवन के लिए शीर्ष पर रहे हैं. लेकिन अन्य जिलों का क्या? जहां के किसान मुनाफ़े की आशा लिए मछली पालन करना शुरू तो कर रहे हैं, लेकिन उन्हें ना तो सरकारी वित्तीय सहायता मिल पा रही है और ना ही उत्पादन के बाद मछली को बेचने के लिए बाज़ार.

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नालंदा जिले के नूरसराय ब्लॉक के रहने वाले किसान मुकेश सिंह के पास दो बीघा ज़मीन है. पीढ़ियों से उनका परिवार पारंपरिक खेती करता आ रहा है. लेकिन गांव में ईट-भट्ठा संचालकों की दबंगई के कारण किसानों के खेत से मिट्टी निकाल ली जाती है. वहीं जिन लोगों ने अपना खेत नहीं दिया, उनके खेत के अगल-बगल गड्ढा कर दिया जाता है. मुकेश सिंह की कुछ ज़मीन इसी कारण बेकार हो गयी थी. 

मुकेश सिंह ने बेकार पड़े अपने खेत में मछली पालन करने का फ़ैसला किया. लेकिन कई बार ब्लॉक  का चक्कर लगाने के बाद भी उन्हें कोई सटीक जानकारी नहीं मिल पाई. इसके बाद उन्होंने अपने पैसे से तालाब बनवाने का निर्णय लिया. तालाब निर्माण में उन्हें तीन लाख रुपए का ख़र्च आया. मुकेश कहते हैं “मैंने 12 कट्ठा में तालाब बनवाया है. पहले सरकारी मदद के लिए कई बार कार्यालय गया. लेकिन वहां एक बार सीधे-सीधे नहीं बताया गया कि आपको कौन-कौन सा कागज़ लाना है. बहुत टहलाया जाता है. जानबूझकर आम लोगों को परेशान किया जाता है.”

छोटे किसानों की बात कौन सुनता है? 

प्रधानमंत्री मत्स्य संपदा योजना के तहत सामान्य वर्ग के मछली पालकों को 40 फ़ीसदी और महिला व एससी, एसटी और पिछड़ा-वर्ग से आने वाले लोगों को 60 फ़ीसदी अनुदान देने का नियम है. प्रधानमंत्री मत्स्य संपदा योजना के तहत विभिन्न योजनाएं जैसे- नए तालाब का निर्माण, मत्स्य बीज हैचरी, मीठे जल कॉर्प हैचरी, जलाशयों में मत्स्य पालन, लघु अलंकारी मछली पालन, समेकित अलंकारी मछली पालन, नए तालाब के लिए इनपुट योजना आदि शामिल हैं. 

केंद्र सरकार ने 2020-21 से 2022-23 तक इन योजनाओं पर 3038.82 करोड़ रुपए खर्च किये हैं. बिहार को वर्ष 2020-21 से 2022-23 तक 4240.27 लाख रुपए दिए गये हैं. बिहार सरकार भी मत्स्य पालकों को तालाब खुदवाने के लिए अनुदान देती है. जिसमें सामान्य वर्ग के लोगों को 50 फ़ीसदी और एससी-एसटी और पिछड़ा वर्ग के लोगों को 70 फ़ीसदी तक अनुदान देने का प्रावधान है.

मछली पालक तपेशर राम कहते हैं “अनुदान केवल बड़े-बड़े तालाब वाले लोगों को मिलता है. जिनके पास छोटा तालाब है उसका कोई नहीं सुनता है.”

जानकारी की कमी दूर करने में किसी का ध्यान नहीं

छोटी पूंजी के मछली पालकों के लिए इस व्यवसाय को शुरू करने से पहले उचित जानकारी ना होना घाटे का सौदा बन जाता है. तालाब के हिसाब से मछली के प्रकार का चयन ना कर पाना, उचित मूल्य पर दाना ना मिल पाना, तालाब में साफ़-सफ़ाई और पानी की व्यवस्था करना जैसे कई कारक मछली पालकों को परेशान करती हैं. वहीं उत्पादन के बाद बाजार में उचित मूल्य ना मिलने के कारण उन्हें काफ़ी निराशा होती है . 

मुकेश सिंह कहते हैं “तालाब में पानी का लेवल बनाए रखने के लिए रोजाना दो से तीन घंटे बोरिंग चलाना पड़ता है. क्योंकि मिट्टी ऐसा नहीं है जिसमें एक सप्ताह से 10 दिन तक पानी ठहर सके.”

मछली पालक तपेशर राम ने दो कट्ठे में तालाब बनवाया हुआ है. तपेशर राम के पास अपना बोरिंग नहीं है. दूसरे के बोरिंग से पानी लेना पड़ता है. एक घंटा पानी देने का 60 रूपया लगता है. ऐसे में महीने में लगभग तीन हज़ार रूपया केवल पानी देने में खर्च हो जाता है.

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तपेशर राम कहते हैं, "शुरुआत में कौन सी मछली डालना जल्दी मुनाफा देगा, इसकी भी हमारे पास कोई जानकारी नहीं है. मैंने जासर, रोहू और ग्रास कार्प डाला है. लेकिन रोहू को तैयार होने में दो साल का समय लगता है. जबकि जासर और ग्रास कार्प छह से आठ महीने में तैयार हो जाता है. लेकिन इनको रोज़ 10 किलो दाना खिलाना पड़ता है. 40 केजी का एक पैकेट 2600 से 2800 रुपए का पड़ता है, जो चार दिन में ही ख़त्म हो जाता है.” 

मछली पालन करने वाले किसानों को एक महीने में लगभग 12 हज़ार रूपए का ख़र्च दाना और पानी पर करना पड़ता है. लेकिन उत्पादन के बाद बाज़ार की समस्या सबसे प्रमुख हो जाती है. राज्य स्तर पर बिहार सरकार कई योजनाएं चला रही हैं जिनमें मुख्यमंत्री मत्स्य विपणन योजना प्रमुख है.

सात निश्चय-2 में मछली बाज़ार बनाने का काम धरातल से गायब

मुख्यमंत्री मत्स्य विपणन योजना के अंतर्गत मछली विक्रेताओं को बाजार और विपणन में उपयोग होने वाली वस्तुओं की किट उपलब्ध कराना हैं. सात निश्चय-2 के तहत क्रियान्वित इस योजना के अंतर्गत राज्य के विभिन्न जिलों में 30 प्रखंड स्तरीय और 30 पंचायत स्तरीय मछली बाज़ारों का निर्माण कराया जाना शामिल है. योजना के मुख्य लाभों में खुदरा स्थितियों में सुधार लाना,आजीविका के नए अवसर और मछुआरों का सामाजिक तथा आर्थिक विकास करना शामिल है. वर्ष 2023-24 में योजना के लिए 11.58 करोड़ रुपए की स्वीकृत हुई है.

मुकेश सिंह बताते हैं “हमारे में क्षेत्र में मात्र एक बड़ी मंडी बिहारशरीफ में है. जहां कई क्षेत्रों से मछलियां आती हैं. हम जैसे लोकल तालाब वालों को यहां रेट नहीं मिलता है. जिस मछली का दाम 150 रूपये किलो मिलना चाहिए वह यहां 80 से 100 रुपए किलो लिया जाता है. मजबूरी में हमें अपना माल यहीं बेचना पड़ता है.”

मछली पालक तपेशर राम, मुकेश सिंह और कारू सिंह को मछली पालन के लिए किसी भी तरह की सरकारी सहायता का लाभ नहीं मिल सका है. व्यवसाय में घाटे का सामना करते हुए किसान केवल मज़बूरी में मछली पालन के व्यवसाय से जुड़े हुए हैं.